आज़ाद भारत में प्रगति तो हुई - कभी कम, कभी ज़्यादा
Dr SB Misra | Jul 22, 2025, 13:40 IST
भारत ने 1947 के बाद आज़ादी के संघर्ष से लेकर चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने तक लंबा सफर तय किया है। गाँव पोस्टकार्ड का ये लेख नेहरू की तटस्थ विदेश नीति से लेकर आज के सामाजिक बदलावों तक भारत के उतार-चढ़ाव भरे रास्ते को समझाता है- जहाँ वयस्क मताधिकार बना रहा, लेकिन सामाजिक सौहार्द डगमगाता रहा। क्या यह प्रगति काफी थी? और किसने रोका भारत को और आगे बढ़ने से?
जब देश की बागडोर पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथों में आई, तो देश बहुत ही बुरी हालत में था। अंग्रेजों ने इस देश को खोखला कर दिया था। गाँवों की आर्थिक दशा बहुत खराब थी और परमिट-कोटा की दुकान से नमक, चीनी और मिट्टी के तेल के लिए 4–5 किलोमीटर तक जाना पड़ता था। अब गाँव-गाँव में दुकानें हैं।
पिछले 10–12 वर्षों में देश के गाँवों और शहरों में जो बदलाव आया है, उसकी कभी कल्पना की जाती थी, उसके लिए संघर्ष भी हुआ था, लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाई थी। नेहरू जी ने देश में समाजवादी अर्थव्यवस्था लागू की, जो अंततः सफल नहीं कही जा सकती, लेकिन फिर भी उन्होंने खेतों की सिंचाई के लिए पानी और उद्योगों के लिए बिजली उपलब्ध कराने हेतु भाखड़ा, नगाल, रिहंद, जमरानी आदि बड़े बांधों का निर्माण कराया।
1952 के पहले आम चुनाव में पंडित नेहरू ने वयस्क मताधिकार का प्रयोग कराया, जो अत्यंत सफल रहा। पुरुष और महिलाओं, पढ़े-लिखे और अनपढ़ों के बीच कोई भेद नहीं किया गया। उस समय दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी— एक ओर रूस की अगुवाई में समाजवादी खेमा और दूसरी ओर अमेरिका की अगुवाई में पूंजीवादी खेमा। नेहरू जी ने दोनों में से किसी के साथ न जाकर तटस्थ विदेश नीति को अपनाया, जो आज तक जारी है और अब अधिक सफल दिखाई देती है। वर्तमान सरकार से पहले तक भारत को रूस के पक्ष में गिना जाता था, भले ही हम तटस्थ थे। रूस ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के पक्ष में कई बार वीटो का प्रयोग कर भारत को बल दिया।
आज़ाद भारत में आर्थिक पक्ष तो कमजोर था ही, सामाजिक पक्ष भी मज़बूत नहीं कहा जा सकता। अब कश्मीर से धारा 370 हटाकर उसे देश का अभिन्न अंग बना दिया गया है, जिससे कश्मीरियों की सोच में भी वांछित बदलाव आया है। तीन तलाक समाप्त करके मुस्लिम महिलाओं को सम्मान दिया गया है और वक्फ बोर्ड की संपत्तियों के संचालन पर नियंत्रण लगाकर गरीब मुसलमानों को राहत की संभावनाएं बनी हैं, पर यह सोचने वाली बात है कि इन कार्यों में 80 वर्ष क्यों लग गए?
अभी संविधान की एक अपेक्षा पूरी होना बाकी है — देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू की जाए।
भारत के साथ स्वतंत्र हुए देशों की स्थिति यह रही है कि कुछ तानाशाही का शिकार हुए, कुछ साम्यवाद की ओर चले गए। चीन ने साम्यवाद का रास्ता अपनाया और तानाशाही व्यवस्था के कारण उसकी आंतरिक स्थिति का पता दुनिया को नहीं चलता था। जब खाद्यान्न की भारी कमी आई और ऑस्ट्रेलिया से गेहूं खरीदना पड़ा, तब स्थिति सामने आई। रूस में समाजवादी अर्थव्यवस्था असफल रही और उसके 14 टुकड़े हो गए। अब रूस ने भी लगभग साम्यवादी व्यवस्था को त्याग दिया है। अन्य समाजवादी देशों की स्थिति भी भारत की 60 के दशक जैसी हो गई थी, जब गरीब और गरीब होता गया और अमीर और अमीर।
चीन को आज़ादी भारत से एक वर्ष बाद मिली थी, लेकिन उसने आज विश्व में बड़ी छलांग लगाई है। इसमें संदेह नहीं कि चीन के लोगों ने स्वतंत्रता को सीमित कर भारी कीमत चुकाकर यह उपलब्धि प्राप्त की। भारत ने लोकतांत्रिक प्रणाली अपनाते हुए धीमी गति से प्रगति की, लेकिन इसका दोष तंत्र को नहीं दिया जा सकता। वर्तमान भारत ने नई शासन व्यवस्था के अंतर्गत भी विश्व में अपना उचित स्थान बनाया है और वह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है।
हमें इस बात पर गर्व है कि गरीब देश होने के बावजूद हमारे देश की जनता ने न तो तानाशाही का तांडव झेला और न ही साम्यवाद का कठोर शासन। लेकिन शर्म भी महसूस होती है जब 1962 में चीन के हाथों शर्मनाक पराजय झेलनी पड़ी। सच कहूं तो आज़ादी के बाद समाजवाद के रास्ते पर चलने के कारण विकास की गति धीमी रही। 60 के दशक में ऐसा समय आया जब देश में खाद्यान्न की भारी कमी हो गई, कर्ज लेना पड़ा, रुपए का अवमूल्यन करना पड़ा और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की प्रतिष्ठा घट गई। मैंने स्वयं उत्तरी अमेरिका में यह अनुभव किया कि जब वहां भारत के विषय में बात होती थी, तो जवाब होता था— "अब तुम क्या हो?" केवल भारत ही नहीं, रूस और चीन ने भी समाजवाद छोड़कर पूंजीवाद के उपाय अपनाए।
यह भी सत्य है कि समाजवादी व्यवस्था के अंतर्गत ही भारत ने दो बार पाकिस्तान को पराजित किया और उसे दो टुकड़ों में बाँट दिया। इसी व्यवस्था में भारत ने परमाणु ताकत की क्षमता प्राप्त की, भले ही दुनिया के सामने इसे प्रमाणित करने में समय लगा। विभाजन के कारण भारत के नागरिकों को अनेक देशों में भटकना पड़ा और असंख्य पीड़ाएं झेलनी पड़ीं। विभाजन को रोकने में न गांधी जी की चली, न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की, जो अखंड भारत की बात करते रह गए। मोहम्मद अली जिन्ना का उद्देश्य भी पूरा नहीं हुआ क्योंकि वे सभी मुसलमानों को पाकिस्तान ले जाना चाहते थे, और इसके लिए अनुपातिक रूप से धरती भी चाहते थे। बंटवारा तो हो गया लेकिन मुस्लिम आबादी एकत्रित नहीं हो सकी। दंगे तब भी होते थे, आज भी हो रहे हैं— इसका दोष किसे दें, कहना कठिन है। हिंदुओं का संघर्ष ईसाई, पारसी, सिख, जैन और अन्य धर्मावलंबियों से नहीं होता, लेकिन मुसलमानों से होता है— इसके पीछे कोई न कोई कारण ज़रूर होगा। शायद इस्लाम में धार्मिक विषयों पर तर्क और जिज्ञासा को वर्जित मानना भी एक कारण हो। फिर भी भारत एक इकाई के रूप में जीवित है— शायद सनातन मूल्यों के कारण। वरना भारत भी पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह खंड-खंड हो गया होता।
आश्चर्य होता है जब हमारे शासक— जो इसी सनातन परंपरा में पले-बढ़े— एक ओर हिंदू कोड बिल लाते हैं, दूसरी ओर शरिया कानून भी लागू करते हैं। देश की सेक्युलर व्यवस्था में हिंदू कोड और शरिया कानून दोनों को किस आधार पर समायोजित किया गया, यह अबूझ है। अब समान नागरिक संहिता लाने का प्रयास हो रहा है— यह कब और कैसे सफल होगा, कहना कठिन है।
भारत की तटस्थ विदेश नीति को अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान मिल रहा है। रूस सदैव भारत का मित्र रहा है, लेकिन जब वह यूक्रेन से युद्ध में है, तब वह भारत से अपेक्षा नहीं करता कि भारत उसके पक्ष में खड़ा हो। इसी तरह ईरान और इज़राइल के युद्ध में भी भारत की तटस्थता को दोनों देश सम्मान दे रहे हैं। अमेरिका इज़राइल का साथ दे रहा है, लेकिन भारत की नीति स्पष्ट है— वह युद्ध का भागीदार नहीं बनेगा। 1971 में जब भारत-पाक युद्ध हुआ, तब अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ देते हुए अपना बेड़ा उतार दिया था— लेकिन वह बीते जमाने की बात है।
आज भारत की आर्थिक स्थिति वैसी नहीं है जैसी इंदिरा गांधी के समय में थी, जब अमेरिका से वह गेहूं लेना पड़ा था जिसे वह समुद्र में फेंकने वाला था। उस समय रुपए का अवमूल्यन हुआ था और देश की प्रतिष्ठा भी गिरी थी। अब दुनिया के देश भारत में निवेश करना चाहते हैं। भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और तीव्रतम गति से बढ़ रहा है। अब भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर है और इतनी अधिकता है कि गरीबों को मुफ्त राशन दिया जा रहा है। युद्ध-संबंधी उपकरणों और शस्त्रों में भी आत्मनिर्भरता बढ़ी है। देश में भले ही हिंदू-मुस्लिम तनाव हो, लेकिन मुस्लिम देशों से भारत के रिश्ते बेहतर हुए हैं— शायद आज़ादी के बाद पहली बार।
यह सच है कि देश में पुल-बांध टूटते हैं और भ्रष्टाचार व्याप्त है, लेकिन निकट भविष्य में सुधार संभव है। आज़ादी के बाद हर सरकार ने कुछ-न-कुछ रचनात्मक कार्य किए हैं— कभी कम, कभी ज़्यादा। यह समय तुलना का नहीं, बल्कि यह स्वीकार करने का है कि देश, विशेषकर गांव, आगे बढ़े हैं। रात में जब गांव की गलियों से गुजरते हैं, तो बिजली की रोशनी से चमकते गांव उस अंधेरे अतीत की याद दिलाते हैं। अगर हम अपने गांवों और स्वतंत्र हुए अन्य देशों से तुलना करें, तो लगता है और बेहतर किया जा सकता था। फिर भी आशा है कि व्यक्तिगत आज़ादी और वयस्क मताधिकार के सहारे हमारा देश प्रगति के पथ पर चलता रहेगा।
पिछले 10–12 वर्षों में देश के गाँवों और शहरों में जो बदलाव आया है, उसकी कभी कल्पना की जाती थी, उसके लिए संघर्ष भी हुआ था, लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाई थी। नेहरू जी ने देश में समाजवादी अर्थव्यवस्था लागू की, जो अंततः सफल नहीं कही जा सकती, लेकिन फिर भी उन्होंने खेतों की सिंचाई के लिए पानी और उद्योगों के लिए बिजली उपलब्ध कराने हेतु भाखड़ा, नगाल, रिहंद, जमरानी आदि बड़े बांधों का निर्माण कराया।
1952 के पहले आम चुनाव में पंडित नेहरू ने वयस्क मताधिकार का प्रयोग कराया, जो अत्यंत सफल रहा। पुरुष और महिलाओं, पढ़े-लिखे और अनपढ़ों के बीच कोई भेद नहीं किया गया। उस समय दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी— एक ओर रूस की अगुवाई में समाजवादी खेमा और दूसरी ओर अमेरिका की अगुवाई में पूंजीवादी खेमा। नेहरू जी ने दोनों में से किसी के साथ न जाकर तटस्थ विदेश नीति को अपनाया, जो आज तक जारी है और अब अधिक सफल दिखाई देती है। वर्तमान सरकार से पहले तक भारत को रूस के पक्ष में गिना जाता था, भले ही हम तटस्थ थे। रूस ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के पक्ष में कई बार वीटो का प्रयोग कर भारत को बल दिया।
सांप्रदायिक आधार पर भारत का बंटवारा स्वीकार करने के बाद पाकिस्तान मुसलमानों के लिए और भारत हिंदुओं के लिए होना चाहिए था, ऐसा नहीं हुआ। भारत का बंटवारा हो जाने के बाद भी शेष भारत में हिंदू-मुस्लिम सौहार्द नहीं बन पाया और आज भी तनाव की स्थिति बनी रहती है। शायद इस स्थिति की गंभीरता को कम किया जा सकता था, यदि उसे पूरी तरह रोका न भी जा सके।
अभी संविधान की एक अपेक्षा पूरी होना बाकी है — देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू की जाए।
भारत के साथ स्वतंत्र हुए देशों की स्थिति यह रही है कि कुछ तानाशाही का शिकार हुए, कुछ साम्यवाद की ओर चले गए। चीन ने साम्यवाद का रास्ता अपनाया और तानाशाही व्यवस्था के कारण उसकी आंतरिक स्थिति का पता दुनिया को नहीं चलता था। जब खाद्यान्न की भारी कमी आई और ऑस्ट्रेलिया से गेहूं खरीदना पड़ा, तब स्थिति सामने आई। रूस में समाजवादी अर्थव्यवस्था असफल रही और उसके 14 टुकड़े हो गए। अब रूस ने भी लगभग साम्यवादी व्यवस्था को त्याग दिया है। अन्य समाजवादी देशों की स्थिति भी भारत की 60 के दशक जैसी हो गई थी, जब गरीब और गरीब होता गया और अमीर और अमीर।
चीन को आज़ादी भारत से एक वर्ष बाद मिली थी, लेकिन उसने आज विश्व में बड़ी छलांग लगाई है। इसमें संदेह नहीं कि चीन के लोगों ने स्वतंत्रता को सीमित कर भारी कीमत चुकाकर यह उपलब्धि प्राप्त की। भारत ने लोकतांत्रिक प्रणाली अपनाते हुए धीमी गति से प्रगति की, लेकिन इसका दोष तंत्र को नहीं दिया जा सकता। वर्तमान भारत ने नई शासन व्यवस्था के अंतर्गत भी विश्व में अपना उचित स्थान बनाया है और वह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है।
हमें इस बात पर गर्व है कि गरीब देश होने के बावजूद हमारे देश की जनता ने न तो तानाशाही का तांडव झेला और न ही साम्यवाद का कठोर शासन। लेकिन शर्म भी महसूस होती है जब 1962 में चीन के हाथों शर्मनाक पराजय झेलनी पड़ी। सच कहूं तो आज़ादी के बाद समाजवाद के रास्ते पर चलने के कारण विकास की गति धीमी रही। 60 के दशक में ऐसा समय आया जब देश में खाद्यान्न की भारी कमी हो गई, कर्ज लेना पड़ा, रुपए का अवमूल्यन करना पड़ा और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की प्रतिष्ठा घट गई। मैंने स्वयं उत्तरी अमेरिका में यह अनुभव किया कि जब वहां भारत के विषय में बात होती थी, तो जवाब होता था— "अब तुम क्या हो?" केवल भारत ही नहीं, रूस और चीन ने भी समाजवाद छोड़कर पूंजीवाद के उपाय अपनाए।
हमें इस बात का संतोष है कि हमारे यहां गरीब-अमीर, पढ़े-अनपढ़, पुरुष-नारी को समान रूप से वयस्क मताधिकार मिला और लोकतंत्र सतत चलता रहा। लेकिन यह भी सत्य है कि जब इंदिरा गांधी को सत्ता बचानी पड़ी, तो 1975 में आपातकाल लगाया गया। व्यक्तिगत आज़ादी छिन गई, कई लोगों को बिना कारण जेल में डाला गया और तरह-तरह की यातनाएं दी गईं। हमारे देश के दो प्रधानमंत्रियों- इंदिरा गांधी और राजीव गांधी- को अतिवादियों के हाथों अपनी जान गंवानी पड़ी, जिसके लिए न लोकतंत्र ज़िम्मेदार था और न वयस्क मताधिकार।
आश्चर्य होता है जब हमारे शासक— जो इसी सनातन परंपरा में पले-बढ़े— एक ओर हिंदू कोड बिल लाते हैं, दूसरी ओर शरिया कानून भी लागू करते हैं। देश की सेक्युलर व्यवस्था में हिंदू कोड और शरिया कानून दोनों को किस आधार पर समायोजित किया गया, यह अबूझ है। अब समान नागरिक संहिता लाने का प्रयास हो रहा है— यह कब और कैसे सफल होगा, कहना कठिन है।
यह कह पाना कठिन है कि आज़ादी के बाद भारत की मंथर गति से हुई प्रगति के लिए कौन ज़िम्मेदार है— आर्थिक नीतियां, धार्मिक तनाव, स्वार्थी राजनीतिज्ञ या इच्छाशक्ति की कमी? जो भी हो, लगता है कि अब देश प्रगति की दिशा में बढ़ रहा है और वैश्विक मंच पर सम्मान पा रहा है। यह तभी संभव होगा जब सभी नागरिकों को समान कानून और अवसर प्राप्त होंगे।
आज भारत की आर्थिक स्थिति वैसी नहीं है जैसी इंदिरा गांधी के समय में थी, जब अमेरिका से वह गेहूं लेना पड़ा था जिसे वह समुद्र में फेंकने वाला था। उस समय रुपए का अवमूल्यन हुआ था और देश की प्रतिष्ठा भी गिरी थी। अब दुनिया के देश भारत में निवेश करना चाहते हैं। भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और तीव्रतम गति से बढ़ रहा है। अब भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर है और इतनी अधिकता है कि गरीबों को मुफ्त राशन दिया जा रहा है। युद्ध-संबंधी उपकरणों और शस्त्रों में भी आत्मनिर्भरता बढ़ी है। देश में भले ही हिंदू-मुस्लिम तनाव हो, लेकिन मुस्लिम देशों से भारत के रिश्ते बेहतर हुए हैं— शायद आज़ादी के बाद पहली बार।
यह सच है कि देश में पुल-बांध टूटते हैं और भ्रष्टाचार व्याप्त है, लेकिन निकट भविष्य में सुधार संभव है। आज़ादी के बाद हर सरकार ने कुछ-न-कुछ रचनात्मक कार्य किए हैं— कभी कम, कभी ज़्यादा। यह समय तुलना का नहीं, बल्कि यह स्वीकार करने का है कि देश, विशेषकर गांव, आगे बढ़े हैं। रात में जब गांव की गलियों से गुजरते हैं, तो बिजली की रोशनी से चमकते गांव उस अंधेरे अतीत की याद दिलाते हैं। अगर हम अपने गांवों और स्वतंत्र हुए अन्य देशों से तुलना करें, तो लगता है और बेहतर किया जा सकता था। फिर भी आशा है कि व्यक्तिगत आज़ादी और वयस्क मताधिकार के सहारे हमारा देश प्रगति के पथ पर चलता रहेगा।