'मैंने ऐसा विषाक्त चुनाव प्रचार कभी नहीं देखा'
Dr SB Misra | Mar 29, 2019, 08:54 IST
पिछले चुनावों में पार्टियों के छुटभैये नेता अमर्यादित भाषा से परहेज नहीं करते थे, लेकिन पार्टियों के मुखिया गालियां नहीं देते थे। अब तो जिन्हें अदालत ने जमानत पर छोड़ा हुआ है उनका व्यवहार भी संयमित नहीं है।
पहले सेना के शौर्य और वैज्ञानिकों की उपलब्धियों पर कभी सवाल नहीं उठे, यहां तक कि चीन के हाथों पराजय को भी सेना के माथे नहीं मढ़ा गया। अच्छा होता विपक्ष एक वैकल्पिक प्रधानमंत्री, हासिल की गई अपनी सरकारों की उपलब्धियां और भविष्य की कार्य योजना पेश करता।
कालान्तर में उनके समर्थकों में देवकान्त बरुआ जैसे लोगों ने ''इंडिया इज इन्दिरा, ऐंड इन्दिरा इज इंडिया'' कहा था। आज फिर इतिहास अपने को दोहरा रहा है और विपक्ष सभी बुराइयों के लिए मोदी को जिम्मेदार ठहरा रहा है और समर्थक 'मोदी-मोदी'' के गगनभेदी नारे लगा रहे हैं। मोदी के भाषणों में सरकार और संगठन के सूचक ''हम और हमारा'' की जगह व्यक्तिवादी शब्द ''मैं और मेरा'' का प्रयोग अधिक होने लगा है। व्यक्ति को तानाशाह बनने में देर नहीं लगती। जिस इन्दिरा गांधी को कुछ लोग ''गूंगी गुड़िया'' कहते थे वह तानाशाह बन गईं।
जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने इन्दिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया और इन्दिरा जी ने आपातकाल लगा दिया, तो सचमुच जनता को परेशानियां उठानी पड़ी थीं। आज भी विपक्षी चीख पुकार लगा रहे हैं कि जनता त्रस्त है देश तबाह हो रहा है, पता नहीं जनता विश्वास करेगी या नहीं। उस समय सभी दलों ने अपने झंडे डंडे किनारे रखकर जनता पार्टी बनाई और यह बड़ा गठबंधन था। कांग्रेस हार गई आखिर जनता पार्टी ने दिल्ली जीत लिया। लेकिन अब तो विपक्ष चिन्दी चिन्दी है और कोई एक नेता नहीं । विपक्ष का नारा है मोदी हटाओ तो जनता को पूछने का हक है ''बदले में कौन दोगे।"
इस देश के लोगों का सिद्धान्त रहा है ''बुद्धम शरणम् गच्छामि, संघम शरणम् गच्छामि, धम्मम शरणम् गच्छामि'' यानी पहले नेता, फिर संगठन और बाद में सिद्धान्त। महागठबंधन के पास मार्गदर्शन के लिए नेता, संचालन के लिए संगठन और नीति निर्धारण के लिए सिद्धान्त में से कुछ भी तो नहीं है। अच्छा होता पक्ष और विपक्ष अराजकता फैलाने के बजाय शालीनता से चुनाव लड़ते तो प्रजातंत्र चलता रहता।
पहले सेना के शौर्य और वैज्ञानिकों की उपलब्धियों पर कभी सवाल नहीं उठे, यहां तक कि चीन के हाथों पराजय को भी सेना के माथे नहीं मढ़ा गया। अच्छा होता विपक्ष एक वैकल्पिक प्रधानमंत्री, हासिल की गई अपनी सरकारों की उपलब्धियां और भविष्य की कार्य योजना पेश करता।
जब सत्तर के दशक में इन्दिरा गांधी की पकड़ शासन पर ढीली पड़ रही थी, तो उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, राजा रजवाड़ों का प्रिवी पर्स समाप्त किए और युवा तुर्क यानी चन्द्रशेखर, मोहन धारिया, नाथम्मा, अमृत नहाटा जैसे नेताओं की मदद से बड़े परिवर्तन आरम्भ किए और ''गरीबी हटाओ'' का नारा दिया। जब विपक्ष आक्रामक हुआ तो उन्होंने कहा ''मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वे कहते हैं इन्दिरा हटाओ" फैसला आप कीजिए। तीर सही निशाने पर बैठा।
जब विपक्ष की समझ में आया कि नेहरू कांग्रेस यही 30-35 प्रतिशत वोट लेकर राज करती रही, तो विपक्ष ने 1967 में संयुक्त विधायक दल बनाकर कांग्रेस को कई प्रदेशों में परास्त कर दिया और दिल्ली पर नजर ग़ड़ाई।
इस देश के लोगों का सिद्धान्त रहा है ''बुद्धम शरणम् गच्छामि, संघम शरणम् गच्छामि, धम्मम शरणम् गच्छामि'' यानी पहले नेता, फिर संगठन और बाद में सिद्धान्त। महागठबंधन के पास मार्गदर्शन के लिए नेता, संचालन के लिए संगठन और नीति निर्धारण के लिए सिद्धान्त में से कुछ भी तो नहीं है। अच्छा होता पक्ष और विपक्ष अराजकता फैलाने के बजाय शालीनता से चुनाव लड़ते तो प्रजातंत्र चलता रहता।