जल समाप्त हुआ तो जीवन नहीं बचेगा 

Dr SB MisraDr SB Misra   2 Jun 2017 2:47 PM GMT

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जल समाप्त हुआ तो जीवन नहीं बचेगा देश में जल उपलब्धता की स्थिति एक समान नहीं है।

भारत की धरती पर प्रतिवर्ष लगभग 4000 घन किलोमीटर वर्षा जल गिरता है जिससे विशाल बफर स्टाक बनाया जा सकता है फिर भी यह विडम्बना है कि देश पर जल संकट की काली छाया मंडरा रही है। भूमिगत पानी की तरफ ध्यान 1967 में तब गया था जब बिहार में धरती पर लोग प्यासे थे और धरती के नीचे अथाह जल भंडार मौजूद था।

देश में जल उपलब्धता की स्थिति एक समान नहीं है। आसाम में बाढ़ से तबाही होती है तो विदर्भ में सूखा और अकाल का कहर। वर्षा जल के एक भाग को प्रकृति धरती के नीचे भंडारित कर देती है जैसे किसान अपनी फसल का कुछ भाग सुरक्षित रख लेता है। लेकिन भूजल के दुरुपयोग का हाल यह है कि भूजल से मनरेगा के तालाब भरे जा रहे हैं, मछली पालन हो रहा है, उद्योग धंधों में धरती के अंदर सुरक्षित पानी का उपयोग हो रहा है और जलस्तर गिरता जा रहा है। भूजल को बचाने का एक ही तरीका है कि जमीन की सतह पर उपलब्ध पानी का अधिकाधिक उपयोग किया जाए।

जल का जो भाग धरती के अंदर जाता है वह बालू कणों से छन-छन कर जाता है। यह मनुष्य के पीने के लिए पानी का बहुमूल्य श्रोत है। हमारे पूर्वजों ने एक मोटा नियम बनाया था कि भूजल पीने के लिए और सतह का पानी सिंचाई और पशुओं के प्रयोग के लिए होता था। अब उद्योगों और सिंचाई में अधिकाधिक भूलज के प्रयोग के कारण यह बटवारा समाप्त हो गया है फिर भी भूजल के संचय और प्रदूषणरहित बनाए रखने का सतत प्रयास होना ही चाहिए।

नदियों के किनारे बसे शहरों में चल रहे उद्योग धंधों का औद्योगिक कचरा और मानव जनित प्रदूषक पदार्थ सब नदियों में ही जाते हैं। सभी नदियां, झीलें, तालाब और जलाशय प्रदूषित हैं। तालाबों का जो पानी सिंचाई के काम आता था, पशु पक्षियों के पीने के और ग्रामवासियों के नहाने और कपड़े धोने के भी काम आता था, प्रदूषण के कारण पशुओं तक के काम का नहीं रहा। ग्रामीण इलाकों में वाटर हार्वेस्टिंग पर जोर नहीं, शायद ही किसी पंचायत के पास आंकड़े होंगे कि मनरेगा में तालाबों की खुदाई आरम्भ होने के पहले तालाबों की जलधारक क्षमता कितनी थी और बाद में कितनी हो गई।

यदि सड़कों, गलियारों, नहरों के किनारे पेड़ लगाए जाएं, तालाबों का समतलीकरण रोका जाए तो धरातल पर जल संग्रह बढ़ेगा। सघन सर्वेक्षण के द्वारा पंचायत स्तर पर ऐसे आंकड़े तैयार किए जाएं जिससे पता लगे कि प्रत्येक पंचायत में भूतल पर जल संग्रह की कितनी क्षमता उपलब्ध है। पूरे प्रदेश अथवा देश का आंकलन हो सकता है और आवश्यकता तथा आपूर्ति का अंतर पता लग सकेगा। पंचायत स्तर पर साल भर जल से भरे रहने वाले और मौसमी तालाबों की गणना होनी चाहिए और मौसमी तालाबों को वर्षभर जल से भरे रहने वाले तालाबों में बदलने का प्रयास होना चाहिए।

उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों जैसे सुल्तानपुर, रायबरेली, लखनऊ, बाराबंकी, सीतापुर आदि में सतह से 3-4 फिट की गहराई पर कंकड़ की ठोस परत के कारण भूजल के रीचार्ज में बाधा पड़ती है। कंकड़ की यह परत भूतलीय पानी और भूमिगत पानी के बीच में बाधा बनती है जिसे जगह-जगह पंक्चर करना चाहिए। इस परत के कारण बरसात का पानी धरती के अंदर नहीं जा पाता और जलभराव हो जाता है। गर्मी के दिनों में धरती के नीचे की नमी इसी कंकड़ की परत के कारण पौधों को नहीं मिल पाती। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में 4300 वर्ग किलोमीटर जमीन जलभराव से और लगभग 11500 वर्ग किलोमीटर मिट्टी क्षारीयता से प्रभावित है जिसके लिए कंकर परत जिम्मेदार है।

पानी बचाने के लिए जड़ में बार-बार पानी भरने के बजाय पत्तियों पर पानी छिड़कने (स्पि्रंकलर द्वारा) से कम पानी लगेगा और पौधे को अधिक लाभ मिलेगा। वर्तमान में सिंचाई के पानी से पौधों के उपयोग में केवल 30 प्रतिशत पानी आता है। अतः केवल सिंचाई में पानी की किफायत करके बिना पैदावार घटाए ही पानी की बहुत बड़ी बचत सम्भव है।

जल उपयोग के लिए जलनीति बनाने की आवश्यकता है। अमेरिका जैसे देशों में जल संसाधन नियंत्रण बोर्ड (वाटर रिसोर्स कन्ट्रोल बोर्ड) और जल अधिकार विभाग (वाटर राइट्स डिवीजन) बने हैं जिन में जिला परिषद, कृषक मंडल, उद्योगपति और स्वयंसेवी संस्थाओं का प्रतिनिधित्व रहता है। हमारे देश में कुछ स्थानों पर पानी पंचायत के रूप में कहीं-कहीं थोड़ा नियंत्रण है परंतु उसे कानूनी रूप देने की आवश्यकता है। मोटे तौर पर धरती के अंदर का मीठा पानी पीने के लिए सुरक्षित रखना चाहिए और धरातल पर मौजूद नदियों, झीलों और तालाबों का पानी सिंचाई, बागबानी, मछलीपालन, पशु-उपयोग और उद्योगों के लिए उपयोग में लाना चाहिए अन्यथा जल संकट से बच नहीं पाएंगे।

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