बातचीत से कश्मीर का मसला कभी नहीं हल होगा... (भाग- 2)

Dr SB Misra | Feb 09, 2018, 11:58 IST
jammu kashmir
कश्मीर की समस्या कोरी बातचीत और तुष्टीकरण से हल नहीं होगी फिर चाहे बिरियानी खिलाकर आतंकवादियों का तुष्टीकरण हो अथवा जीती हुई भूमि लौटाकर पाकिस्तान का। बिलावल भुट्टो कहता है पूरा कश्मीर लेंगे परन्तु भारत तो ऐसा करने की शक्ति भी रखता है और भारतीय संसद ने संकल्प भी ले रक्खा है, यदि कमी है तो इच्छा शक्ति की। बुजुर्गों ने कहा है वीर भोग्या वसुन्धरा, तो यदि अपनी आबादी पर ही नियंत्रण नहीं कर सकते तो क्या उम्मीद की जाय। मोदी सरकार से बहुत उम्मीदें हैं।

जब तक कश्मीर में आबादी का सन्तुलन नहीं बदलेगा, तुष्टीकरण की नीति नहीं बदलेगी और राजनेताओं की नीयत ठीक नहीं होगी और धारा 370 समाप्त नहीं होगी, बातचीत से कश्मीर का मसला कभी नहीं हल होगा। यही कारण है कि कश्मीर में आतंकवादियों के पैरोकार हमारी सेना पर पत्थर बरसाते हैं, हुर्रियत के लोग उनकी मदद करते हैं और माने जाने पर उनके जनाज़े में ताकत दिखाते हैं। इतना ही नहीं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आतंकवादियों के समर्थक गुर्रा कर कहते हैं भारत तेरे टुकड़े होंगे इन्शा अल्ला, इन्शा अल्ला। हमारी सरकार को यह सिलसिला पसन्द है तो इसे जारी रखिए।

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने फ्रांस पर आतंकी हमले के सन्दर्भ में कहा था कि मुस्लिम देशों और लोगों ने आतंक की उतनी मुखर आलोचना नहीं की जितनी करनी चाहिए थी। चिन्ता का विषय होना चाहिए कि ये आतंकवादी किसी परिवार में जन्मे होंगे और उनके माता पिता ने कुछ संस्कार दिए होंगे, वे चाहे जिस परिवार का धर्म लेकर जन्मे थे, मज़हबी तालीम और परवरिश में क्या चूक हुई कि वे आतंकवादी बन गए। यह मान भी लें कि आतंकवाद का मजहब नहीं होता लेकिन उनके जनाजे में कौन शामिल होता है और वे दफनाए किस कब्रिस्तान में जाते हैं।

जम्मू कश्मीर में जिन घरों से सेना पर पत्थर फेंके जाते हैं आतंकवादियों को कवर देने के लिए उससे शंका नहीं बचती कि आतंकवादियों का मजहब क्या है। अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने अल कायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को मरवाकर समन्दर में फिकवा दिया था उसे अन्तिम संस्कार भी नसीब नहीं हुआ। लेकिन यदि अमेरिका ने उसकी लाश को जनता के हवाले किया होता तो उसका क्या होता। इतना ही नहीं जो उससे छोटे आतंकवादी मारे जाते हैं उनका क्या होता है। कश्मीर में भारतवासी जो नजारा देखते हैं उसकें अनुसार तो उन्हें किसी मजहब की कब्रिस्तान में न तो जगह मिलनी चाहि और न अन्तिम यात्रा में हुजूम उमड़ना चाहिए।

रूस और फ्रांस के राष्ट्रपतियों ने आतंकवादी संगठन आइसिस को नेस्त नाबूद करने का संकल्प लिया है। लेकिन आइसिस ही क्यों दुनिया कें हर देश में आतंकवादी संगठन हैं जिनमें अलकायदा, अलबद्र, हरकतुल मुजाहिदीन, हिज़बुल मुजाहिदीन, इंस्लामिक मुजाहिदीन, जैशे मुहम्मद, लश्करे तैयबा, सिमी, इंडियन मुजाहिदीन जैसे कितने ही संगठन शमिल हैं। पुतिन ने कहा कि आतंकवादियों को 40 देशों से पैसा मिलता है जिनमें कुछ तो जी-20 के सदस्य है। कश्मीर के अलगाववादी हुरियत नेताओं को मोदी सरकार के पहले तक भारत सरकार सुरक्षा कवच मुहैया कराती रही है। आतंकवादी जितना गुनहगार हैं उतनी ही दोषी हैं वे सरकारें जो अलगाववादियों को सुरक्षा प्रदान कराती रही हैं।

आतंकवादियों को मार डालने भर से शायद आतंकवाद समाप्त नहीं होगा। ओसामा के मारे जाने के बाद भी जवाहिरी ने कमान संभाली थी अब कोई और संभाल रहा होगा। आतंकवादी भूखे-नंगे नहीं हैं, उन पर जुल्म भी नहीं ढाया जा रहा है, और उनका मज़हब यदि है कोई तो वह भी खतरे में नहीं है इसलिए आतंकवादं से वह ''सैडिस्टिक प्लेज़र'' यानी परपीड़ा से आनन्द के अलावा क्या हासिल करते हैं। पता लगना चाहिए कि आतंकवाद की मानसिकता क्या पैदाइशी होती है या संगत और संस्कारो से आती है। यह विद्वानों की रिसर्च का विषय है।

विचित्र बात है कि रूस और अमेरिका दोनों ही बगदादी को समाप्त करने पर लगे हैं परन्तु वे मोदी की बात नहीं मानते और आतंकवाद से मिलकर नहीं लड़ रहे हैं। उनके स्वार्थ अलग अलग हैं। बेहतर होगा अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय मिलकर दुनिया से आतंकवाद समाप्त करने की बात सोचे, केवल वही कांटा जो अमेरिका या रूस को चुभ रहा है उसी भर को निकालने से काम नहीं चलेगा।

धरती पर हैवानियत तभी तक है जब तक उसे शह देने और शरण देने वाले तथा सहन करने वाले मौजूद हैं। आतंकवादी इस्लाम के नाम पर तबाही मचाते हैं और ''अल्लाह-हु-अकबर'' का नारा लगाकर फ्रांस में बम फेंकते हैं परन्तु ये ''नाख़ुदा के बन्दे और शैतान'' की सन्तान हैं। फ्रांस के पहले चेचन्या, न्यूयार्क और भारत में हमले कर चुके हैं जिनमें भी तमाम जानें गई थीं।

आतंकवादी चाहे जितना कहें कि वे पैगम्बरे इस्लाम को मानते हैं और कुरानशरीफ के बताए रास्ते पर सच्चा इस्लामिक स्टेट बनाना चाहते हैं परन्तु कोई नहीं मानेगा। यह मुस्लिम नौजवानों को हूरों का ख्वाब दिखाकर बरगलाने का तरीका भर है। हैवानियत के साथ इंसानियत की लड़ाइयां पहले भी हुई हैं और आगे भी होंगी। यदि हैवानियत जीत गई तो कयामत का दरवाजा खुल जाएगा। फ्रांस ने अपने घाव ठीक होने का इन्तजार न करके हैवानियत को मिटाने का सिलसिला आरंभ कर दिया। लेकिन यह संग्राम केवल अपने देश को ही नहीं इंसानियत को बचाने के लिए होना चाहिए।

(कल पढ़ें भाग तीन - वर्तमान सरकार अगर कश्मीर समस्या हल न कर पाई तो ज़्यादा विकल्प नहीं बचेंगे)

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