अनिल माधव दवे... नदी की आंख भी नम है

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अनिल माधव दवे... नदी की आंख भी नम हैस्वर्गीय अनिल माधव दवे।

शेफाली

भोपाल। नदी बोल सकती तो कहती, कि मेरे किनारों को संभालते, मेरी सांसों की फिक्र करते। दौड़ते भागते। थक गया है मेरी फिक्र करने वाला। पेड़ पौधों की जुबान होती तो कह देते शायद कि झुलस रही धरती को हमारे साए का अहसास कराने वाले, तपिश में छोड़ के तुम्हे ऐसे तो नहीं जाना था। अनिल माधव दवे। दिमाग से कुशल संगठक, चुनावी रणनीतिकार और दिल से नदियों, जंगलों के साथ धरती की चिंता करने वाले पर्यावरणविद।

जैसे जानते हों कि जिंदगी मुझे बहुत मोहलत नहीं देने वाली, तो एक ही उम्र में जी लिए कितने किरदार । और जो भी किरदार जीया पूरी शिद्दत से जिया। अनिल माधव दवे की व्याख्या कीजिए तो कमर्शियल पायलेट। संघ के प्रचारक। 2003 में मध्यप्रदेश के सत्ता परिवर्तन की प्रस्तावना लिखने वाले राज्यसभा सांसद। और नदियों की सेहत के साथ दुनिया के बिगड़ते पर्यावरण की चिंता करने वाले पर्यावरणविद। फिर जीवन आखिरी किरदार केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री के तौर पर ।

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इस दौर में जब राजनेताओं की वसीयत में परिवार के लिए विधानसभा सीट, फार्म हाउस, करोड़ों की नकदी के बंटवारे लिखे जाते हों। जब राजनेता जीवन के बाद के बंदोबस्त के लिए, अपने नाम से सड़कों, विश्राम गृहों में पट्टिका लगवाते हों। एक ऐसा भी राजनेता है जो अपनी वसीयत में लिख जाता है जब मैं सो जाऊं तो मेरी याद में एक नन्हा सा पौधा रोप देना तुम , उसे पोसना, बड़ा करना...और हां, ख्याल रखना उस पर भी मेरा नाम ना हो।

दवे कुछ दिनों पहले ही किसानों के एक प्रतिनिधि दल से मिले थे।

2013 के मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले की याद है। तब अनिल माधव दवे भाजपा से राज्यसभा सदस्य थे। नदी का घर जो राजधानी भोपाल में उनका निजी निवास भी था। वहां दवे जी से अनौपचारिक चर्चा हो रही थी। नदी से होते, बात राजनीति तक आई। मैने पूछा था उनसे। आप किनारे हो गए हैं। दस साल पहले मध्यप्रदेश की राजनीति में भाजपा की एतिहासिक जीत की प्रस्तावना लिखने वाले का यूं हाशिए पर चले जाना? आपको ये तकलीफ सालती नहीं? दवे साहब मुस्कुराए। और फिर सवाल किया। तकलीफ कैसी।

वो एक भूमिका थी। पूरी हुई। अब दूसरी भूमिका में हूं। मैने फिर प्रश्न किया सत्ता का सुख, रसूख। चरण वंदन के लिए आती कतारें, सुनते हैं राजनेता को तो इस सबकी आदत हो जाती है? दवे साहब ने कहा मुझे ब्लैक टी की आदत हुई है बस। रही बात पार्टी में मेरी भूमिका की, तो जब मेरी जरुरत होगी पार्टी फिर मुझे मैदान में ले आएगी। लेकिन मेरे लिए तो दिन का हर एक घंटा कीमती है।

समय कम है और काम ज्यादा। तब अनिल दवे ने पूरी तरह से खुद को पर्यावरण की चिंता और कामों में झौंक दिया था। लेकिन उस रोज जो उन्होने कहा था, वाकई ये हुआ भी। 2013 में चुनाव नजदीक आते ही, सत्ता के चार साल हाशिए पर रहे अनिल दवे की याद फिर एक बार पार्टी को आई और उन्हे 2013 के विधानसभा चुनाव में चुनाव प्रबंधन समिति की जिम्मेदारी सौंप दी गई। जिस दिन ये फैसला हुआ। उस दिन मैं याद कर रही थी उनकी दूरदर्शिता और खुद की काबिलियत पर उनके भरोसे को। यूं ही तो नहीं कह दिया होगा दवे साहब ने कि जिस रोज मेरी जरुरत होगी, पार्टी फिर मुझे मैदान में ले आएगी।

फिर तो भूमिकाएं विस्तार पाती गईं। भोपाल से फिर दिल्ली और मैदान पूरा देश। पर्यावरणविद की अपनी भूमिका के बाद पर्यावरण मंत्री के रुप में उन्होने जिम्मेदारी संभाली थी। क्लाइमेट चेंज पर पेरिस समझौते में भारत का पक्ष रखने के लिए दवे ने अहम भूमिका निभाई। 2009 से वे मध्य प्रदेश से राज्यसभा सदस्य थे और जुलाई, 2016 में उन्होने मोदी सरकार में वन और पर्यावरण राज्य मंत्री के रुप में उन्होने शपथ ली। दवे के प्रयासों से अभी कुछ दिन पहले सरसो की जीएम फसल को पर्यावरण मंत्रालय ने कारोबारी खेती की मंजूरी दी थी। काम तो अब भी बहुत सा बाकी था। सूरज कुछ मध्दम हुआ है। बुझा नहीं है।

लेखक- पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं।

        

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