देश ने एक जुनूनी पर्यावरणविद् खो दिया

Devinder SharmaDevinder Sharma   23 May 2017 8:03 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
देश ने एक जुनूनी पर्यावरणविद् खो दियाअनिल माधव दवे जैसे लोग राजनीति में जीवित नहीं रह पाएंगे, ज्यादातर तो उसमें कदम रखने की हिम्मत ही नहीं कर पाएंगे

वो एक बेहद चौंकाने वाली खबर थी। जब मैंने प्रधानमन्त्री मोदी का ट्विटर पर पर्यावरण मंत्री अनिल दवे की अचानक मृत्यु पर दिया शोकसंदेश पढ़ा, तो इस दुःखद समाचार को समझने में कुछ वक्त लगा। कुछ दिनों पहले ही तो उनसे बात हुई थी। कुछ तनाव में होने के बावजूद, वो ऊर्जावान और विनम्र थे।

ये हमारे लिए दिनचर्या थी। जब हम मिलते थे, या फ़ोन पर बात करते थे तो बाईपास सर्जरी के बाद चल रही अपनी ज़िन्दगी के बारे में जरूर पूछ लिया करते थे। मेरे व्यस्त यात्रा कार्यक्रम को जानते हुए वो हमेशा मुझे ओपन हार्ट सर्जरी के बाद अपना ज्यादा ध्यान रखने को कहते थे। ‘अपनी दवाइयां वक्त पर लीजिए देविंदर जी, देश को आपकी जरूरत है’ वो अक्सर कहते और मैं हंसते हुए महान पत्रकार प्रभाश जोशी की बात दोहराता ‘जिस रफ़्तार से मैं सफ़र कर रहा हूं, यमराज को भी मेरा पीछा करने में दिक्क़त होगी।'

ये भी पढ़ें: अनिल माधव दवे... नदी की आंख भी नम है

मैं उन्हें नियमित दवा के लिए नहीं कह सकता था क्योंकि वो खुद भी इसका खास ध्यान रखा करते थे। उनके पास एक डिब्बा रहता था, जिसमे दवाएं, लिए जाने वाले वक्त के अनुसार लगी हुई होती। वो नियमित योग करते, साधारण जीवन जीते, और लगता ही नहीं था कि वो बस इतने कम दिन जीने वाले थे। कम ही लोग तीन-चार साल पहले हुई उनकी बाईपास सर्जरी के बारे में जानते थे, जो मेरी इसी सर्जरी के तकरीबन दो साल बाद हुई थी । तभी वो खुद को मेरा जूनियर मानते थे।

अनिल दवे हमारे बीच नहीं हैं, यह ये बताता है कि वे उस राजनीतिक दबाव को सह नहीं सके लेकिन निश्चय ही उन्होंने एक ख़ाली जगह छोड़ दी है और जैसा कि मैंने ट्वीट किया, उनके जैसे राजनेता अब मुट्ठी भर भी नहीं रह गए हैं। उनके जैसे लोग राजनीति में जीवित नहीं रह पाएंगे, ज्यादातर तो उसमें कदम रखने की हिम्मत ही नहीं कर पाएंगे।

उनके हार्ट स्ट्रोक के बारे में पता चलने पर मुझे यकीन ही नहीं हुआ था। आखिरकार वो मेरे ‘जूनियर’ थे और बाईपास मेडिकल इतिहास की माने तो सामान्य परिस्थितियों में उन्हें तकरीबन 15 साल या उससे ज्यादा तो जीना ही चाहिए था। मैं जानता था कि गुणसूत्रीय बदलाव वाली सरसों ( जीएम मस्टर्ड) के अनुमोदन को लेकर वो काफी राजनैतिक दबाव में थे। पर उसका ऐसा परिणाम तो मैंने सोचा तक न था।

दिवेंदर शर्मा के सरकारी नीति , कृषि और किसानों से संबंधित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

उन्होंने मुझे उन राजनीतिक दबावों के बारे में तो नहीं बताया पर ये जरूर कहा कि अगर बस चले तो वो जीएम मस्टर्ड को अनुमोदन कभी नहीं देना चाहेंगे। मैने उन्हें त्यागपत्र देने की सलाह दी। यहां तक कि मैंने उन्हें वो घटना भी याद दिलाई जब लाल बहादुर शास्त्री जी ने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र दे दिया था।’ ऐसे उच्च नैतिक निर्णयों की देश कद्र करता है। आप एक ऐसी परम्परा छोड़ जाएंगे जिसपर देश गर्व करेगा’ मैंने कहा था।

अनिल दवे हमारे बीच नहीं हैं, यह ये बताता है कि वे उस राजनीतिक दबाव को सह नहीं सके लेकिन निश्चय ही उन्होंने एक ख़ाली जगह छोड़ दी है और जैसा कि मैंने ट्वीट किया, उनके जैसे राजनेता अब मुट्ठी भर भी नहीं रह गए हैं। उनके जैसे लोग राजनीति में जीवित नहीं रह पाएंगे, ज्यादातर तो उसमें कदम रखने की हिम्मत ही नहीं कर पाएंगे।

न सिर्फ वो एक अपवाद ही थे, बल्कि जिस तरह बीजेपी मध्यप्रदेश के वो नेता बने, फिर राज्यसभा के लिए नामित हुए, फिर मंत्री (स्वतंत्र प्रभार), और वो भी अपना मनचाहा प्रभार प्राप्त करना, ये सब उनकी ताकत को दर्शाता है।

जब पहली बार मैं उनसे मिला, उस वक्त वो नर्मदा बचाने के लिए बनाए जा रहे " नर्मदा समग्र" में पत्रकारों, नीति निर्माताओं, पर्यावरणविदों, राजनीतिज्ञों, एनजीओ, और जागरूक नागरिकों को जोड़ने की कवायद कर रहे थे। मुझे मेरे मित्रों भवदीप कांग और अतुल जैन ने उनसे मिलवाया था। मुझे कहना पड़ेगा कि उससे पहले एक कोने में चुपचाप बैठे उस शख़्स को मैंने देखा तक नहीं था। भोजन के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि नर्मदा समग्र के माध्यम से वो क्या कुछ हासिल करना चाहते थे। उन्होंने कहा, ‘आप इसे सरकारी प्रदर्शन समझ सकते हैं पर सरकार में वास्तव में ऐसे अच्छे लोग भी हैं जो सचमुच नदियों को बचाना चाहते हैं।’

मुझे उनके वो शब्द याद हैं...उनका वो समर्पण याद है और फिर मैं नर्मदा के तट पर प्रथम नर्मदा समग्र में भाग लेने के लिए पहुंचा था। उसके बाद भी मेरा जब भी भोपाल जाना होता, उनसे जरूर मिलता। कम से कम दो बार ऐसा हुआ कि वो स्टेज पर थे और मैं दर्शकों की अगली पंक्ति में और उन्होंने मुझे चन्द शब्द कहने के लिए मंच पर बुला लिया जबकि मेरा नाम वक्ताओं की सूची में था ही नहीं।

‘ऐसा कैसे हो सकता है कि हम देविंदर सिंह को नहीं सुने जब वो हमारे बीच मौजूद हों’ वो कहते, ‘आप नहीं जानते इनके पास अनुभवों का कितना बड़ा खजाना है , जिससे हम महरूम नहीं रहना चाहते।’ शर्मिंदा होते हुए मैं लोगों को बताता कि ये सब केवल अनिल दवे का मेरे प्रति प्यार, सम्मान, और स्नेह है। वो मुस्कुराते, और मुझे आगे कहते रहने को प्रेरित करते।

मुझे याद है, जब एक बार मैंने उनको फ़ोन करके शहर में होने के बारे में बताया था। उनके जोर देने पर 'नदी के घर’ पहुंचा, जहां उन्होंने मेरा स्वागत किया था। मुझे सबसे मिलवाते हुए वो मुझे सबसे ऊपरी मंजिल पर अपने कमरे में ले गए। हमारी लम्बी बातचीत में सब शामिल थे नदियां, जंगल, अजैविक खेती सब कुछ।

‘मैं मुख्यमंत्री से नर्मदा के किनारे रासायनिक खेती बन्द कराने की मांग कर रहा हूं। ये सारी खाद, कीट और कृमिनाशक ...सब नर्मदा में ही तो गिरते हैं।’ उन्होंने मुझसे कहा। वो नर्मदा के किनारे वृहद वृक्षारोपण करना चाहते थे, और मुझे प्रसन्नता है कि मध्यप्रदेश सरकार ऐसा कर रही है।

एक ऐसा शख़्स, जिसके दिल में प्रकृति के लिए इतना समर्पण था, उसके लिए जीएम मस्टर्ड पर फैसला आसान नहीं रहा होगा। अपने ऑफिस के सामने एक सामाजिक प्रदर्शन देखना , फिर छह लोगों के मण्डल को अपने ऑफिस में बुलाकर बातचीत करना, और उसी देर शाम प्रधानमन्त्री से अपने निवास पर मिलना ...काफी ज्यादा था। जैसा प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया , उस दुर्भाग्यपूर्ण रात उन्होंने कई मुद्दों पर अनिल दवे से बातचीत की थी, जिसमें जरूर जीएम मस्टर्ड का मुद्दा भी शामिल रहा होगा। उसके कुछ ही घण्टे बाद सीने में दर्द की शिकायत पर उन्हें अस्पताल ले जाया गया और देश ने एक जुनूनी पर्यावरणविद् खो दिया।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma )

     

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.