एनडीटीवी पर प्रतिबंध अनुचित के साथ अशुभ संकेत है

Dr SB MisraDr SB Misra   4 Nov 2016 10:24 PM GMT

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एनडीटीवी पर प्रतिबंध अनुचित के साथ अशुभ संकेत हैग्रैफिक्स: कार्तिकेय उपाध्याय

सरकार द्वारा एनडीटीवी पर नौ नवम्बर को एक दिन के लिए लगाया गया प्रतिबंध नरेन्द्र मोदी सरकार और पार्टी के लिए आइना है कि आप की कथनी और करनी में कोई तालमेल नहीं। मोदी जब गांधी के मार्ग पर चलने की बात कहते हैं तो शायद भूल जाते हैं कि गांधी का व्यक्तित्व मनसा, वाचा, कर्मणा एक था। केजरीवाल और राहुल गांधी की बातों का कोई महत्व नहीं, लेकिन यहां तो ऐसी पार्टी की सरकार है जिसके बड़े नेता दीनदयाल उपाध्याय, केआर मलकानी, अटल बिहारी वाजपेयी, तरुण विजय और आडवाणी न केवल ईमानदार पत्रकारिता करते थे, बल्कि प्रेस की आजादी के लिए बराबर संघर्ष करते रहे। यदि मोदी सरकार मीडिया से यह अपेक्षा करे कि वह सरकार की लाइन चले तो मोदी युग और इन्दिरा गांधी के आपातकाल में अन्तर क्या रह जाएगा।

सवाल यह नहीं है कि चैनल ने गोपनीय और सेंज़िटिव जानकारी को सार्वजनिक किया था अथवा नहीं, सवाल यह है क्या प्रतिबंध के अलावा दूसरा उपाय नहीं था। भाजपा सरकार चलाने वालों को याद दिलाने की जरूरत है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं का निशान था रोटी और कमल का फूल, जिसमें रोटी तो गरीबी पर विजय का और कमल आजादी का निशान था। हमारे देश के गरीब भी स्वाधीनता को उतना ही महत्व देते हैं जितना भूख मिटाने पर। जब इन्दिरा गांधी ने आपातकाल लगाया और अखबारों को (तब टीवी नहीं था) अपने सम्पादकीय सरकार से पास कराने होते थे, उन्हीं दिनों रामनाथ गोयनका ने सम्पादकीय की जगह खाली छोड़ दी थी लेकिन सरकार के पास क्लियरेंस के लिए नहीं भेजा।

कुछ लोगों को मोदी में तानाशाही नज़र आती है। सच कहूं तो निःस्वार्थ भाव की तानाशाही प्रवृत्ति यदि देशहित में हो तो बुरी नहीं, जैसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस में थी। लेकिन तब हम गांधी के मार्ग पर नहीं चल सकते और सबका साथ वाली बात नहीं कह सकते। चीन ने तेजी से तरक्की की है, लेकिन उसने सब का साथ लेकर ऐसा नहीं किया। जो लोग जानते हैं वे इस बात को प्रमाणित कर सकते हैं। चीन के लोगों ने आजादी देखी नहीं तब वे क्या जाने आजादी कैसी होती है, उन्हें तो रोटी-कपड़ा से मतलब।

मोदी ने काफी मशक्कत से दो साल में कुछ गुडविल अर्जित की है, लेकिन यदि सरकार की कथनी और करनी में भेद आया और उसकी विश्वसनीयता चली गई तो दोबारा आसानी से नहीं आएगी। वैसे ही तमाम लोग शंकालु हैं कि मोदी सरकार संघ की लाइन पर जा रही है, भले ही ऐसा न हो। अटल जी ने विश्वसनीयता हासिल कर ली थी जो आखिर तक बनी रही। इसके पहले लाल बहादुर शास्त्री पर देश को पूरा भरोसा था कि उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं आएगा। जब इन्दिरा गांधी की सरकार की विष्वसनीयता गई तो जयप्रकाश नारायण की बूढ़ी हड्डियों में भी क्रोध भरा जोश आ गया था। भारत समय आने पर चुप नहीं बैठता।

चाटुकार मीडिया कभी भी सरकार का मित्र नहीं हो सकता, तभी तो कहा गया है निन्दक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। यदि चाटुकारों ने इन्दिरा गांधी से यह न कहा होता कि आप जीत जाएंगी तो वह 1977 का चुनाव नहीं करातीं। हां यदि मीडिया द्वारा गैरजिम्मेदाराना रिपोर्टिंग हो तो उसके लिए कानून बने हैं जिनका सहारा लेना चाहिए न कि इन्टरमिनिस्टीरियल कमिटी के सुझावों का। एडिटर्स गिल्ड ऐसी ही एक संस्था है जिसे गैरजिम्मेदाराना रिपोर्टिंग का प्रकरण सौंपा जा सकता है।

जब विद्वानों ने अपने तमगे लौटाने आरम्भ किए थे और आजादी पर अंकुश का इल्जाम लगाया था सरकार पर तो लोगों ने अधिक गम्भीरता से नहीं लिया था। लेकिन यदि सरकार ने मीडिया पर प्रतिबंध का रास्ता अपनाना आरम्भ किया तो लोग चौकन्ने हो जाएंगे। मैं समझता हूं मोदी ऐसा नहीं चाहेंगे।

 

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