तीन तलाक और हलाला की ज़लालत

Dr SB Misra | Jul 30, 2019, 07:37 IST

दुनिया के 22 इस्लामिक देशों ने तीन तलाक और हलाला को प्रतिबंधित कर रखा है, भारत तो सेकुलर देश है, यहां बहुत पहले यह ज़लालत बैन हो जानी चाहिए थी।

तीन तलाक को अवैधानिक मानते हुए उच्चतम न्यायालय ने सरकार से इसके खिलाफ कानून बनाने की अपेक्षा की थी। मोदी सरकार ने विधेयक पेश किया जिसे लोकसभा ने भारी मतों से पास किया लेकिन राज्य सभा ने नामंजूर कर दिया। देखना होगा क्या मोदी सरकार समाज का कलंक मिटा पाएगी अथवा राजीव गांधी सरकार की तरह दुबक जाएगी और तीन तलाक की शिकार कितनी ही शाह बानो कराहती रहेंगी। तब भी लोकसभा में कांग्रेस के मंत्री आरिफ़ मोहम्मद के तर्क पूर्ण भाषण को सुनकर लगा था कि राजीव गांधी प्रचंड बहुमत की सरकार के माध्यम से इतिहास रचेंगे। लेकिन सरकार ने संविधान का संशोधन करके निर्णय ही पलट दिया।

दुनिया के 22 इस्लामिक देशों ने तीन तलाक और हलाला को प्रतिबंधित कर रखा है। भारत तो सेकुलर देश है, यहां बहुत पहले यह ज़लालत बैन हो जानी चाहिए थी। लेकिन आज भी राज्य सभा के सभ्य सेकुलर सांसद तीन तलाक बिल को दो बार अस्वीकार कर चुके हैं, अब मोदी सरकार को अपना वादा पूरा करने का रास्ता निकालना होगा। देश ने सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह और दहेज जैसी परम्पराओं को समाप्त किया है। महिलाओं पर ज़लालत कहीं भी हो यथा शीघ्र समाप्त होनी चाहिए।

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प्रतीकात्मक तस्वीर साभार इंटरनेट

तीन तलाक से निजात आजादी के तुरंत बाद मिलनी चाहिए थी। सामाजिक न्याय के कानून लागू करने में विलम्ब के कारण नेहरू मंत्रिमंडल से कानून मंत्री अम्बेडकर ने त्यागपत्र दे दिया था। संविधान निर्माता अम्बेडकर का कानून था संविधान की धारा 44 में उल्लिखित समान नागरिक संहिता जिसे कांग्रेस सरकार जब चाहती लागू कर सकती थी।

भारतीय मुसलमान 1956 तक पर्सनल लॉ के लिए उद्वेलित नहीं थे क्योंकि वे मानकर चल रहे थे सेकुलर भारत में इसकी गुंजाइश नहीं है। उस समय भारत का मुसलमान यूनिफार्म सिविल कोड राजी खुशी स्वीकार कर लेता यदि नेहरू चाहते। सभ्य समाज में सभी के लिए एक जैसा कानून होता है।

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तमाम कानून जैसे आबादी पर नियंत्रण, तलाक सहित महिलाओं की दशा, बच्चों को रोटी रोजी देने वाली शिक्षा, बढ़ती आबादी पर नियंत्रण जैसे सैकड़ों विषयों का सरोकार पूरे समाज से है, जिम्मेदारी देश चलाने वाली सरकार की है। यदि हम सेकुलरवादी और समाजवादी व्यवस्था का दम भरते हैं तो समाज को टुकड़ों में बांटकर नहीं देख सकते। यदि भारत के सेकुलर संविधान और इस्लामिक शरिया अथवा मनु स्मृति में टकराव हो तो संविधान सर्वोपरि रहना चाहिए।

कुछ मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक के खिलाफ़ माननीय उच्चतम न्यायालय में गुहार लगाई थी जहां उन्हें बहुत बड़ी राहत मिली है। अदालत ने सरकार को मौका दिया था कि छह महीने के अन्दर इस विषय पर कानून बनाए। कानून बनाते समय ध्यान में रखना चाहिए कि सम्पूर्ण महिला समाज को राहत मिले।

साभार इंटरनेट

शादी ब्याह का तरीका अलग अलग होता रहे लेकिन तलाक और गुजारे के मामले में भेदभाव नहीं होना चाहिए। हिन्दू कोड बिल के बावजूद हिन्दू महिलाओं की दशा अच्छी नहीं है। जहां कहीं सम्भव हो महिलाओं को महिलाएं समझ कर और पुरुषों को पुरुष मानकर कानून बने जो संविधान सम्मत हों। तीन तलाक का संबंध केवल मुस्लिम महलाओं से है इसलिए इसमें हिंदू महिलाओं को जोड़ना ठीक नहीं।

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सरकार यह प्रावधान कर सकती है कि जो मुस्लिम महिलाएं गुजारा मांगे उनका हाल शाह बानो जैसा न हो और जो हिंदू दंपत्ति स्वेच्छा से अलग होना चाहें उनके छुट्टी छुट्टा में अनावश्यक विलंब न हो। मुस्लिम और हिन्दू महिलाओं ने मिलकर मुम्बई की हाजी अली दरगाह में प्रवेश के मामले में विजय हासिल की थी और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। आशा की जानी चाहिए कि महिलाएं भी पुरुषों के बराबर अधिकार ले पाएंगी। मोदी सरकार ने समान नागरिम संहिता लागू करने की संभावना तलाशने के लिए लॉ कमीशन की सलाह मांगी थी। आशा थी कि हमारा समाज कम से कम तीन तलाक के मसले पर माननीय न्यायालय का निर्णय सहज भाव से स्वीकार करेगा परन्तु ऐसा हुआ नहीं। अब सरकार ही अगला कदम उठाएगी।

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