उच्चतम न्यायालय भी नहीं दिला सकेगा जनमत वाली सरकार

स्पष्ट विकल्प वाली सररकार बनाने का एक तरीका है कि वोट पार्टियों को दिए जाएं वह भी वरीयता क्रम में न कि व्यक्तियों को। बाद में पार्टियां अपने चुनिन्दा प्रतिनिधि संसद और विधानसभाओं में प्राप्त वोटों के अनुपात में नामित करें

Dr SB MisraDr SB Misra   15 March 2019 7:20 AM GMT

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उच्चतम न्यायालय भी नहीं दिला सकेगा जनमत वाली सरकार

आमचुनाव का शंखनाद हो हो चुका है लेकिन दुनिया के सबसे बडे प्रजातंत्र में परिपक्वता और शालीनता का पूरी तरह अभाव है। जिस तरह प्रधानमंत्री को चोर और आतंकवादियों को सम्मानसूचक शब्दों से अलंकृत करने का चलन चला है वैसा पहले कभी नहीं हुआ। कई लोग मोदी की तुलना इन्दिरा गांधी से करते हैं तो क्या सत्तर के दशक का इतिहास फिर दुहराया जाएगा, समय बताएगा। किसी भी सरकार के लिए सहिष्णुता की सीमा होती है और मोदी की भी सीमा होगी।

जब 1971 में पाकिस्तान से युद्ध जैसे हालात बने थे तो विपक्ष ने इन्दिरा गांधी का पूरा साथ दिया था और अटल जी तो दुनिया के विभिन्न देशों में भारत का पक्ष रखने गए थे। देश की चुनावी राजनीति एकध्रुवीय रहते हुए भी विपक्ष ने जिम्मेदार भूमिका निभाते रहे थे फिर चाहे नेहरू या इन्दिरा गांधी का समय हो, कांग्रेस बनाम शेष दल रहता था और अब मोदी बनाम शेष दल बन गया है।

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कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी एकता का आरम्भ 1967 में संयुक्त विधायक दल की सरकारों के रूप में पहले और बाद में ग्रैंड अलाएंस के नाम से। जब जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला हुआ तो लगा था स्वस्थ प्रजातांत्रिक व्यवस्था विकसित हो जाएगी लेकिन वह प्रयोग भी फेल हुआ। भांति भांति के विचारों वाले दल कभी सिद्धान्तों पर एकमत तो नहीं हो पाए लेकिन कुर्सी हासिल करने के शार्टकट तलाशते रहे और अभी भी तलाश रहे हैं।


पिछले साल ऐसे ही शार्टकट का नमूना था कर्नाटक विधानसभा में सरकार बनाने की खींचतान। उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद कांग्रेस और जनता दल सेकुलर की गठबंधन सरकार बनी। उच्चतम न्यायालय भी जनमन की सरकार नहीं दिला सकी क्योंकि परस्पर गाली गलौज करने वाले लोग सत्तासुख में भागीदार बन गए, जनता देखती रह गई। जनता दल के 38 विधायकों के मतदाताओं ने सत्तासीन कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए वोट दिया था लेकिन कुमारस्वामी ने कुर्सी के लालच में कांग्रेस को फिर सत्तासीन कर दिया । वोटर ठगा गया।

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यदि भाजपा को सत्ता से बाहर ही रखना लक्ष्य था तो कांग्रेस ने जनतादल सेकुंलर को बिना शर्त बाहर से समर्थन दे दिया होता। उचित है चुनावपूर्व गठबंधन, जिसमें कम से कम न्यूनतम साझा कार्यक्रम हेाता है, गठबंधन का एक नेता होता है और जनता के सामने स्पष्ट विकल्प रहता हैं। वोटर को छलने की गुंजाइश कम रहती है।

स्पष्ट विकल्प वाली सररकार बनाने का एक तरीका है कि वोट पार्टियों को दिए जाएं वह भी वरीयता क्रम में न कि व्यक्तियों को। बाद में पार्टियां अपने चुनिन्दा प्रतिनिधि संसद और विधानसभाओं में प्राप्त वोटों के अनुपात में नामित करें। तब यह नौबत कभी नहीं आएगी कि सरकार ना बन सके, आयाराम-गयाराम, गुटबाजी और अनुशासनहीनता की समस्या भी नहीं रहेगी। लेकिन इसमे कठिनाई यह है कि सरकार पर संगठन हावी रहेगा और प्रतिनिधियों की व्यक्तिगत आजादी नहीं बचेगी।

दूसरा विकल्प है संसदीय प्रणाली के स्थान पर अमेरिका और फ्रांस जैसी राष्ट्रपति प्रणाली अपनाएं जिसमें अधिकारों और कर्तव्यों मे सन्तुलन हो। ऐसा राष्ट्रपति अपने देश के जनमानस का प्रतिनिधित्व करता है, जनमत का प्रतीक है, सर्वशक्तिमान है इसलिए खींचतान नहीं होती। हमारे नेताओं ने संसदीय प्रणाली का न तो विकल्प सोचा और न उसमें सुधार का प्रयास किया। हमारे प्राचीन गणराज्यों और पंचायतों का समावेश कम ही है।


वर्तमान व्यवस्था में मतदाताओं के मत विभाजित हो जाते हैं और जीता हुआ प्रतिनिधि सही माने में अपने क्षेत्र का पसन्दीदा प्रतिनिधि नहीं होता। इससे बचने के लिए चुनाव हेतु पार्टियों का विलय करके उनकी संख्या केवल दो या तीन रहे, चाहे सैद्धान्तिक गठबन्धन बनाकर या फालतू दलों का निबन्धन समाप्त करके। मतदान वरीयता के आधार पर हो यानी आनुपातिक प्रतिनिधित्व द्वारा जैसे राज्यसभा और विधान परिषदों में प्रचलित है। चुनाव खर्च घटाना उतना ही जरूरी है जितना जनमानस का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना।

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देश में 1970 तक प्रान्तीय और राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव एक साथ हुआ करते थे और आज की अपेक्षा कम समय, प्रचार की कम कड़वाहट और कम खर्चा लगता था, भ्रष्टाचार भी कम था। लेकिन सत्तर के दशक में उस समय की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने तर्क दिया कि प्रान्तीय और राष्ट्रीय मुद्दे अलग अलग होते हैं इसलिए दोनों के चुनाव अलग अलग होने चाहिए। एक समय आया जब हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते थे और झंडा, डंडा, बैनर, असलहे, और किराए के बलवान हर समय उपलब्ध रहने लगे। प्रान्तों में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व हुआ और केन्द्र कमजोर होता गया।

चुनाव सुधारों के लिए जय प्रकाश नारायण ने मांग की थी कि चुने गए प्रतिनिधि को यदि जनता चाहे तो वापस बुला सके यानी राइट टु रिकाल और दूसरा यह कि सभी उम्मीदवारों को अयोग्य कहने का अधिकार यानी राइट टु रिजेक्ट। तीसरा है दागी उम्मीदवारों की संख्या घटाना। न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण कुछ सुधार हुआ है परन्तु बहुत कुछ बाकी है। अभी राजनैतिक दल चन्दा लेने में काले धन से परहेज़ नहीं करते और इसी लिए अपने को सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं लाना चाहते। पारदर्शिता की बातें तो करते हैं परन्तु इसे व्यवहार में नहीं लाना चाहते। देश की राजनीति में 70 साल का अनुभव प्रासंगिक और महत्वपूर्ण होना चाहिए और इससे सीख लेकर एकमुश्त चुनाव सुधार करने चाहिए ।

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