एक और संत की मौत और पर्यावरण को लेकर उठे सवाल

मोदी सरकार के 5 साल पूरे होने को हैं लेकिन न केवल अर्थव्यवस्था में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं दिखा बल्कि सरकार ने विकास और इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर ऐसे कदम उठाये हैं जो पर्यावरण के खिलाफ जंग का ऐलान लगते हैं

Hridayesh JoshiHridayesh Joshi   14 Oct 2018 8:53 AM GMT

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एक और संत की मौत और पर्यावरण को लेकर उठे सवाल

तो क्या हुआ कि अगर गंगा की रक्षा की मांग करते हुये एक और संत की मौत हो गई। तो क्या हुआ अगर गंगा और उसकी सहायक नदियों पर विकराल बांधों का बनना जारी है। तो क्या हुआ कि अगर चारधाम यात्रा मार्ग के नाम पर हिमालयी क्षेत्र में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के साथ सारे नियमों को ताक में रख पहाड़ काटे जाने का काम जारी है। तो क्या हुआ अगर सैकड़ों टन मलबा नदी में गिराये जाने के साथ पहाड़वासियों के घरों और खेतों को बर्बाद कर रहा है। नदियां, जंगल, झरने, वन ये सरकारों के लिये कभी धरोहर नहीं रहे। इन्हें सम्पदा कभी नहीं माना गया।

प्रधानमंत्री मोदी ने केंद्र में सत्ता संभालने के बाद ज़ीरो डिफेक्ट और ज़ीरो इफेक्ट का नारा दिया था। जिसका सीधा मतलब था कि देश के भीतर उम्दा क्वॉलिटी के उत्पाद बनेंगे लेकिन पर्यावरण पर असर डाले बगैर। प्रधानमंत्री के बयान का मतलब विकास की राह में आगे बढ़ते हुये पर्यावरण को बचाना और उसे होने वाले नुकसान को निम्नतम स्तर पर सीमित करना था। मोदी सरकार के 5 साल पूरे होने को हैं लेकिन न केवल अर्थव्यवस्था में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं दिखा बल्कि सरकार ने विकास और इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर ऐसे कदम उठाये हैं जो पर्यावरण के खिलाफ जंग का ऐलान लगते हैं। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश में दुधवा टाइगर रिज़र्व से सड़क बनाने के नाम पर 55 हज़ार पेड़ों को काटे जाने की तैयारी है। इसका वन्य जीवों और पर्यावरण क्या असर पड़ेगा अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है।

केंद्र सरकार ने न केवल पिछले पांच साल में वन और पर्यावरण से जुड़े कई नियमों को ढीला किया है और बल्कि उन लोगों की बातों को भी अनसुना किया है जो सरकार के ही घोषित इरादों और योजनाओं के लिये संघर्ष कर रहे हैं। विकास परियोजनाओं के रास्ते से "रोड़े" हटाने के नाम पर आदिवासी क्षेत्र, वन क्षेत्र और रियस एस्टेट में नियमों को आसान बनाया गया। बिजली संयंत्रों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के बजाय नियमों में ढील दी और बड़े उद्योगपति समूहों के खिलाफ लगे जुर्माने माफ किये।

पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील हिमालयी राज्य उत्तराखंड को लें तो दो महत्वपूर्ण मिसाल यहां देखने को मिलती हैं।

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पहली चारधाम यात्रा मार्ग के रूप में जिसके निर्माण के लिए सरकार ने न केवल 50 हज़ार से अधिक पेड़ काटे हैं बल्कि सड़क बनाने के लिए जो तरीके इस्तेमाल किये गये वह पूरी तरह से विनाश लीला को आमन्त्रित करने वाले हैं। सरकार 900 किलोमीटर लम्बे इस प्रोजेक्ट में अपने ही जानकारों की चेतावनियों को नज़र अंदाज़ किया है। देहरादून स्थित वाडिया संस्थान के वैज्ञानिक हो या देश के जाने माने पर्यावरणविद् और भूगर्भविज्ञानी सभी ने सड़क की चौड़ाई, पहाड के कटान के तरीके और मलबे को नदी में गिराने से लेकर बड़ी संख्या में पेड़ों को काटने का विरोध किया। इस मामले की कई महीनों तक नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी में सुनवाई हुई जिसमें नियमों की अनदेखी के वीडियो प्रमाण भी दिये गये। मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद कोई फैसला नहीं सुनाया गया बल्कि अब एनजीटी ने नये चीफ नये सिरे से सुनवाई कर रहे हैं और हाइवे के लिए तोड़फोड़ और कटान का काम जारी है।

सरकार ने हाइवे निर्माण के काम में इस बात का ख्याल नहीं रखा कि हिमालय न केवल बेहद संवेदनशील क्षेत्र है बल्कि ये जैव विविधता के साथ हज़ारों ग्लेशियरों का घर भी है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने चार धाम यात्रा मार्ग में कई भूस्खलन ज़ोन बताये हैं जहां पहाड़ लगातार टूटता रहता है। इतने बड़े पैमाने पर पेड़ों का कटान आने वाले दिनों में और अधिक भूस्खलन आमंत्रित करेगा। साथ ही ये उन ग्लेशियरों के लिये खतरा है जिनके लिये उत्तराखंड के घने जंगल एक कवच का काम करते हैं।

लेकिन सरकार ने इन तर्कों का जवाब देने के बजाय इस प्रोजेक्ट को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ दिया है। अब कहा जा रहा है कि भारत चीन सीमा पर सेना के त्वरित आवागमन के लिये ये हाइवे ज़रूरी है। सरकार चाहे नियमों के साथ जितनी छेड़छाड़ करे लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना का जिक्र आने के बाद किसी तर्क की कोई अहमियत नहीं रह जाती। विकास परियोजनाओं के उद्देश्य को क्या बिना पर्यावरण को बर्बाद किये हासिल नहीं किया जा सकता या पर्यावरण की क्षति को कम करने की कोशिश नहीं होनी चाहिये इन विषयों पर चर्चा करना विकास विरोधी कहलवाने के लिये काफी है।

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एक ऐसे वक्त में जब प्रधानमंत्री स्वच्छता अभियान और नदियों के प्रति लगाव की बात कर रहे हैं हरिद्वार में इंजीनियर और पर्यावरण प्रेमी साधु जी डी अग्रवाल की करीब 4 महीने अनशन के बाद मौत हो गई । गंगा को बचाने की मांगो को लेकर आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर और केंद्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के पहले सदस्य सचिव रहे अग्रवाल भोजन के अलावा पानी भी त्याग चुके थे। बुधवार को सरकार ने प्रो अग्रवाल को उनके आश्रम मातृ सदन से उठाकर ऋषिकेश के एम्स में भर्ती करा दिया।

पिछले दिनों प्रो अग्रवाल ने सवाल उठाया था कि प्रधानमंत्री खुद को गंगा का बेटा कहते हैं लेकिन वह अपना जन्मदिन मनाने बनारस जाने के बजाय हरिद्वार आकर उनसे क्यों नहीं मिलते। प्रो अग्रवाल का विरोध गंगा संरक्षण के लिये सरकार के नये प्रस्तावित कानून और गंगा पर बन रहे बांधों को लेकर था। आज उत्तराखंड की नदियों पर 100 से अधिक छोटे बड़े बांध बन चुके हैं। सरकार का इरादा 500 से अधिक बांध बनाने का है। प्रस्तावित पंचेश्वर बांध दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा बांध होगा जिसकी विद्युत उत्पादन क्षमता उत्तराखंड के मौजूदा बांधों की सम्मिलित क्षमता से अधिक है।

लेकिन सरकार ने इस साधु के उपवास और विरोध की जो अनदेखी की है उससे सत्ता के चरित्र को लेकर कई बातें एक बार फिर से सही साबित हुई हैं। सवाल यही है कि मोदी सरकार हो या उनकी पूर्ववर्ती सरकार या फिर किसी भी राज्य की सरकार, सत्ता को पर्यावरण एक अनमोल सम्पदा नहीं दिखती जिसे होने वाली क्षति अपूर्णीय होती है । स्वस्थ पर्यावरण के फायदे और आर्थिक ढांचे और विकास में उसकी भूमिका को कभी ज़रूरी नहींं माना जाता। जल, जंगल, ज़मीन, झरनों और नदियों के साथ ग्लेशियरों समुद्र तटों के महत्व को समझने में हम नाकाम रहे हैं। ये एक आपराधिक त्रुटि है।


       

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