दिल्ली से स्मॉग हटा तो दिखा किसानों का आक्रोश, क्या 2019 में दिखेगा असर ?  

Arvind ShuklaArvind Shukla   23 Nov 2017 10:32 AM GMT

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दिल्ली से स्मॉग हटा तो दिखा किसानों का आक्रोश, क्या 2019 में दिखेगा असर ?  किसान मुक्ति आंदोलन में अपनी आवाज़ उठाते किसान संगठन। फोटो- अभिषेक वर्मा

देश में किसानों की समस्याएं और आंदोलन, 20 और 21 नवंबर की किसान मुक्ति संसद का असर और उसके मायने.. क्या आएगा किसानों के हाथ और क्या होगा उसका आने वाले दिनों पर असर...

नई दिल्ली। पिछले एक महीने से दिल्ली पर छाई धुंध और स्मॉग छट गई थी, लेकिन नाराजगी के बादल छाए हुए थे। 20 नवंबर को दिल्ली के लोग सोकर उठे तो सड़कों का नजारा बदला हुआ था। लाल, नीले, हरे और पीले झंड़ों को उठाए नारे लगाते लोगों के जत्थे इंडिया गेट की तरफ बढ़ रहे थे।

नवंबर के आखिरी पख़वाडे में अक्सर दिल्ली के लुटियंस जोन में सियासी तापमान बढ़ जाता है, क्योंकि संसद के शीतकालीन संत्र में हिस्सा लेने के लिए पूरे देश के लोकसभा और राज्यसभा सांसद जो पहुंच जाते हैं। नोटबंदी का एक साल, जीएसटी और गुजरात चुनाव के बीच जोरदार हंगामे की आशंका थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं, शीत कालीन सत्र आगे बढ़ गया।

20 नवबंर को संसद के अंदर के बजाए संसद मार्ग पर गर्मागर्मी थी। आरोप-प्रत्यारोप का शोर नहीं था, किसानों का गुस्सा और नाराजगी थी। रामलीला मैदान, दिल्ली के रेलवे स्टेशनों ने अपनी भाषा में गढ़े नारों, बैनरों और पट्टियों के बीच जत्थों का शोर संसद भवन से काफी पहले ही तेज हो जा रहा था। संसद मार्ग पर किसान मुक्ति संसद का आयोजन किया गया था, जिसमें शामिल होने के लिए 22 राज्यों के हजारों किसान यहां पहुंच रहे थे। किसान मुक्ति संसद के आयोजकों की मानें तो आजाद भारत में पहली बार किसान संगठन इस तरह एकजुट होकर एक मंच पर आए थे।

वीडियो- देखिए 20 और 21 नवंबर को किसान मुक्ति आंदोलन

मध्य प्रदेश के मंदसौर कांड के बाद बनी इस समिति में धीरे-धीरे किसान संगठनों की संख्या बढ़कर समारोह के आखिरी दिन 187 पर खत्म हुई। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के तले भारत के करीब 22 राज्यों के किसान संगठन शामिल हुए थे। मंच से ये बात कई वक्ताओं ने बार-बार दोहराई कि, हम अलग-अलग भाषाओं, इलाकों, झंडों और बोलियों वाले किसानों-संगठनों का एक मंच पर आना बड़ी उपलब्धि है।

पिछले कई वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता और खासकर खेती-किसानी के मुद्दे पर लगातार लिखने वाले राज्यसभा टीवी के वरिष्ठ सहायक संपादक अरविंद कुमार सिंह कहते हैं, “चौधरी साहब (महेंद्र सिंह टिकैत) ने बोट क्लब पर जो ताकत दिखाई थी उसके बाद आज किसानों की आवाज़ इस तरह उठी है। एक बड़ी बात कि इतने संगठनों में सामांजस्य और फिर सिर्फ दो मुद्दे (संपूर्ण कर्जमाफी और लाभकारी मूल्य) पर आम सहमति बनना सफलता कहा जाएगा।”

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किसान मुक्ति संसद में छोटे-बड़े सभी किसानों का संपूर्ण कर्जमाफी, खेतिहर मजदूरों, बटाईदारों, भूमिहीनों, मछुवारों को किसान का दर्जा देने और फसल पर लागत का 50 फीसदी ज्यादा का लाभकारी मूल्य मांगा गया। सत्र के दूसरे दिन इन्हीं मुद्दों को लेकर दो विधेयकों का मसौदा भी रखा गया।

मंदसौर कांड के बाद से ही अपने घर न लौटने वाले किसान संघर्ष समिति के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. सुनीलम ने कहा, “ ये कोई एकाएक लिया गया फैसला या बुलाया गया आंदोलन नहीं है, हम सबने मध्यप्रदेश से लेकर तेलंगाना तक 10 हजार किलोमीटर का सफर किया है, किसानों के मुद्दों को समझा है, उन घरों को देखा है जहां खेती की लागत और कर्ज से दबे किसान ने आत्महत्या की है। फिर ये मुद्दे तय हुए हैं, जिन्हें लेकर हम आगे जाएंगे।”

किसान मुक्ति संसद

डॉ. सुनीलम से खास बात में जो गांव कनेक्शन को बताते हैं, उसकी गवाही वो सामने बैठी महिलाओं और लोगों के गुटों को दिखाते हुए तस्दीक कराते हैं। प्रदर्शन महाराष्ट्र से शतकारी संगठन की महिलाएं थीं तो तमिलनाडु के नरमुंडों के साथ आए किसान, कर्नाटक का रैयत संघ भी है। शोर और नारों के बीच सत्र के पहले दिन उस वक्त माहौल थोड़ा गमगीन भी हुआ जब महिला संसद का आयोजन हुआ। इसमें करीब 547 वो महिलाएं शामिल थीं, जिनके घरों के पुरुषों ने आत्महत्या की थी। अपने पति, भाई या पित की तस्वीरों को गले में टांगे इन महिलाएं की भाषा यहां अड़चन नहीं बनी। संसद की अध्यक्षता कर रही सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने इसे ऐतिहासिक क्षण बताया।

मंच से किसान संगठन हुंकार भर रहे, किसानों के मुद्दे गिना रहे और सरकारों को ललकार रहे थे, मंच के नीचे टीवी और अख़बारों के कैमरे और मोजो जर्नलिज्म की नई विधा के सहारे मीडियाकर्मी देखने में अनेकता में एकता वाले इस समारोह की हर तस्वीर, किसान और कार्यकर्ताओं का हर भाव कैद करने की जुगत में थे। तो सोशल मीडिया में #किसानमुक्तिसंसद ट्वीटर और फेसबुक पर नजर आ रहा था। इसी संसद मार्ग के फुटपाथ के किनारे लगी लोहे की मोटी-मोटी चेन से फंसकर निकलते लोग एक नजर उठाकर देखते और आगे बढ़ रहे थे। इसी गलियारे में आते-जाते कुछ लोग इसे एतिहासिक किसान लड़ाई बता रहे थे कुछ सियासी स्टंट।

अपने बच्चों के साथ संसद मार्ग पहुंचीं थी सैकड़ों महिलाएं।

मेरे ही एक साथी ने फेसबुक पर लिखा, “गुजरात चुनाव में बीजेपी को नुकसान पहुंचाने के लिए ये साजिश है, देखना जल्द पब्लिक डोमेन में इसका खुलासा होगा।”

इस आंदोलन का चेहरा, स्वराज अभियान के योगेंद्र यादव, समिति के संयोजक सरदार वीएम सिंह, डॉ. सुनीलम, अतुल अंजान, महाराष्ट्र के दिग्गज किसान नेता और सांसद राजू शेट्टी, हन्नान मौला, अखिल भारतीय किसान सभा के अशोक धावले, रामपाल जाट थे, जो लगातार अपनी दलीलों से केंद्र की मोदी सरकार और पूर्व की सरकारों को घेरते रहे।

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक वीएम सिंह ने कहा, “प्रधानमंत्री मोदी लोकसभा चुनाव के दौरान फसल का लाभकारी मूल्य देने का वादा किया था, लेकिन अब वो मुकर गए हैं। जब तक किसानों को उनकी उपज की पूरी खरीद और लाभकारी मूल्य नहीं मिलेगा, खेती लाभकारी नहीं बनेगी।’ डॉ. सुनीलम इसे ही दर्द का इलाज मानते हैं, एक बार सभी किसानों का कर्जा माफ कर दिया जाए और फिर किसान को अच्छी कीमत पर उसकी संपूर्ण फसल की खरीद की गारंटी मिल जाए, किसान सुखी हो जाएगा।’

आयोजकों के मुताबिक 22 राज्यों के किसान हुए शामिल। फोटो- अभिषेक वर्मा।

किसान समिति की मांगों को लेकर जो पहली मांग है, संपूर्ण कर्जमुक्ति उसको लेकर किसान और गैर किसान सबके मन में अलग-अलग सवाल और आशंकाएं हैं। हरियाणा जहां से करीब 4 दशक पहले कर्जमाफी की शुरुआत हुई थी, उसी राज्य के गोहाना से आए किसान राजवीर सिंह कहते हैं, “कर्जमाफी सरकारें अपने चुनावी फायदों के लिए करती हैं, अगर केंद्र सरकार करती है तो इतने नियम-कानून लगा देती है कि लाखों किसान रह जाते हैं, इसलिए केंद्र सरकार को चाहिए सबका कर्जा माफ कर लफड़ा (मुद्दा) खत्म कर दे।’

उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की कर्जमाफी के बाद महाराष्ट्र में करोड़ों रुपए का किसानों का कर्जामाफ किया। लेकिन इसी राज्य के तमाम किसान बैंकों की दहशत में हैं। कोल्हापुर के कुरुंदबाद गांव के शिवाजी रोडे गन्ने और फूल की खेती करते हैं उनपर साढ़े तीन लाख का कर्जा है। शिवाजी गुस्से में कहते हैं, “ पिछले कई सालों से मैं अपने कर्जे का ब्याज चुकाता रहा हूं, लेकिन मेरा कर्जा माफ नहीं हुआ लेकिन जो थकित (वो किसान जो कर्ज नहीं दे रहे थे) उनका पैसा माफ हुआ, सरकार ये चाहती ही नहीं किसान आगे बढ़े।’

महाराष्ट्र राज्य योजना आयोग के पूर्व सदस्य प्रो. एचएम देसरडा बार-बार कर्जमाफी को ही समस्या का हल नहीं मानते। वो कहते हैं, “एक बार किसानों को संकट से उबार लिया जाए, फिर वो आगे बढ़ते जाएंगे।”

किसान मुक्ति संसद में पेश मसौदे अब जनता के बीच जाएंगे। किसान की समस्याएं, दूध उत्पादन करने वाले किसान और कर्जमाफी को लेकर लंबी लड़ाई लड़ने वाले शेतकारी संगठना संघ के नेता और सांसद राजू शेट्टी अब एनडीए का साथ छोड़ चुके हैं। वो कहते हैं, संपूर्ण कर्जमाफी और लाभकारी मूल्य के विधेयक को लेकर हम दूसरी पार्टियों के बीच जाएंगे, और उन पर दबाव बनाएंगे कि वो अपनी पार्टी इस पर राजी करें कि ये विधेयक सदन में बिल बनें, जो हमारा साथ नहीं देगा 2019 में हम उस पार्टी के नेता को गांव में घुसने नहीं देंगे।’

समन्यक समिति इस बात पर गदगद थी कि दक्षिण से उन्हें काफी सपोर्ट मिला है, लेकिन उनके माथे पर इस बात को लेकर चिंता की अदृश्य लकीरें जरुर होंगी, यूपी, मध्यप्रदेश और पंजाब से कई किसान संगठन जैसे भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) और भानू दोनों गुट साथ नहीं हैं। कभी भारतीय किसान यूनियन किसानों की अगुवा रह चुकी है। जाहिर सी बात है किसान समिति के सामने इन संगठनों को जोड़े रखने और जो बाहर हैं उन्हें साथ लाने की कोशिश होगी। खुद योगेंद्र यादव कहते हैं, “भारत बहुत बड़ा देश है, किसानों का देश है, उनकी अगुवाई करने वाले हजारों संगठन होंगे। हम उन सबके पास जाएंगे और साथ लाने पर राजी करेंगे।”

किसान संगठनों की इस एक जुटता को लेकर सरकार क्या सोचती है और उस पर कितना दबाव है, ये अब तक साफ-साफ दिखाई नहीं दिया है या फिर ये कहें कि दिखाई न दे ये पूरी कोशिश हुई है। लेकिन किसान मुक्ति संसद के दूसरे दिन जब विश्व मात्स्यिकी दिवस पर संसद मार्ग पर ही सैकड़ों मछुवारे प्रदर्शन कर रहे थे और यहां से कुछ किलोमीटर दूर कृषि विज्ञान केंद्र परिसर में मछली उत्पादन पर उपलब्धियां गिनाते हुए कृषि और किसान कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह, किसान आंदोलन पर नो कमेंट कहते हुए आगे बढ़ गए थे।

चर्चा और आरोप प्रत्यारोप, लंबी लड़ाई के वादों के बीच किसान मुक्ति संसद के आखिरी दिन किसान संगठनों ने गर्व से कहा- “अब किसानों ने ये तय किया है कि वो अपने हक की लड़ाई तो लड़ेंगे लेकिन आत्महत्या नहीं करेंगे।”

दिल्ली से लौटते हुए कई जगहों पर किसान मुक्ति संसद की चर्चा थी, हमारी तरह ज्यादातर लोग दुआ कर रहे थे, इसमें 50 फीसदी काम जमीन पर नजर आ जाएं और मंच कमोबेश एकमत दिखने वाले किसान संगठन अहम में न फंस जाएं।

लेखक- गांव कनेक्शन में डिप्टी न्यूज एडिटर हैं ये उनके अपने विचार हैं।

        

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