हर्बल दवाओं की ओर बढ़ा रुझान

डॉ दीपक आचार्य | Feb 19, 2017, 16:08 IST
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रासायनिक और संश्लेषित दवाओं के आगमन के बाद एक हद तक हर्बल दवाओं और पारंपरिक ज्ञान आधारित नुस्खों के प्रचलन पर खासा प्रभाव पड़ा है लेकिन अब लोगों को महंगी रसायन आधारित संश्लेषित दवाओं के दुष्परिणामों, साइड इफेक्ट्स और रासायनिक प्रदूषण जैसे मुद्दों की समझ भी आने लगी है। लोगों में हर्बल दवाओं और पारंपरिक हर्बल ज्ञान पर आधारित नुस्खों के फायदों की समझ वापस आने लगी है और इन दवाओं की खासियत भी यह है कि सस्ती और आसानी से उपलब्ध इन दवाओं को कोई भी अपना सकता है।

पेड़-पौधों की सहायता से तमाम रोगों का निवारण और उनकी जानकारी अनंतकाल से वनवासियों के जीवन का हिस्सा रहा है। पौधों के तमाम अंग जैसे तना, जड़, पत्तियां, छाल, बीज, फूल, फल आदि अनेक तरह के रोगों के निवारण के लिए वनवासियों द्वारा उपयोग में लाए जाते हैं। लोग इस तरह की दवाओं को अब ‘नेचुरल मेडिसिंस’ के तौर पर देखते हैं। अब अपनी बेहतर सेहत के लिए लोग ताजी हरी जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो कुछ लोग इन जड़ी-बूटियों को संशोधित करके कैप्सूल और टेबलेट्स के रूप में बाजार में ला रहे हैं।

पारंपरिक हर्बल ज्ञान नई दवाओं की खोज के लिए एक प्रमुख स्रोत रहा है लेकिन 20वीं शताब्दी में आण्विक जीव विज्ञान और औषधि विज्ञान के कदम रखने के बाद लोक-परंपरागत ज्ञान को पीछे धकेल दिया गया लेकिन वो दौर भी जल्द आ गया जब आधुनिक विज्ञान को पारंपरिक हर्बल ज्ञान की मदद मिली और कई उत्पाद बाजार में आने लगे। आधुनिक विज्ञान की सहायता से एक दवा को बाजार में लाने के लिए जहां 10 से 15 साल और लाखों की मोटी रकम लग जाती है, वहीं यदि पारंपरिक हर्बल ज्ञान को एक “शार्ट-कट टूल” की तरह समझा जाए और इस पर आधारित फॉर्मूलों पर शोध हो तो काफी सारा समय और खर्चा बचाया जा सकता है।

आधुनिक विज्ञान “क्लीनिकल एक्सपेरिमेंट्स” पर भरोसा करता है जबकि पारंपरिक हर्बल ज्ञान “क्लीनिकल एक्सपीरियन्स” पर आधारित है। इन दोनों का संगम मेडिकल साइंस को नए आयाम तक ले जा सकता है। वनवासियों के परंपरागत हर्बल ज्ञान को विज्ञान के नज़रिए से परखकर हमने टेरांटा (ताकत और रोगप्रतिरोधकता बढ़ाने), डायबिनॉर्म (मधुमेह प्रबंधन), नेमिया (रक्तल्पता), स्टोनोफ (पथरी के लिए) दूधनहर (गाय भैंसों में दूध बढ़ाने के लिए) जैसे उत्पाद भी तैयार किए हैं।

यह प्रयास पूरे औषधि विज्ञान जगत को एक नई दिशा देने में सक्षम दिखाई देता है। पारंपरिक हर्बल जानकारियों को आज भी समाज के एक बड़े तबके द्वारा दकियानूसी विचारों के साथ सोचा और समझा जाता है। इस पर भरोसे की मुहर ठीक तरह से लगी नहीं है, आधुनिक विज्ञान जब पारंपरिक ज्ञान आधारित उत्पादों पर अपनी मुहर लगाता है तो स्वाभाविक है कि लोग इस पर भरोसा करते हैं।

ये उत्पाद ऐसे उदाहरण हैं जो ना सिर्फ वनवासियों बल्कि तमाम वनवासी लोगों की अर्थव्यवस्था और हम सब की बेहतर सेहत के लिए एक मील का पत्थर साबित हुए हैं। अब आवश्यकता है कि देश की तमाम बड़ी रिसर्च एजेन्सियां वनवासियों के पारंपरिक हर्बल ज्ञान को वैज्ञानिक तरीकों से संकलित करें, इसे प्रमाणित करें और उत्पाद के तौर पर बाजार में लाएं ताकि आम जनों तक सस्ते और सुलभ उत्पाद पहुंच सकें।

पारंपरिक ज्ञान को पीछे धकेलने वाले नियमों और कानूनों पर सरकार को चिंतन करना चाहिए, गरीब हर्बल जानकारों को आर्थिक मदद के अलावा ऐसे प्रयास किए जाएं जिनसे इनके ज्ञान को सम्मान भी मिले। हर्बल जानकारों के खानदान से युवाओं और बच्चों को इस ओर आकर्षित करने के लिए सकारात्मक प्रयास जरूरी हैं और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि उन्हें अच्छी शिक्षा, औषधीय पौधों से संबंधित आधुनिक तकनीक और शोधों से अवगत कराया जाए।

(लेखक हर्बल विषयों के जानकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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