न्यूनतम समर्थन मूल्य एक झुनझुना से अधिक कुछ नहीं

Dr SB Misra | Jun 12, 2017, 22:00 IST
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मुझे याद है 1974 का जमाना जब एक रुपए का दो किलो गेहूं बिकता था और जूनियर हाई स्कूल का सीटी ग्रेड अध्यापक का वेतन था 120 रुपया प्रति माह। अब 15 रुपया किलो गेहूं बिकता है और अध्यापक का वेतन है 50 हजार रुपया प्रति माह।

अर्थात किसान की चीजें 30 गुना तो अध्यापक का वेतन करीब 400 गुना । मैचिंग रेट के लिए कितना समर्थन मुल्य आप दे पाएंगे? हमने नेहरूवियन व्यवस्था में साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों की बुराइयां अंगीकार कर ली हैं, उन व्यवस्थाओं में किसान आत्महत्या क्यों नहीं करता, नहीं सोचा।

हमारे देश में 100 में 70 किसान हैं, जबकि बाकी दुनिया में 40-45 प्रतिशत। हमारी नीतियां किसान को फोकस में लेकर होनी चाहए थीं, लेकिन समाजवाद की दुहाई देने वालों की भी नीतियां व्यापारी को फोकस में लेकर बनती रहीं। तरह-तरह के प्रयोग हुए लेवी, समर्थन मूल्य, सब्सिडी, छूट, प्रोत्साहन आदि ।

इन सब का आधार न तो किसान को बताया गया और न वह समझ पाएगा। मूल्य सूचकांक का उलझाव एक उदाहरण है। यदि भाव रूपी घोड़े को लगाम नहीं लगा सकते तो छुट्टा छोड़ दीजिए, आप कुछ चुनिन्दा चीजों के भाव पर लगाम क्यों लगाते हैं।

जब साठ के दशक में अन्न का अकाल पड़ा तो किसानों पर लेवी लगाई गई, जिसका मतलब था किसान को अपनी जमीन के हिसाब से गेहूं सरकार को बेचना ही है, उनके बताए रेट पर। कोई नहीं पूछता था कितना कमाया अथवा कितना गंवाया।

कई किसानों ने बाजार से खरीद कर लेवी पूरी की थी। बहुत बाद में किसान पर मेहरबानी दिखाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था हुई, लेकिन इसका आधार क्या है-लागत, मांग, पूर्ति अथवा कोई गाइड लाइन?

समर्थन मूल्य निर्धारण के मामले में किसान मोहताज है सरकार का। कितने ही किसानों ने गन्ना बोना बन्द कर दिया और मेन्था लगाने लगे। आलू, प्याज और लहसुन बोना आरम्भ किया, लेकिन समर्थन मूल्य तो केवल गन्ना, गेहूं और धान का निश्चित किया सरकार ने। आप ने यह नहीं सोचा कि हजारों वस्तुओं का समर्थन मूल्य निर्धारित करना सम्भव नहीं क्योंकि उसका आधार क्या होगा।

हुआ यह है जो वस्तुएं किसान बेचना चाहता है, वे सस्ती हो गई हैं और जो कुछ भी उसे खरीदना है, वह महंगा हो गया है। ऐसी विषम स्थिति पैदा क्यों हुई, उसका एक ही उत्तर है विकास का पहिया शहरों में जाम हो गया और गाँवों तक पहुंचा नहीं। उद्योग, कच्चा माल की खपत, कारखाने और बाजार सब शहरों में केंद्रित हो गए। किसी को याद नहीं रहा गांधी जी ग्राम स्वराज और ग्राम स्वावलम्बन की वकालत करते थे। यदि ऐसा करते तो कठिनाई नहीं होती।

और यदि मांग, पूर्ति और बाजार भाव पर नियंत्रण करना था तो सभी वस्तुओं को नियंत्रण के दायरे में लाते। क्या कपड़ा, भवन सामग्री, दवाएं, वकील और डॉक्टर की फीस आप नियंत्रित कर पाएंगे। यदि नहीं तो किसान के पीछे क्यों पड़े हैं। जिस भाव से अन्न आयात करते हैं, उसी भाव से किसान से खरीदने में क्या कष्ट है?

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