मुक्काबाज़- कुछ के लिए टॉनिक है, कुछ के लिए वाइन

रवीश कुमाररवीश कुमार   17 Jan 2018 10:38 AM GMT

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मुक्काबाज़- कुछ के लिए टॉनिक है, कुछ के लिए वाइनबरेली से बनारस का पलायन।

“यूपी में अकेले बरेली थोड़े न है, बनारस जाओ वहां से लड़ो।“ बस यहीं से कहानी का एंगल खुल जाता है। मुक्काबाज़ के सारे एंगल बरेली में फंस जाते हैं। बाक्सिंग संघ में मिश्रा जी का ऐसा दबदबा है कि ठाकुर बाक्सर श्रवण सिंह को कोई रास्ता नहीं सूझता है। भगवान दास मिश्रा अपना पेशाब पीने की शर्त पर माफ कर देने के लिए तैयार होते हैं लेकिन बाक्सर का खून गर्म हो जाता है।

सवाल सिर्फ ख़ून का नहीं है दिल का भी है। एक आदमी जहां अपनी ताकत के मामले में जाति का जुनून ढोता है तो वही आदमी अपने घर में पैसे और सपनों के बीच उसी तरह से लाचार होता है जैसे हर कोई होता है। बरेली में बाक्सर फंस जाता है। वही नहीं उसके मां बाप फंसे हुए हैं। श्रणव सिंह को जिससे प्यार होता है वो फंसी है। मिश्रा जी से बचने का एक ही escape route है पलायन। बरेली से बनारस का पलायन।

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विनीत कुमार सिंह ने असाधारण रूप से श्रवण कुमार का किरदार किया है। ताकतवर जाट बाक्सरों से भिड़ना चाहता है मगर बाक्सिंग संघ में दबदबा मिश्रा का है, उससे न लड़ पाता है न उसके सामने झुक पाता है। बनारस में मुलाकात होती है संजय कुमार से। होटल में जब मिश्रा पूछता है कि तुम चार जातियों में से कौन हो, तब संजय जवाब देता है कि वही जिसका नाम आपने नहीं लिया।

दिलचस्प फिल्म है। कई बार लगता है कि सब कुछ जाति से तय हो रहा है लेकिन जाति के ट्रैक पर कितनी रेलगाड़ियां चल रही होती हैं। मिश्रा जी अपने अहंकार के कारण फंसे पड़े हैं। पांचवी जाति के संजय कुमार श्रवण सिंह के भीतर उसकी जाति और पेशेवर पैंतरें का कॉकटेल पैदा करते हैं। फिर शुरू होता है खेल।

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इस फिल्म में जीवन के कितने रंग हैं। कई बार फिल्म बनाने वालों को लेकर हैरानी हो जाती है। वो कहां कहां से डिटेल लाते हैं। मीट बनाते वक्त लाइफ ब्वाय साबुन कहां रखना है से लेकर बेदाग़ डिटर्जेंट वाले प्रायोजक तक। बनारस में साइन लैंग्वेज जानने के कारण एक विदेशी युवक से बरेली वाली सुनैना बतियाने लगती हैं तो अंग्रेज़ी न जानने के कारण श्रवण सिंह के होश उड़ जाते हैं। सुनैना अपने प्रेम में उसी तरह स्पेस बनाती है जैसे श्रणव बरेली से बनारस आता है अपने खेल के लिए स्पेस बनाने। सुनैना साफ साफ कह देती है तुम मर्दों की यही प्राब्लम है, औरतों को जागीर समझने लगते हो।

फिल्म की यही ख़ूबी है। अच्छी फ़िल्म वही होती है जो आपको एक साथ कहानी के भीतर कई परतों को दिखाए और आपके भीतर के अंतर्विरोधों को उभारे। मज़ा आ रहा था। विनीत कुमार सिंह ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। यह कलाकार अपने रोल में समा गया है। सबकुछ परफेक्ट है। रवि किशन की प्रतिभा पहली बार किसी फिल्म में ढंग से उभर कर सामने आई है।

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रवि किशन के बारे में भी निर्देशकों को सोचना चाहिए। उनमें काफी दम है। अनुराग कश्यप ने बहुत चालाकी से इस फिल्म के ज़रिए आज की राजनीति को समेट दिया है। कहानी शुरू ही होती है गौ रक्षकों के सीन से। मीडिया से ज़्यादा बेहतर फिल्म वाले आज के समय को पकड़ रहे हैं। बैकग्रांउड म्यूजिक में डायलॉग की मिक्सिंग खूब की है।

यह फ़िल्म टॉनिक है, उनके लिए जो अपने कस्बाई शहरों में फंसे रह गए हैं। उन्हें मुंबई की जगह कम से कम बनारस जाने का ऑफर देती है। जो लोग भागकर महानगरों में आ गए उनके लिए यह फिल्म वाइन है। वो मुक्काबाज़ देखकर राहत की सांस लेंगे कि वैसी जगहों से निकल आए। इस फिल्म में यूपी के कई शहर हैं। अलीगढ़, बनारस, ग़ाज़ियाबाद और बरेली। श्रवण सिंह ने ग़ाज़ियाबाद के बाक्सर को चित कर दिया ये मुझे व्यक्तिगत रूप से बुरा लगा क्योंकि मैं ग़ाज़ियाबाद में रहता हूं। मेरी राष्ट्रीयता का लोकल हॉल्ट ग़ाज़ियाबाद ही है। मज़ा आता है देखने में।

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