आईआईटी दिल्ली के वैज्ञानिकों की टीम ने विकसित की आँख के फंगल इन्फेक्शन उपचार की नई विधि
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, मोनोकुलर ब्लाइंडनेस (एक आँख का अंधापन) का एक बड़ा कारण फंगल केराटॉसिस को माना जाता है। यह बीमारी विकासशील देशों में अधिक देखी गई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित जर्नल लैंसेट में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार दक्षिण एशिया में प्रति एक लाख ऐसे मामलों में 50% से अधिक मामले भारत में दर्ज किए जाते हैं।
India Science Wire 3 July 2021 6:57 AM GMT
शोधकर्ताओं की टीम (बायें से)- डॉ. शिखा यादव, प्रोफेसर अर्चना चुग, सुजिथ्रा शंकर, हर्षा रोहिरा, डॉ. सुष्मिता जी. शाह। फोटो: @iitdelhi/Twitter
भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी खेती-किसानी से जुड़ा है। खेती-किसानी के दौरान कई किस्म के जोखिम भी होते हैं। इन्हीं जोखिमों में से एक आँख में होने वाला फंगल इन्फेक्शन है। इसके कारण खेतिहर लोगों को अन्य तकलीफों के अलावा कई बार एक आँख की रौशनी भी गंवानी पड़ती है।
अमूमन किसी फसल के पत्ते या इसके किसी अन्य भाग के संपर्क में आने से यह फंगल इन्फेक्शन होता है। इसे फंगल केराटॉसिस भी कहते हैं। इससे बचाव के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली के वैज्ञानिकों की टीम ने एक ऐसी एंटी फंगल प्रविधि विकसित की है, जो फंगल आई इनफेक्शन के विरुद्ध प्रभावी सिद्ध हो सकती है।
फंगल केराटॉसिस आंख में कॉर्निया वाले स्थान को फंगल संक्रमण का शिकार बनाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, मोनोकुलर ब्लाइंडनेस (एक आँख का अंधापन) का एक बड़ा कारण फंगल केराटॉसिस को माना जाता है। यह बीमारी विकासशील देशों में अधिक देखी गई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित जर्नल लैंसेट में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार दक्षिण एशिया में प्रति एक लाख ऐसे मामलों में 50% से अधिक मामले भारत में दर्ज किए जाते हैं।
इसमें मुश्किल बात यह भी है कि केराटॉसिस के लिए उपलब्ध दवाएं अभी भी अधिक प्रभावी नहीं हैं। दरअसल ये दवा बहुत प्रभावी तरीके से शरीर में दाखिल नहीं हो पाती हैं। साथ ही इसकी रक्त में अंतिम रूप से पहुँचने वाली मात्रा (बायोअवेलेबिलिटी) को लेकर भी बहुत स्पष्टता नहीं हैं। अमेरिकी दवा नियामक खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा स्वीकृत नेटामाइसिन को केराटॉसिस के उपचार में प्रयुक्त किया जाता है। हालांकि उसकी लगातार खुराक देने की आवश्यकता से यह पीड़ित मरीज के लिए बहुत असहजता उत्पन्न करती है।
ऐसे में आईआईटी दिल्ली की टीम द्वारा विकसित की गयी नई एंटी-फंगल रणनीति का महत्व बढ़ जाता है। इस टीम ने नेटामाइसिन पेनेट्रेशन को और बेहतर बनाने के लिए एमिनोएसिड मिश्रण (पेप्टाइड) आधारित एंटी फंगल स्ट्रेटजी विकसित की है। इस पद्धति में एंटीबॉडी के स्थान पर एमिनो एसिड के मिश्रण का उपयोग किया जाता है जो सीधे प्रभावित कोशिकाओं पर प्रहार कर उन्हें निष्क्रिय कर देता है। इस नई विकसित रणनीति ने प्रयोगशाला में उत्साहजनक परिणाम दिए हैं।
शोध टीम का नेतृत्व संस्थान के कुसुमा स्कूल ऑफ बायो लॉजिकल साइंसेज की प्रोफेसर अर्चना चुग ने किया। इस अध्ययन में उन्हें अपनी पीएचडी छात्रा डॉ. आस्था जैन, हर्षा रोहिरा और सुजिथ्रा शंकर का भी सहयोग मिला। प्रो. चुग की टीम को डॉ. सीएम शाह मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट एंड आई लाइफ मुंबई की कॉर्निया विशेषज्ञ डॉ. सुष्मिता जी. शाह से भी सहयोग मिला।
प्रोफेसर अर्चना चुग कहती हैं, " ये पेप्टाइड्स कोशिकाओं में अणुओं को ले जाने की अपनी विशिष्ट क्षमताओं के लिए जाने जाते हैं। ऐसे में जब अपेक्षाकृत कमजोर नेटामाइसिन को पेप्टाइड के साथ जोड़ा जाता है तो यह मिश्रण बेहतर एंटीफंगल परिणाम दर्शाता है।'
इस परीक्षण के दौरान पाया गया कि खरगोशों में नेटामाइसिन की तुलना में नई दवा 5 गुना तक अधिक प्रवेश करने में सक्षम हुई। जहां पारंपरिक नेटामाइसिन 13% तक प्रभावी माना जाता रहा है, उसकी तुलना में नया समाधान 44% तक प्रभावी पाया गया।
#IITDelhi scientist led Research Team Develops Novel Antifungal Strategy for fungal infection of cornea in eyes or fungal keratitis.
— IIT Delhi (@iitdelhi) July 2, 2021
Press Release- https://t.co/eH3qWMzOSZhttps://t.co/eH3qWMzOSZ pic.twitter.com/gfKLr9X59T
जानवरों पर किया गया अध्ययन नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल, नोएडा में एनिमल फैसिलिटी की प्रमुख डॉ. शिखा यादव के सहयोग से संपन्न हुआ। इस शोध को आरंभिक स्तर पर जैव प्रौद्योगिकी विभाग और बाद में नैनो मिशन से वित्तीय मदद मिली, जो भारत सरकार में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत आते हैं। इसके उपयोग को लेकर प्रोफेसर चुग आश्वस्त हैं। उनका कहना है, 'यह मेक इन इंडिया पहल के तहत की गई एक बेहतरीन खोज है। हालांकि इसकी राह में कुछ बाधाएं अभी भी हैं और उनके बाद यह मरीजों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। जानवरों पर इसके प्रभावी परिणाम आने के बाद हमें उम्मीद है कि क्लिनिकलट्रायल्स के लिए जैव प्रौद्योगिकी जगत और दवा उद्योग इसे लेकर उत्सुकता दिखाएंगे।'
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