जुनैद की हत्या चिंताजनक क्यों?
गाँव कनेक्शन | Jul 16, 2017, 08:20 IST
इस साल के पहले छह महीने में भीड़ से मारे जाने की 20 से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं। लेकिन 22 जून को दिल्ली से मथुरा जा रहे 15 साल के जुनैद की हत्या का मामला ऐसा बना जैसा पहले कोई नहीं बना था। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं हुआ कि उसकी उम्र कम थी और ईद के लिए खरीदारी करके वह वापस अपने घर जा रहा था।
यह इसलिए हुआ क्योंकि वह मुस्लिम था और एक मुसलमान के तौर पर वह पहचान में आ रहा था। यही जुनैद की हत्या से जुड़ा सबसे चिंताजनक पहलू है, क्या कोई मुस्लिम है या वैसा दिखता है तो उसकी हत्या कर दी जाएगी, अब तक ऐसी हत्याओं को पवित्र गाय के प्रति प्रेम के नाम पर सही ठहराया जाता रहा है। जब गौरक्षा के नाम पर ऐसे मामलों की शुरुआत हुई थी तो उस वक्त ही अंदेशा था कि यह बढ़ता हुआ जुनैद जैसे मामलों पर पहुंच जाएगा। गाय और गोमांस के उपभोग के विषय का इस्तेमाल तो सिर्फ हमला करने के लिए किया गया। इसके आधार पर न सिर्फ जुबानी जंग हुई बल्कि लोगों को मार भी दिया गया।
जुनैद की हत्या के कई सबक हैं। अपने भाई के साथ वह वही काम कर रहा था जो एक सामान्य भारतीय करता है। खरीदारी, लोकल ट्रेन से यात्रा करना और अपने काम से काम रखना। लेकिन उसे ये भी नहीं करने दिया गया। सीट को लेकर हुए विवाद ने नफरत वाले अपराध का रूप ले लिया और जुनैद और उसके भाई को बीफ खाने वाला कहा गया, उन्हें पाकिस्तानी कहा गया, उनकी टोपी खींची गई, उनकी दाढ़ी खींची गई और इसके बाद भीड़ ने उनकी पिटाई शुरू की और अंत में उन पर चाकू से हमले किए। अन्य मामलों में गौरक्षकों की पहचान हो गई थी लेकिन इस मामले में कोई ऐसा समूह शामिल नहीं था।
यह भी चिंताजनक है कि ट्रेन के उस डिब्बे में कोई भी ऐसा आदमी नहीं था जिसने जुनैद और उसके भाई पर हो रहे हमलों को रोकने की कोशिश की। इससे भी बुरा यह है कि जब भीड़ ने खून से लथपथ जुनैद और उसके भाई से ट्रेन से उतार दिया तो वहां मौजूद तकरीबन 200 लोगों में से किसी ने एंबुलेंस बुलाने या पुलिस को फोन करने जैसी जरूरी मदद नहीं की। अपराध के प्रति इस चुप्पी और आम लोगों में फैली ऐसी वैमनस्यता को अगर खत्म नहीं किया गया तो ऐसे कई और जुनैद को इसी तरह से निशाना बनाया जाएगा।
28 जून को ‘नॉट इन माय नेम’ के बैनर तले देश के कई जगहों से आए प्रदर्शनकारियों ने इस चुप्पी को तोड़ने की कोशिश की। उम्मीद के अनुरूप ऐसे प्रदर्शनों को शहरी, संभ्रात और निष्प्रभावी कहकर खारिज किया जाता है। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि इसमें कोई राजनीतिक दल नहीं था बल्कि स्वतः स्फूर्त ढंग से लोग सामने आए और उन्होंने लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की मांग की।
इस पर सवाल उठाए जा रहे हैं कि ऐसे विरोध प्रदर्शन तब ही क्यों होते हैं जब किसी मुस्लिम की हत्या होती है, तब क्यों नहीं होता जब किसी किसान की मौत होती है, सेना का कोई अधिकारी कश्मीर में मारा जाता है या फिर किसी दलित की हत्या होती है। अभी के समय में इनमें से कुछ सवाल थोड़े प्रासंगिक हो सकते हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि जो लोग चुप्पी साधे हुए थे, वे बाहर निकलकर कुछ बोल रहे हैं। इससे विरोध की अहमियत का पता चलता है, असहमति की प्रासंगिकता का पता चलता है और एकजुटता की जरूरत का अंदाज होता है।
यह पूरी तरह से संभव है कि बैनर लेकर निकलने वाले कुछ लोग भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भारत को अंततः हिंदू राष्ट्र बनाने के एजेंडे के तहत चलाए जा रहे अभियानों को नहीं रोक पाएं। इसके लिए तो राजनीतिक प्रतिक्रिया की जरूरत है जो अभी की विपक्ष की स्थिति को देखते हुए संभव नहीं लग रहा। दलितों, किसानों और अन्य वर्गों की ओर से किए जा रहे विरोध-प्रदर्शन बेहद अहम हैं और इन सबको एक साथ आने की जरूरत है। इसके बावजूद यह समझना होगा कि इन प्रदर्शनों की प्रासंगिकता सिर्फ सफल राजनीतिक नतीजों से नहीं आंकी जाए। लोकतंत्र में या तानाशाही व्यवस्था में लोग अपनी बात इस उम्मीद के साथ कहते हैं कि उन्हें सुना जाएगा। चाहे सरकार उन्हें चुप कराने की कोशिशें क्यों न कर रही हो।
अभी की स्थिति यह है कि अगर कोई भी हिंदू भारत की परिकल्पना से अलग राय रखता है तो उसे नहीं छोड़ा जाएगा। दीर्घावधि वाली इस योजना का क्रियान्वयन इस तरह से किया जा रहा है कि संघ से कभी भी जुड़े नहीं रहने वाले हिंदुओं को भी लगने लगा है कि मुसलमानों के खिलाफ जो हमले हो रहे हैं, वे ठीक हैं। जुनैद की हत्या से यही संदेश निकलता है। नफरत की राजनीति भारत को रसातल में ले जा रही है जहां कानून का पालन करने वाले लोगों को अपनी और अपने बच्चों की जान बचाने की चिंता करनी होगी। कुछ साल पहले सिखों को ऐसे ही निशाना बनाया जा रहा था। दलितों और पूर्वोत्तर के लोगों पर तो लगातार ही हमले हुए हैं।
कश्मीरी लोगों को अपने राज्य से बाहर यह साबित करना पड़ता है कि वे आतंकवादी नहीं हैं। अब मुसलमानों को गौ मांस खाने वाला कहकर अलग-थलग किया जा रहा है। इसका विरोध किया जाना चाहिए और हर तरह के विरोध का स्वागत किया जाना चाहिए। हिंदू राष्ट्र तब अपरिहार्य बन जाएगा जब इससे अलग राय रखने वाले लोग चुपचाप बैठे रहेंगे।
(यह लेख इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली से लिया गया है।)
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यह इसलिए हुआ क्योंकि वह मुस्लिम था और एक मुसलमान के तौर पर वह पहचान में आ रहा था। यही जुनैद की हत्या से जुड़ा सबसे चिंताजनक पहलू है, क्या कोई मुस्लिम है या वैसा दिखता है तो उसकी हत्या कर दी जाएगी, अब तक ऐसी हत्याओं को पवित्र गाय के प्रति प्रेम के नाम पर सही ठहराया जाता रहा है। जब गौरक्षा के नाम पर ऐसे मामलों की शुरुआत हुई थी तो उस वक्त ही अंदेशा था कि यह बढ़ता हुआ जुनैद जैसे मामलों पर पहुंच जाएगा। गाय और गोमांस के उपभोग के विषय का इस्तेमाल तो सिर्फ हमला करने के लिए किया गया। इसके आधार पर न सिर्फ जुबानी जंग हुई बल्कि लोगों को मार भी दिया गया।
जुनैद की हत्या के कई सबक हैं। अपने भाई के साथ वह वही काम कर रहा था जो एक सामान्य भारतीय करता है। खरीदारी, लोकल ट्रेन से यात्रा करना और अपने काम से काम रखना। लेकिन उसे ये भी नहीं करने दिया गया। सीट को लेकर हुए विवाद ने नफरत वाले अपराध का रूप ले लिया और जुनैद और उसके भाई को बीफ खाने वाला कहा गया, उन्हें पाकिस्तानी कहा गया, उनकी टोपी खींची गई, उनकी दाढ़ी खींची गई और इसके बाद भीड़ ने उनकी पिटाई शुरू की और अंत में उन पर चाकू से हमले किए। अन्य मामलों में गौरक्षकों की पहचान हो गई थी लेकिन इस मामले में कोई ऐसा समूह शामिल नहीं था।
यह भी चिंताजनक है कि ट्रेन के उस डिब्बे में कोई भी ऐसा आदमी नहीं था जिसने जुनैद और उसके भाई पर हो रहे हमलों को रोकने की कोशिश की। इससे भी बुरा यह है कि जब भीड़ ने खून से लथपथ जुनैद और उसके भाई से ट्रेन से उतार दिया तो वहां मौजूद तकरीबन 200 लोगों में से किसी ने एंबुलेंस बुलाने या पुलिस को फोन करने जैसी जरूरी मदद नहीं की। अपराध के प्रति इस चुप्पी और आम लोगों में फैली ऐसी वैमनस्यता को अगर खत्म नहीं किया गया तो ऐसे कई और जुनैद को इसी तरह से निशाना बनाया जाएगा।
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इस पर सवाल उठाए जा रहे हैं कि ऐसे विरोध प्रदर्शन तब ही क्यों होते हैं जब किसी मुस्लिम की हत्या होती है, तब क्यों नहीं होता जब किसी किसान की मौत होती है, सेना का कोई अधिकारी कश्मीर में मारा जाता है या फिर किसी दलित की हत्या होती है। अभी के समय में इनमें से कुछ सवाल थोड़े प्रासंगिक हो सकते हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि जो लोग चुप्पी साधे हुए थे, वे बाहर निकलकर कुछ बोल रहे हैं। इससे विरोध की अहमियत का पता चलता है, असहमति की प्रासंगिकता का पता चलता है और एकजुटता की जरूरत का अंदाज होता है।
यह पूरी तरह से संभव है कि बैनर लेकर निकलने वाले कुछ लोग भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भारत को अंततः हिंदू राष्ट्र बनाने के एजेंडे के तहत चलाए जा रहे अभियानों को नहीं रोक पाएं। इसके लिए तो राजनीतिक प्रतिक्रिया की जरूरत है जो अभी की विपक्ष की स्थिति को देखते हुए संभव नहीं लग रहा। दलितों, किसानों और अन्य वर्गों की ओर से किए जा रहे विरोध-प्रदर्शन बेहद अहम हैं और इन सबको एक साथ आने की जरूरत है। इसके बावजूद यह समझना होगा कि इन प्रदर्शनों की प्रासंगिकता सिर्फ सफल राजनीतिक नतीजों से नहीं आंकी जाए। लोकतंत्र में या तानाशाही व्यवस्था में लोग अपनी बात इस उम्मीद के साथ कहते हैं कि उन्हें सुना जाएगा। चाहे सरकार उन्हें चुप कराने की कोशिशें क्यों न कर रही हो।
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कश्मीरी लोगों को अपने राज्य से बाहर यह साबित करना पड़ता है कि वे आतंकवादी नहीं हैं। अब मुसलमानों को गौ मांस खाने वाला कहकर अलग-थलग किया जा रहा है। इसका विरोध किया जाना चाहिए और हर तरह के विरोध का स्वागत किया जाना चाहिए। हिंदू राष्ट्र तब अपरिहार्य बन जाएगा जब इससे अलग राय रखने वाले लोग चुपचाप बैठे रहेंगे।
(यह लेख इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली से लिया गया है।)
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