रिकॉर्ड कृषि उत्पादन का हासिल क्या?

Suvigya Jain | Feb 21, 2019, 10:25 IST

उत्पादन बढ़ने से अगर सही में भारतीय कृषि और भारतीय गांव में सुधार हो रहा है तो सकल घरेलू उत्पाद में भी कृषि की हिस्सेदारी बढती हुई दिखनी चाहिए थी। लेकिन इसके उलट हर साल कृषि उत्पादन बढने के बावजूद देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा घटता जा रहा है

पिछले कुछ समय से जब भी कृषि विकास का सवाल उठता है, तब कृषि की उन्नति के पक्ष में उत्पादन बढ़ने का तर्क दिया जाता है। बेशक साल दर साल कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ रहा है। सो हर साल रिकॉर्ड टूटना अब आम बात है। अपनी उपलब्धियां गिनाते समय सरकारें अक्सर रिकॉर्ड टूटने का हवाला दिया करती हैं। हाल ही में 5 साल के मौजूदा सरकार के रिपोर्ट कार्ड को पेश करते हुए संसद में कुछ कृषि उत्पादों के रिकॉर्ड उत्पादन के हवाले से ही बताया गया कि देश के हालात अच्छे हैं। प्रधानमंत्री ने भी बजट सत्र में लोकसभा में दिए अपने भाषण में कुछ फसलों की रिकॉर्ड पैदावार का जिक्र किया, इसीलिए एक बार जांच लेने की जरूरत है कि क्या वाकई उत्पादन का बढ़ना कृषि क्षेत्र में विकास का सूचक है?

ये भी पढ़ें:कर्ज में पैदा हो कर्ज में खत्म होने वाली परम्परा का क्यों हिस्सा बन गया किसान

कृषि उत्पादन से इतर कुछ तथ्य

उत्पादन बढ़ने से अगर सही में भारतीय कृषि और भारतीय गांव में सुधार हो रहा है तो सकल घरेलू उत्पाद में भी कृषि की हिस्सेदारी बढती हुई दिखनी चाहिए थी। लेकिन इसके उलट हर साल कृषि उत्पादन बढने के बावजूद देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा घटता जा रहा है। इसलिए रिकॉर्ड गति से बढ़ते कृषि उत्पादन को उसके मूल्य, मांग और खपत के बरक्स रख कर भी देखने की जरूरत है।



किन उत्पादों का उत्पादन बढ़ने की बात हो रही है

इस समय भारत में सबसे ज्यादा धान और गेंहू उगाया जा रहा है। लेकिन यह इन फसलों के वज़न के लिहाज़ से ही है। कीमत के लिहाज़ से नहीं। कुल कीमत के लिहाज से देखें तो देश में दूध को भारत का सबसे बड़ा खाद्य उत्पाद कहा जाएगा। भारत इस समय सालाना 17 करोड़ 60 लाख टन दूध का उत्पादन कर रहा है। इस समय भारतीय दुग्ध उद्योग की कुल कीमत करीब 9 लाख करोड़ रुपए बैठती है।

ये भी पढ़ें:बजट 2019 : अंतरिम बजट में गाँव और किसानों को क्या मिला

भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश भी है। लेकिन पिछले कुछ साल से भारतीय दूध उत्पादक भी दूध के वाजिब दाम न मिलने से परेशान हैं। इसीलिए हाल में हुए किसान आंदोलनों में गेहूं और चावल के अलावा दूध के सही दाम न मिलने का मुद्दा भी जोरशोर से उठा। अपना आक्रोश जताने के लिए सड़कों पर दूध बहाए जाने की तस्वीरें मीडिया में अचरज के साथ देखी गई थीं।

इस पर दुग्ध किसानों का तर्क था कि उन्हें अपने उत्पाद के इतने कम दाम मिल रहे हैं जिससे लागत भी नही निकल पा रही है। बहरहाल, सबसे बड़ी फसलों को एक नजर में देखें तो 2017-18 में चावल 11 करोड़ टन उगाया गया और गेंहू 9 करोड़ 70 लाख टन। गन्ने की पैदावार 35 करोड़ टन रही। जिससे साढ़े 3 करोड़ टन चीनी पैदा हुई।

इसी तरह दालों का उत्पादन करीब 2 करोड़ 40 लाख रहा है, लेकिन इतनी भारी मात्रा में उगने वाली गेंहू, धान, गन्ना आदि जैसी फसलों के किसान इस समय भारी गरीबी में है। यानी इन सभी खाद्य उत्पादों के रिकॉर्ड उत्पादन के आंकड़े उन्हें उगाने वाले कृषकों की माली हालत से बिल्कुल उलट हैं। इसीलिए इस मामले में जांच पड़ताल की दरकार है।

ये भी पढ़ें: मिट्टी, पानी, हवा बचाने के लिए याद आई पुरखों की राह



मांग और आपूर्ति के नियम के नज़रिए से

बाजार का नियम है कि जिस वस्तु की आपूर्ति बढती है उसकी कीमत गिर जाती हैं। उसी तरह अगर मांग बढती है तो कीमतें बढ़ जाती हैं। इसलिए मांग के बढे़ बगैर उत्पादन को बढ़ाना यानी आपूर्ति को बढ़ाना घाटे का सौदा क्यों नहीं होगा? दूध और चीनी इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। ये दोनों ही उत्पाद देश की मांग से बहुत ही ज्यादा उपलब्ध हैं।

ये भी पढ़ें: 'कृषि निर्यात को दोगुना करने का सपना देखने से पहले ज़रूरी है आत्म-निरीक्षण'

ढाई करोड़ टन चीनी की खपत वाले अपने देश में साढ़े तीन करोड़ चीनी पैदा हो गई। एक करोड़ टन अतिरिक्त चीनी को खपाने के लिए सरकार क्या क्या कवायद कर रही है इस पर कई बार बताया जा चुका है। यही हाल इस समय दूध उत्पादन के साथ भी है। अचानक से अन्तरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय दूध पाउडर की मांग घट गई है। जिससे हमारा दूध और उससे बनने वाले उत्पादों का निर्यात घट गया। यानी रिकॉर्ड कृषि उत्पादन को खपाने या बेचने की समस्या खड़ी हो गई है। रिकाॅर्ड उत्पादन से खुश होने का जो हासिल है उससे कई गुनी बड़ी समस्या सामने है।



अतिरिक्त उत्पादन के बावजूद भुखमरी का बढ़ना

खपत से ज्यादा उत्पादन का यह मतलब कतई नहीं है कि 135 करोड़ की आबादी को हम पर्याप्त भोजन मुहैया करवा पा रहे हैं। हालात की एक व्याख्या यह भी है कि बढ़ा हुआ उत्पाद पूरी आबादी की खाद्य जरूरत पूरा करने के लिए खर्च नहीं हो पा रहा है। किसान के पास उत्पाद तो है लेकिन जरूरतमंद खरीददार की माली हालत उसे खरीदने की नहीं है।

ये भी पढ़ें:इस कृषि वैज्ञानिक की सलाह मानें तो किसानों की आय हो सकती है दोगुनी

इस बात का अंदाजा भारत में भुखमरी की दर से लगाया जा सकता है। किसी देश में कितने लोगों को पर्याप्त भोजन मिल पा रहा है इसे मापने के लिए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर वर्ल्ड हंगर इंडेक्स नाम की एक रैंकिंग व्यवस्था है। उस रैंकिंग में भारत का स्थान 119 देशों में 103वां है।



पिछले साल हमारी स्थिति भूख की रैंकिंग में खराब हुई है. हम तीन पायदान और नीचे खिसक गए है। इस रैंकिंग में 45 ऐसे देश हैं जिन्हें 'सीरियस लेवल ऑफ हंगर' यानी भुखमरी के गंभीर स्तर की श्रेणी में रखा गया है। भारत इन 45 देशों में से एक है। कोई भी आसानी से नतीजा निकाल सकता है कि इस स्थिति का कारण भारत में अनाज की कमी नहीं है बल्कि गरीबी है।

रिकॉर्ड उत्पादन और बर्बादी

कुल उपज का आंकड़ा तो बन जाता है लेकिन अभी सही सही हमें यह नहीं पता कि कितना कृषि उत्पाद ठीक तरह से भंडारण की व्यवस्था न होने के कारण बर्बाद हो जाता है। रख रखाव न होने के कारण भारी मात्रा में अनाज सड़ गल रहा है। कभी समय पर खरीद न होने के कारण किसान के पास ही उसका उत्पाद बर्बाद हो रहा है। और कभी सरकारी गोदामों में पड़ा पड़ा भी सड़ रहा है। सही सही आकलन हो तो बहुत संभव है कि हमें अपने रिकॉर्ड उत्पादन की शुद्धता का हिसाब नए सिरे से लगाना पड़े।

ये भी पढ़ें: क्या किसानों का कर्ज माफ करना सही उपाय है?



सवाल सरकार की हैसियत का

देश में बढता कृषि उत्पादन तब तक फायदे की बात नहीं कही जा सकती जब तक उसे उगाने वाले कृषक के पास अपने उत्पाद को सही दाम में बेचने का बाजार न हो और खरीददार के पास उस उत्पाद को खरीदने की माली हालत न हो। रही बात सरकारी दखल की तो यह यक्षप्रश्न अपनी जगह खड़ा है कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी के जरिए राहत पहुंचाना किस हद तक संभव है और किस हद तक हो पा रहा है।

समझने की जरूरत है कि संसाधनों से जूझती सरकार किसानों की कुल उपज का कितना हिस्सा समर्थन मूल्य पर खरीद पा रही है या खरीद सकती है? बहरहाल सरकार के सामने यह दोहरी चुनौती है कि उसे किसानों के पर्याप्त कृषि उत्पाद के उचित दाम भी किसानों को दिलवाने की कोई व्यवस्था करनी है और इसी के साथ हर एक नागरिक को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने की परिस्थितियां भी बनानी हैं। उत्पादन के सुनहरे आंकड़ों से बात बिल्कुल भी नहीं बन रही है।

ये भी पढ़ें:किसान आंदोलनों की बदलती राजनीतिक समझ

Tags:
  • Agricultural Income
  • Agricultural machinery
  • agricultural research
  • production
  • agricultural production