धर्म तभी आगे लाया गया जब व्यवस्था दोषपूर्ण हुई

गाँव कनेक्शन | Dec 22, 2017, 21:46 IST
Samvad
डॉ. रहीस सिंह

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि इतिहास स्वयं को दोहराता है। जब वह पहली बार दोहराता है तो त्रासदी होती है, लेकिन जब वह दूसरी बार दोहराता है तो प्रहसन। इसका मेरी समझ से अर्थ यह हुआ कि देश के लोग जब इतिहास से कुछ सीखना नहीं चाहते तो उन्हें त्रासदी का प्रभाव ही समझ में नहीं आता। सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों है? क्या देश के लोग अनपढ़ हैं, अज्ञानी हैं अथवा सरल और सीधे-सादे हैं, इसलिए या फिर इसलिए कि वे अपनी और अपने देश की वास्तविकताओं को जानना ही नहीं चाहते? यदि पहला पक्ष सही है तो भी हमें विचार करने की जरूरत होगी कि औपनिवेशिक व्यवस्था से मुक्ति पाने के इतने लम्बे समय के बाद भी हम उस स्तर को प्राप्त क्यों नहीं कर पाए कि हम सत्य को समझने का साहस व क्षमता जुटा सकें? लेकिन यदि दूसरा सही है तो फिर यह जानने की जरूरत है कि आखिर हम सच का सामना क्यों नहीं करना चाहते या सच क्यों नहीं बताना चाहते?

मैं इतिहास के कुछ पन्नों को पलट रहा था और यह देखने की कोशिश कर रहा था कि भारत के मध्यकालीन इतिहास में मोटे तौर पर दो शासकों ने कट्टरता का वरण किया या उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर दफनाया? उनसे यदि हमारे देश की एक संस्कृति व धर्म का मानने वाला एक वर्ग नफरत करता है तो दूसरा प्रेम? लेकिन क्या दोनों हकीकत को जानते और स्वीकारते हैं? क्या सच को वे स्वीकार भी करेंगे? यदि स्वीकार कर लिया तो क्या वे आज भारत के राष्ट्रीय फलक पर खड़े होकर एक राष्ट्र के नैतिक, प्रबुद्ध और ईमानदार नागरिक होने के दायित्व का निर्वहन भी करेंगे, जिसे उन्हीं खांचों में फिट करने की कोशिश हो रही है? उक्त दोनों शासकों ने जिस कट्टरता का वरण किया, उसने इनकी उन नाकामियों को ढकने का काम किया, जो देश को पतन और पराजय की ओर ले जा रही थीं। अब तक हम प्रायः उस वास्तविकता को नहीं देखना चाहते। शायद इसलिए कि यदि उनकी सच्चाई देख ली तो आज का इतिहास और स्वयं को राष्ट्र नेता एवं प्रणेता कहाने वाले नेतृत्वकर्ता भी बेपर्दा हो जाएंगे।

शायद इसलिए कि यदि उनकी सच्चाई देख ली तो आज का इतिहास और स्वयं को राष्ट्र नेता एवं प्रणेता कहाने वाले नेतृत्वकर्ता भी बेपर्दा हो जाएंगे। इनमें एक शासक 14वीं शताब्दी में हुआ, जिसका नाम फीरोजशाह तुगलक था और दूसरा 17वीं शताब्दी में, जो आलमगीर औरंगजेब के नाम से जाना गया।


इनमें एक शासक 14वीं शताब्दी में हुआ, जिसका नाम फीरोजशाह तुगलक था और दूसरा 17वीं शताब्दी में, जो आलमगीर औरंगजेब के नाम से जाना गया। फीरोजशाह तुगलक ने इस हद तक कट्टरता दिखायी कि उन सूफियों तक को मरवा दिया जो कट्टर उलमा की विचारधारा से भिन्न अद्वैतवाद की विचारधारा को मानते थे, जजिया जैसा विभेदकारी कर हिन्दुओं से वसूल किया, कांगड़ा के ज्वालामुखी मंदिर को लूटा, मुस्लिम महिलाओं को सूफियों की मजारों पर जाने से रोका और अपने महल की दीवारों पर से चित्रों को इसलिए मिटवा दिया ताकि सच्चा मुसलमान होने का दावा कर सके।

औरंगजेब सबसे बदनाम शासकों में से एक है। इसकी गद्दीनसीनी को श्रीराम शर्मा जैसे इतिहासकारों ने कट्टरपंथ की विजय करार दिया है। सभी जानते हैं, इसने गैर मुसलमानों को अहले-विद्दत यानि विधर्मी कहा था और उन पर सख्ती से जजिया लगाया ताकि उन्हें नीचा दिखाया जा सके। हिन्दुओं के मंदिर तोड़े, दारा शिकोह उदार और सम्भाजी जैसे मराठा हिन्दू को धर्म के नाम पर कत्ल किया गया।

इन दोनों में कुछ कॉमन विशेषताएं थीं। पहली यह कि दोनों ने अपने सिंहासनारूढ़ होने के लगभग दो दशक बाद कट्टरता को बढ़-चढ़ कर प्रदर्शित किया। फीरोजशाह तुगलक ने 1375 ईसवी में अपनी धार्मिक नीति की घोषणा की और औरंगजेब ने वर्ष 1679 में जजिया लगाया। जबकि फीरोज का सिंहासनारोहण 1351 में हुआ था और औरंगजेब का 1656-57 में। सवाल यह उठता है कि यदि ये पैदाइशी कट्टर थे तो इन्हें इतने दिनों की प्रतीक्षा करने की जरूरत क्यों पड़ी?

फीरोजशाह तुगलक ने सुल्तान बनने के बाद भारी संख्या में दास पाले (1,80,000), उलमाओं और शिक्षार्थियों के वजीफों की राशि दोगुनी कर दी, अमीरों के कर्ज माफ कर दिया, प्रशासन व्यवस्था ठेके पर चलाने लगा और सेना का यह हाल किया कि सैनिक अपना वेतन वसूल करने वाले कर्मचारी हो गये। फीरोज के राज्य का राजस्व केवल 6 करोड़ 75 लाख टंका (उस समय की मुद्रा) रह गया, जबकि इसका वजीर मरा तो उसके घर 13 करोड़ 50 लाख टंके का काला धन निकाला। तात्पर्य यह हुआ कि फीरोज तुगलक की अर्थव्यवस्था ध्वंस हो चुकी थी, प्रशासन चौपट था, सेना निर्बल तथा सैनिक विद्रोहात्मक स्थिति में।

यानि जब सुल्तान के पास विज़न, सृजन और नियमन की ताकत नहीं रह गई, तब उसने धर्म को आगे कर स्वयं को उसके पीछे सुरक्षित कर लिया। धर्म वाले खुश हुआ, फीरोज की सत्ता बची रही और प्रजा मारी गयी। असली नतीजा दस वर्ष के अंदर ही देखने को मिल गया जब हुजूर का साम्राज्य दिल्ली से पालम तक रह गया।

औरंगजेब के काल को भी जरा देखें। जो अर्थव्यवस्था और आर्थिक इतिहास का जरा सा भी ज्ञान रखते होंगे, उन्हें यह भलीभांति मालूम होगा कि मुगल राज्य की राजकोषीय स्थिति जहांगीर के शासनकाल में ही बिगड़ गई थी। हालांकि शाहजहां ने कुछ हद तक इसे सुधारा था, लेकिन औरंगजेब की नीतियां उसे गर्त में ले गयीं।


औरंगजेब के काल को भी जरा देखें। जो अर्थव्यवस्था और आर्थिक इतिहास का जरा सा भी ज्ञान रखते होंगे, उन्हें यह भलीभांति मालूम होगा कि मुगल राज्य की राजकोषीय स्थिति जहांगीर के शासनकाल में ही बिगड़ गई थी। हालांकि शाहजहां ने कुछ हद तक इसे सुधारा था, लेकिन औरंगजेब की नीतियां उसे गर्त में ले गयीं। अगर 1660 और 1670 के दशक के अध्ययनों और उन पत्रों का आकलन करें, जो जागीरदारों या सूबेदारों द्वारा औरंगजेब को लिखे गये थे, तो पता चलेगा कि राजकोषीय घाटा लगभग 300 प्रतिशत के आसपास पहुंच गया था। यानि औरंगजेब की अर्थव्यवस्था ध्वंस हो चुकी थी और उसके पास ऐसा अर्थशास्त्री या सलाहकार नहीं था, जो इस स्थिति से उबारने में उसकी मदद कर सके।

औरंगजेब ने राजकुमार शुजा द्वारा कम्पनी को बंगाल में 3000 रुपये के बदले आंतरिक व्यापार को दी गई छूट को आगे बढ़ाया और सूरत में भी ईस्ट इंडिया कम्पनी को 10,000 और बड़े-बड़े उपहार लेकर आंतरिक व्यापार में कर से छूटें प्रदान कर दी थीं। परिणाम यह हुआ कि बंगाल और सूरत के कारीगरों के हाथ कट गये। अब ये स्वतंत्र कारीगर या व्यवसायी नहीं, बल्कि कम्पनी या उनके कर्मचारियों के दास बन गये। इसके बावजूद भी औरंगजेब सबसे बड़ा राष्ट्रवादी और पक्का मुसलमान होने का दावा कर रहा था। वह ऐसा करने में सफल भी हो गया क्योंकि उसके साथ कट्टरपंथी जमात खड़ी थी जिसने हिन्दुओं को नीचा दिखाने वाली मनोग्रंथि और बादशाह से मोटी रकम पाने की लालसा के चलते औरंगजेब की आर्थिक ध्वंस और शासन की अक्षमता को हरे रंग की चादर के नीचे ढंग दिया।

यही नहीं औरंगजेब ने भी अपनी वसाया (वसीयत) में यह लिखकर मसीहाई हासिल कर ली कि उसने जो टोपियां सिलीं थीं उनके 4 रुपये कुछ आने पैसे हैं। इन्हें उसके कफन-दफन में खर्च किया जाए। जो कुरान की प्रतियां लिखीं थी, उनसे 100 रुपये कमाए थे, जिसे गरीबों में बांट दिया जाए। यानि बादशाहत हासिल होने के बाद भी स्वयं को फकीर दिखाने की कोशिश की और उसके समर्थकों ने उसे जिंदा पीर घोषित भी कर दिया। हालांकि इस जिंदा पीर की करतूतों का परिणाम यह हुआ कि भारतीय साम्राज्य संघर्षों की ओर बढ़ गया और उपनिवेश बनने तक जारी रहा।

आज को करीब से देखें तो हमारा नेतृत्व औरंगजेब की तरह से फकीरी का प्रदर्शन कर रहा है और जिंदा पीर बनने की कोशिशें कर रहा है। तो क्या यह मान लिया जाए कि उसका आर्थिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था असफल हो चुकी है। यदि ऐसा नहीं हो फिर राजनीति से विकास के विषय, विकास का मॉडल नेपथ्य में क्यों चला गया?


इतिहास में केवल यही दो उदाहरण नहीं हैं, बल्कि ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, जो यह बताते हैं कि जब-जब शासक और सरकारों ने अपनी अयोग्यता एवं अक्षमता से राजकोषीय व्यवस्था को ध्वंस की ओर धकेला और शासन व्यवस्था अकुशलता से चलाई, तब-तब धर्म को एक प्रमुख तत्व बनाया गया। आज को करीब से देखें तो हमारा नेतृत्व औरंगजेब की तरह से फकीरी का प्रदर्शन कर रहा है और जिंदा पीर बनने की कोशिशें कर रहा है। तो क्या यह मान लिया जाए कि उसका आर्थिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था असफल हो चुकी है। यदि ऐसा नहीं हो फिर राजनीति से विकास के विषय, विकास का मॉडल नेपथ्य में क्यों चला गया?

ध्यान रहे कि चाणक्य ने कहा था कि जिस देश के लोग सच बोलना नहीं चाहते, वे भले ही अपना वर्तमान सुधार लें, लेकिन भविष्य बिगाड़ देते हैं। क्या आज वास्तव में हमारे देश के लोग सच बोल रहे हैं, सच स्वीकार कर पा रहे हैं या फिर सच के सहारे ही आगे बढ़ रहे हैं या फिर एक चिंताजनक तस्वीर का निर्माण कर रहे हैं, जिसके अंतिम परिणाम अच्छे नहीं होंगे।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)



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