किसान क्या खिलाए इतनी गायों को, पूछिए गोरक्षकों से

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हमारी सरकार ने गायों को खरीदने और बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया था तो मद्रास उच्च न्यायालय ने उस आदेश पर रोक लगाई और उच्चतम न्यायालय ने उस रोक को बरकरार रखा है। इस बात में सन्देह नहीं कि भारतीय समाज में गाय किसानों को मां की तरह पालती थी लेकिन बेचना खरीदना तो बहुत पुरानी परम्परा है। अब उसके दूध की कद्र नहीं, बछड़ों का काम नहीं, चारा और चरागाह बचे नहीं, गोबर और गोमूत्र जरूर देती हैं प्लास्टिक और कागज खाकर। बुन्देलखंड जैसी जगहों पर किसान के लिए गोवंश उसी तरह हो गया है जैसे नीलगाय और बन्दर। काश ये गोरक्षक किसान के दर्द को समझते और गायों के लिए अनाथाश्रम बनवाते।

कहते तो हैं कि गाय के दूध में आयोडीन की मात्रा अधिक होती है और वह आसानी से पचता है फिर भी लोग भैंस का ही दूध ढूंढते हैं। गाय के दूध में तीन से चार प्रतिशत फैट होता है जबकि भैंस के दूध में छह प्रतिशत के लगभग इसलिए किसान का गाय का दूध सस्ता बिकता है डेयरी पर। पुराने समय में गोवंश पर कृषि निर्भर थी। अब खेतों की जुताई और सामान की ढुलाई में भी बैलों का उपयोग नहीं रहा। अब दूध न देने वाली गायें और बछड़े छुट्टा छोड़ दिए जाते हैं और वो खेतों की फसल बर्बाद करते हैं। शहर के लोग या साधु-संत गोवंश की बात तो करते हैं लेकिन वे किसान का दर्द नहीं समझते। वह गोवंश को मार भी नहीं सकता और पाल भी नहीं सकता, बस एक खेत से दूसरे खेत में भगा सकता है।

पिछले वर्षों में पशुओं से प्राप्त ऊर्जा का अंश 45 प्रतिशत से घटकर 16 प्रतिशत रह गया है। गोवंश पर खेती की निर्भरता समाप्त हो गई है और उनमें से अधिकांश जानवर अनाथ हो गए हैं। बैलगाड़ी से माल पहुंचाने में समय अधिक लगता है इसलिए वाहनों से कम्पटीशन में टिक नहीं पाई। वैज्ञानिकों ने बैलगाड़ी में बालबियरिंग, अतिरिक्त पहिया, डनलप टायर आदि लगाकर खूब रिसर्च की परन्तु पाया कि अब इसमें कोई सुधार नहीं हो सकता। अब तो किसान बैलगाड़ी, हल, रहट, विविध प्रकार के कोल्हू से मुंह मोड़ चुका है। नेशलन डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड से कराए गए सर्वेक्षण में पाया गया है कि गायों की आबादी घट रही है जब कि भैंसों की आबादी बढ़ रही है।

गोवंश के प्रति सम्मान शुद्ध रूप से आर्थिक था न कि भावनात्मक, अहिंसात्मक अथवा दार्शनिक। यदि अहिंसा की बात होती तो बकरा, भेड़, मछली, मुर्गा आदि के प्रति भी वही लगाव होता जो गाय के प्रति रहा है। आज की तारीख में यदि दरवाजे पर देशी गाय और दुधारू भैंस बंधी है तो स्वाभाविक रूप से पौष्टिक आहार भैंस को खिलाते हैं। देश के बहुत से लोगों के लिए गोमाता का जयकारा लगाना ही पर्याप्त है। चारा और चरागाहों पर भूमाफियाओं का कब्जा है, गोशालाओं के प्रबंधन में निर्बाध भ्रष्टाचार है, पशु चिकित्सा भगवान भरोसे तो गाय का जयकारा बोलने से क्या होगा।

मौजूदा परिस्थितियों में गाय की भूमिका दूसरे पशुओं से भिन्न नहीं हो सकती। हार्वेस्टर से खेती होती है और भूसा खेतों में रह जाता है, अनाज बोने के लिए जमीन कम है इसलिए चरागाह बचे नहीं और जो चारा है भी वह दुधारू जानवरों को पहले देना होता है। गायें जो अशक्त हैं, दूध नहीं देतीं या नस्ल सुधार की सम्भावना भी नहीं उनका क्या किया जाए। बूढ़े मां-बाप जो काम नहीं कर सकते उनसे गाय की तुलना करना आसान हो सकता है परन्तु प्रासंगिक नहीं।

गोभक्तों औार गोरक्षकों से पूछिए कितनों के दरवाजे पर गाय बंधी है। अधिकांश से उत्तर न में मिलेगा। अब किसी गाँव में जाइए और गिनिए वहां कितनी गाएं हैं। किसान गाय की बछिया तो फिर भी पाल लेता है लेकिन बछड़ों को दूर छोड़ आता है जहां वह दूसरों के खेतों को चरते हैं नीलगाय की तरह। पिछले दो दशकों में कामकाजी पशुओं की आबादी करीब एक तिहाई घट गई है। लकड़ी से हल बनाने वाले बढ़ई और हल की नसी यानी लोहे का नुकीला फार पीटने वाले लेाहारों को भी दूसरे काम ढूंढने पड़ रहे हैं। आवश्यकता है गोवंश को भारतीय जीवन में प्रासंगिक बनाने की अथवा गोरक्षा का हल्ला बन्द करने की।

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