विश्व पर्यावरण दिवस या विष पर्यावरण दिवस?

पर्यावरण जैसे गंभीर मुद्दे पर इससे ज्यादा गहन चिंतन साल के किसी और दिन नहीं किया जाता है। हज़ारों की तादाद में वृक्षारोपण किए जाते हैं, परिचर्चाओं का आयोजन किया जाता है

Deepak AcharyaDeepak Acharya   5 Jun 2018 7:17 AM GMT

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विश्व पर्यावरण दिवस या विष पर्यावरण दिवस?

र साल 5 जून को दुनिया भर के देश विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं और दुनिया भर में कोशिशें की जाती है कि लोगों को अपने आस-पास के पर्यावरण के प्रदूषित होने से बचाने की सीख दी जाए। कई बड़ी-बड़ी योजनाओं और विषय से जुड़े आंकड़ों को अखबारों, मीडिया और तमाम संचार माध्यमों से आमजनों तक पहुंचाया जाता है।

पर्यावरण जैसे गंभीर मुद्दे पर इससे ज्यादा गहन चिंतन साल के किसी और दिन नहीं किया जाता है। हज़ारों की तादाद में वृक्षारोपण किए जाते हैं, परिचर्चाओं का आयोजन किया जाता है और टीवी पर भी कई ऐसे कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं जो पर्यावरण चिंतन पर आधारित होते हैं, लेकिन पर्यावरण संतुलन, पर्यावरण संरक्षण जैसी सीख किन्हें देनी चाहिए?

उन्हें जो पर्यावरण के साथ तालमेल बनाकर सदियों से वनों और सुदूर ग्रामीण अंचलों में बसे हैं या उन्हें जो पर्यावरण की धत्त करके खुद को ज्यादा विकसित और सभ्य साबित करने में लगे हैं? भई, पर्यावरण और प्रकृति के सजग रक्षक सही मायने में वनवासी ही हैं। आज की सबसे बड़ी जरूरत ये है कि वनवासियों की समझ और ज्ञान को आधुनिकता से एक हद तक दूर रखा जाए।

आवश्यकता यह भी है कि प्रकृति से जुड़े वनवासियों के ज्ञान का संकलन समय रहते किया जाए। आधुनिकता जैसे भ्रम ने या कहिए शहरीकरण ने हमारे समाज में जिस कदर पैर पसारने शुरू किए हैं, ना सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि सारी दुनिया के वनवासी एक अनकहे और अनजाने से खतरे के चौराहे पर हैं, जहां इनके विलुप्त तक हो जाने की गुंजाइश है।

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वनवासियों का वनों और प्रकृति से दूर जाने या खो जाने से आदिकाल से सुरक्षित ज्ञान का भंडारण खत्म ही हो जाएगा। विश्व पर्यावरण दिवस पर सारी दुनिया के पर्यावरणविद पर्यावरण संरक्षण को लेकर चिंता करते हैं, शहरों में रैलियां निकाली जाएंगी और ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दों पर बहस आदि का आयोजन भी होगा। मगर शायद ही कहीं पर्यावरण के सच्चे रक्षकों यानी वनवासियों के लिए कोई वाकई फिक्रमंदी से बात करेगा।

हजारों साल से वनवासियों ने वनों के करीब रहते हुए जीवन जीने की सरलता के लिए आसान तरीकों, नव प्रवर्तनों और कलाओं को अपनाया है। आदिवासियों ने मरुस्थल में खेती करने के तरीके खोज निकाले, तो कहीं जल निमग्न क्षेत्रों में भी अपने भोजन के लिए अन्न व्यवस्था कर ली। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बगैर वनवासियों ने अपने जीवन को सरल किया है।

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इनका परंपरागत ज्ञान हजारों साल पुराना है, आज भी पर्यावरण और मौसम परिवर्तनों का अनुमान सिर्फ आसमान पर नजर मार कर लगाने वाले आदिवासी शहरी लोगों के लिए कौतुहल का विषय हो सकते हैं पर इनके ज्ञान की संभावनाएं सीमित नहीं है। पेसिफिक आईलैण्ड के आदिवासियों के हुनर का जिक्र किया जाए तो शायद कुछ हद तक हम समझ पाएंगे पारंपरिक ज्ञान में कितना दम है और इसे खो देने मात्र से हमें कितना नुकसान होगा।

आसमान में उड़ने वाली तितलियों को देखकर पेसिफिक आईलैण्ड के आदिवासी अनुमान लगा सकते हैं, उस दिन शाम तक मौसम कैसा रहेगा? बरसात होगी या धूप खिली रहेगी? या तेज आंधी चलेगी। मौसम के पूर्वानुमान के लिए की गई इनकी भविष्यवाणियां सौ फीसदी सही साबित होती हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इस तरह का ज्ञान विलुप्त होने की कगार पर है क्योंकि यहां पर पर्यटन विकसित होने के बाद बाहरी लोगों के कदम पड़ने शुरू हो चुके हैं, यहां शहरीकरण का आगमन हो चुका है।

आदिवासियों के बच्चे बाहरी दुनिया से रूबरू हो रहे हैं और युवा अपना घर छोड़कर रोजगार की तलाश के नाम पर आईलैण्ड छोड़कर जा रहे हैं। हालांकि पिछ्ले एक दशक में इस क्षेत्र से आदिवासियों के पलायन ने तेजी पकड़ रखी है लेकिन कुछ संस्थाओं और आदिवासी बुजुर्गों ने अब तक आस नहीं छोड़ी है। वास्तव में जब-जब विकास नाम का राक्षस सुदूर इलाकों में प्रवेश करता है, वहां की स्थानीय परंपराओं का विघटन भी शुरू हो जाता है।

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सदियां इस बात की गवाह है कि जब-जब किसी बाहरी सोच या रहन-सहन ने किसी वनवासी क्षेत्र या समुदाय के लोगों के बीच प्रवेश किया है, आदिवासियों की संस्कृति पर इसका सीधा असर हुआ है। विकास के नाम पर वनवासियों की जमीनें छीनी गई, बांध बनाने के नाम पर इन्हें विस्थापित किया गया और दुर्भाग्य की बात है कि ये सारे विकास के प्रयास आदिवासी विकास के नाम पर किए जाते रहे हैं पर वास्तव में ये सब कुछ हम बाहरी दुनिया के लोगों के हित के लिए होता है ना कि आदिवासियों के लिए।

जंगल में सदियों से रहने वाले आदिवासी जंगल के पशुओं के लिए खतरा नहीं हो सकते, जानवरों के संरक्षण, जंगल को बचाने के नाम पर जंगल में कूच करने वाली एजेंसियां जंगल के लिए ज्यादा बड़ा खतरा हैं। शहरी लोग पेड़-पौधे रोपित करके विश्व पर्यावरण दिवस जरूर मना लेंगे लेकिन अच्छा तो ये होगा कि जितने वृक्ष बचे हैं उन्हें बचाने की पहल पहले होनी चाहिए क्योंकि वृक्ष इतने सक्षम हैं कि वो अपनी संतति तैयार कर सकते हैं, बशर्ते हम इंसान अपनी सोच का दायरा बढ़ाएं, सड़कों की चौड़ाई का दायरा कम करें, अपनी जरूरतों को संतुलित करें।

गाँवों को शहर बनाने की प्रक्रिया पर बार-बार चिंतन करें और गाँवों के शहर बनने से होने वाले दूरगामी परिणामों को समझने किसी महानगर जरूर होकर आएं। फिर ठीक लगे तो विश्व पर्यावरण दिवस मनाएं। वर्ना हर दिन तो विष पर्यावरण दिवस है ही।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)


  

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