आमदनी बढ़ाने का फार्मूला : थाली ही नहीं, खेत में भी हो दाल - चावल का साथ 

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आमदनी बढ़ाने का फार्मूला : थाली ही नहीं, खेत में भी हो दाल - चावल का साथ धान के खेतों की मेढ़ों पर अरहर की बुवाई की जा सकती है

भारत मुख्य रूप से चावल का उत्पादन करने वाला देश है। देश का कुल फसली क्षेत्र 19.4 करोड़ हेक्टेयर है इसमें से 4.4 करोड़ हेक्टेयर में चावल उगाया जाता है। 19.4 करोड़ हेक्टेयर की 67 फीसदी जमीन पर छोटे और सीमांत किसान खेती कर रहे हैं। इन लोगों के लिए खेती गुजर-बसर का एकमात्र साधन है। ऐसे में लगातार छोटी होती जोतों, निरंतर बढ़ती लागत, श्रमिक वर्ग की कमी और छोटी जोत वाले किसानों की जरूरतों के मुताबिक कृषि उपकरणों की अनुपस्थिति से चुनौतियां और गंभीर हो जाती हैं।

पिछले कई दशकों से भूख और गरीबी छोटे और सीमांत किसानों की दो लगातार रहने वाली समस्याएं हैं। ग्रामीण खेतिहरों के परिवार गरीबी से पीड़ित हैं जिनके लिए खेती रोजीरोटी चलाने का महज एक जरिया है अच्छी आमदनी की गारंटी नहीं। ग्रामीण भारत में, लगभग 84 करोड लोगों को रोजाना न्यूनतम पोषक तत्वों की जरूरी खुराक नहीं मिल पाती। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो (एनएनएमबी) के मुताबिक, 35 फीसदी ग्रामीण अल्प-पोषित पाए गए, जबकि 42 फीसदी बच्चों का वजन कम निकला। इसलिए अगर खाद्य और पोषण सुरक्षा की समस्या का हल निकालना है तो छोटी जोत वाले किसानों का सशक्तीकरण करना होगा।

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खेती में मामूली फेरबदल जैसे कुछ किफायती तरीकों का इस्तेमाल करके ऐसा किया जा सकता है। उदाहरण के लिए :

अ) धान के खेतों में खाली पड़ी रहने वाली मेढ़ों पर अरहर की बुवाई करना। इसमें सब्जी की तरह इस्तेमाल होने वाली वैरायटी और साधारण दाल वाली वैरायटी दोनों की बुवाई की जा सकती है, क्योंकि दोनों ही बारहमासी हैं। इसे चावल के साथ खाने पर प्रोटीन की कमी दूर हो सकती है। इसके अलावा इससे चारे, ईंधन और खाद की जरूरतें भी पूरी हो जाएंगी। एक एकड़ में केवल मेढ़ से ही 50-70 किलो अरहर तक उगाई जा सकती है।

ब) धान की कटाई के फौरन बाद कम समय में उगने वाले (65-70 दिन) हरे या काले चने बोने से वे मिट्टी में मौजूद बची-खुची नमी और उर्वरता का इस्तेमाल कर लेते हैं। इसके अलावा मॉनसून से पहले की बारिश से भी नमी मिल जाती है। इस तरह चावल के अतिरिक्त प्रति एकड़ 250-300 किलो चने की फसल भी मिल जाती है। फली वाली फसल होने की वजह से चने अपने पीछे प्रति एकड़ 40 से 50 एकड़ नाइट्रोजन छोड़ जाते हैं। आने वाली फसल को इससे फायदा होता है।

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भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां छोटे और सीमांत किसान संसाधनों की कमी से परेशान हैं और जिन्हें मिट्टी की कम होती उर्वरता से जूझना पड़ता है वहां फली वाली फसलों के चक्र को प्रोत्साहन देना चाहिए। या भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान और राज्य कृषि विश्वविद्यालय द्वारा सुझाए गए अनाज और फलीदार फसलों के इंटरक्रॉपिंग सिस्टम को लागू करना चाहिए। दलहन को उगाने से मिट्टी में नाइट्रोजन मिलती है, मिट्टी में जैविक पदार्थ बढ़ते हैं। लेकिन अगर दालों को दूसरे देशों से आयात किया जाता रहा तो यह छोटी जोत वाले किसानों के साथ-साथ कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को बर्बाद करके छोड़ेगा।

(डॉ. एम. एस. बसु आईसीएआर गुजरात के निदेशक रह चुके हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

   

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