नीलेश मिसरा के म‍ंडली के सदस्य ऋत्विक श्रीधर जोशी की लिखी कहानी ‘प्रेम की गुगली’

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नीलेश मिसरा के म‍ंडली के सदस्य ऋत्विक श्रीधर जोशी की लिखी कहानी ‘प्रेम की गुगली’कहानी प्रेम में गुगली

वो कहानियां तो आज तक आप किस्सागो नीलेश मिसरा की आवाज़ में रेडियो और ऐप पर सुनते थे अब गांव कनेक्शन में पढ़ भी सकेंगे। #कहानीकापन्ना में इस बार पढ़िए नीलेश मिसरा के मंडली के सदस्य ऋत्विक जोशी की लिखी कहानी ‘प्रेम में गुगली’

एक बहुत ही प्यारे सपने के बीच में माँ ने आकर मुंह पर पानी के छींटे मार दिए, पर मैं भी ढीठ हूँ। सपना टूटने नही दिया, अपनी चद्दर से मुंह पोंछा और वापस आँखें मीच लीं और सपना लगातार कर गया। सपना बड़ा सुहाना था। बसंत के मौसम में बैंगनी फूलों से सजा हुआ एक रास्ता जिस पर चलते हम दोनों, मैं और वो, वो आज मुझसे कहने वाली है की।

“अरे उठ ना। कितना बेशरम है, पानी मार दिया फिर भी नही उठ रहा।” माँ ने मुझसे मेरा सपना छीन ही लिया। मैंने खीजकर आँख खोली तो माँ को हड़बड़ी करते हुए पाया।

“ये इतना हड़बड़ा क्यूँ रही हो सुबह-सुबह?”

“सुबह?! खिड़की के बाहर देखो, सूरज सिर के ऊपर मिलेगा। हुंह, ग्यारह बजे सुबह हो रही है इनकी। चल मुंह हाथ धोकर बाहर आ जल्दी। तुझे देखने वसुधा चाची आयीं हैं।”

मेरी माँ शहर में बसी हमारी पूरी बिरादरी के हर शख्स को उसकी पूरी जनम कुंडली सहित जानती हैं। ऐसे में उन्हें लगता है की ये जानकारी मुझमें भी आनुवंशिक रूप में आ ही गयी होगी इसलिए बिरादरी के किसी शख्स के बारे में जि़क्र सीधे मुझसे कोई रिश्ता बताकर करती हैं। भले ही रिश्तेदार दूर-दूर तक रिश्ते में ना हो, ठीक इसी तरह ये वसुधा चाची थी।

“मुझसे मिलने? क्यूँ? मैंने क्या किया?” “बाहर आजा चुपचाप बस और ऐसे नंग-धडंग होक मत आना। पैजामा कुरता पहन ले मुंह धोकर। ”

ड्रेस कोड की बात आते ही तुरंत मेरी समझ में आ गया की क्या माजरा है। फिर वही मुझे जांचने किसी लड़की की माँ चली आई होगी। अपने घरवालों को तो मैंने समझा भी लिया पर ये बिरादरी के लड़की वालों को कैसे समझाऊं। लगता है अब बस पम्पलेट ही छपवाने पड़ेंगे। खैर! जाना तो पड़ेगा ही, भले ही बाहर जाकर उस अनजान चाची को इनकार थमा आऊँ। मुंह हाथ धोकर बाहर आया तो, मगर ड्रेस कोड में नही, लूंगी में। ताकि पहला इम्प्रेशन ही गलत पड़े।

“हाँ तो चाची जी प्रणाम, और कैसी हैं? घर में सब।”

सारी औपचारिकता एक सांस में समेट देने के बाद मेरी साँस जो बाहर छूटी थी। वो वापस अन्दर आई ही नही। अनजान वसुधा चाची के साथ उनकी लड़की भी थी।

जिसके कान में हीरे के झूमर जैसे झुमके टिमटिमा रहे थे। जो उसके कान पर लटकती लटों से कभी छिपते तो कभी चमकते। नाक पर चांदी की लौंग। बड़ी अजीब बात थी, उसे देखकर मैं अपने अधूरे सपने में वापस उस बैंगनी फूलों से सजी सड़क पर पहुँच गया।

पर ये पहली बार हो रहा था की कोई शादी की बात छेड़ने आई चाची-मौसी अपनी लड़की को भी साथ लायी हो। उसका नाम जानने का कौतुहल शरीर में दौड़ गया। इस रिश्ते के लिए “हाँ” कहकर शर्माने को तो मैं उसे देखते ही तैयार हो गया था।

“हमारे घर में सब ठीक है बेटा, तुम बताओ। अब तो अच्छे बड़े सीए हो गए हो। हैं, शादी का क्या विचार है?”

उनकी बात सुनकर एक पल तो समझ में ही नहीं आया की ये अचानक क्या कहने लगीं! फिर तुरंत याद आया की अभी-अभी मैंने ही तो पूछा था की “घर में सब ठीक?” अच्छा हुआ याद आ गया। वरना उस लड़की के नाम को उसके होंठों पर पड़ने की कोशिश करती मेरी आँखे, बदतमीजी का दोष पा जातीं। कौन है ये? काफी पहचाना हुआ चेहरा था? लग रहा था की कुछ पुराना सा जुड़ाव है हमारे बीच। अमा ये ख़ुशी का ज्वालामुखी क्यूँ फट रहा है मेरे भीतर? अब और बर्दाश्त नही हुआ।

“हाँ-हाँ काकी आप लोग तो बस तैयार ही बैठे हैं न, हे हे हे, तो क्या नाम है इनका?”

“किनका?” वसुधा चाची ने ऐसे हैरान होकर पूछा जैसे मैंने सुन्दरकाण्ड में द्रौपदी का जि़क्र कर दिया हो।

“अरे ये जो हैं, ये, आप, अरे क्या काकी,” मारे शर्म के मुझसे और कुछ कहा ही नही जा रहा था। पहली बार दिखी मेरी शर्म को माँ और चाची दोनों ने पकड़ लिया। माँ बरामदे से भीतर के दरवाज़े की ओट पर आकर खड़ी हो गयी और मुझे हैरानी से देखने लगी। चाची भी मुझे देख कुछ समझने की कोशिश करती नज़र आई।

ये भी पढ़ें: नीलेश मिसरा की म‍ंडली की सदस्या अनुलता राज नायर की लिखी कहानी पढ़िए : ‘सूखी हुई पंखुड़ियां’

“अ,मीनाक्षी,पर ऐसे क्यूँ पूछ रहा है तू? जानता तो है इसे, अरे दोनों को एक साथ ही स्कूल में डाला था न। भूल गया क्या? अरे बहन तेरी, मीनाक्षी। ”

क्या! मेरा ख़ुशी से उफनता ज्वालामुखी, वसुधा चाची ने ढक्कन देकर बुझा दिया। ये क्या पागलपन है! ऐसे ही किसी को कोई किसी की बहन बना देता है क्या? नीम खाए हुए मेरे भावों को देख मीनाक्षी भी मुझे उसी हैरानी से घूरने लगी, जिससे पिछले तीन मिनटों से ये दोनों औरतें मुझे घूर रही थी। मेरी स्थिति अजीब सी हो चली। सुबह-सुबह ये कैसा मजाक हो गया मेरे साथ? एक मिनट- एक मिनट, तुझे क्या लगा? वसुधा चाची क्यूँ आई हैं? कहकर माँ ने जोरदार हँसना शुरू कर दिया। उनकी हंसी ने संक्रामक रूप ले चाची को भी पकड़ लिया। दोनों हर-हरा कर हंसी जा रही थीं।

मैं इतना शर्मसार हो चुका था की उस अभी-अभी बनी मेरी बहन मीनाक्षी से तो नज़रें ही नही मिला पा रहा था। बिस्तर गीला करने वाली अपनी उम्र के बाद आज जाकर बिलकुल वही महसूस हो रहा था।

“अरे ये जो हैं, ये, आप, अरे क्या काकी,” मारे शर्म के मुझसे और कुछ कहा ही नही जा रहा था। पहली बार दिखी मेरी शर्म को माँ और चाची दोनों ने पकड़ लिया। माँ बरामदे से भीतर के दरवाज़े की ओट पर आकर खड़ी हो गयी और मुझे हैरानी से देखने लगी। चाची भी मुझे देख कुछ समझने की कोशिश करती नज़र आई।

माँ की बात मान पायजामा पहन लेना चाहिए था। ये लूंगी तो अब उतरी हुई सी लग रही थी।

“अरे हम तो आए थे टीकू के मुंडन का न्योता देने तुम्हारी माँ को, सोचा तुझसे भी मिलते चलें। तू क्या समझा? हा हा हा हा हा।”

वो लड़की जिसका नाम मीनाक्षी था मुझे बड़े अजीब तरह से देख रही थी। कभी वसुधा चाची की तरफ मुंह करके बेतरतीब और अधूरी सी हंसी हंसती तो कभी मेरी तरफ घूमते ही भोंहे सिकोड़ लेती। मैं अपनी लूंगी समेत वहां से बाथरूम की तरफ भाग खड़ा हुआ। दरवाज़ा अन्दर से बंद कर लिया और दो मग्गे पानी सिर पे डाल कोने में टब के बगल में सिकुड़ के बैठ गया। हंसी की आवाजें अब भी आए जा रही थीं। बस प्रार्थना कर रहा था की, हे भगवन, इस स्थिति से उबारो। अब कभी खुद के सीए होने का भौकाल नही झाडूगा।

भगवान ने सुन ली और वसुधा चाची, मीनाक्षी के साथ दो कप चाय मारे हंसी के वहीं टेबल पर छोड़ चली गयीं। मैं बाथरूम से बाहर आया। माँ से सामना हुआ। वो कुछ नहीं बोली। बोलती कैसे? मुझे देखते ही हंसी जो आने लगी उन्हें। अब घर में रुकना मतलब आबरू नुचवाना था। मैं झट से कुछ भी कपड़े पहन, बाहर हो लिया।

पिछले तीन वर्षों से माँ को पता नही कहाँ-कहाँ से लोग मेरे रिश्ते के लिए पूछते आए हैं। मैं मना करता गया। मेरे पास वाजिब वजह थी भाई, अभी-अभी तो दुकान जमी थी मेरी। मार्किट में धाक जमाए बिना, करियर बनाए बिना शादी करने का क्या तुक है? वैसे भी ऐसे ही किसी लड़की की फोटो देखकर उसे ‘हाँ’ कह देने वाली परम्परा से मैं ज्यादा प्रभावित कभी न हो सका। छोटा था तभी पापा के कान ये पूछ-पूछ कर खाता था की – “अगर आप माँ से पहली बार मिले थे तो आपको ये कैसे पता लगा की माँ अच्छी है?” पापा हंस कर गोद में बैठाकर मुझे कह दिया करते- “बेटा भगवान तुम्हारे सीने में एक पटाखा फोड़ देता है। इससे पता चल जाता है की आप जिससे शादी करने वाले हो वो अच्छी है की नही।” उस समय मैं शर्ट खोल-खोल कर कई बार उस पलीते को ढूँढा करता था जिससे भगवान वो पटाखा सुलगाएगा। ये भी सोचता था की अगर पलीता मिल जाए तो अपनी क्लास मोनिटर ‘प्रियंका’ को देखकर खुद ही सुलगा के फोड़ लूँगा।

पापा के मेरे बचपन में दिए उस सवाल के जवाब को मैंने आजतक यही माना थी की पिताजी बस बेवकूफ बनाते थे। उन्हें पता ही नही था, शायद उनकी माँ या पिताजी ने भी ऐसे ही दबाव डाला होगा जैसे आजकल ये लोग मुझपर डाल रहे थे।

मैंने कुछ नहीं तो भी सोलह रिश्ते बात शुरू होने से पहले ही नकार दिए, माँ साजिशों पर उतर आई। बाहर ही बाहर किसी से कुछ खुसर-पुसर कर उन्हें सीधे घर पे मुझे देखने बुलाने लगी की इसी बहाने मैं लड़की की फोटो तो देख ही लूं। पर मैं भी कसम ही खाकर बैठा था। ये तो न होने दूंगा।

मैंने कुछ नहीं तो भी सोलह रिश्ते बात शुरू होने से पहले ही नकार दिए, माँ साजिशों पर उतर आई। बाहर ही बाहर किसी से कुछ खुसर-पुसर कर उन्हें सीधे घर पे मुझे देखने बुलाने लगी की इसी बहाने मैं लड़की की फोटो तो देख ही लूं। पर मैं भी कसम ही खाकर बैठा था। ये तो न होने दूंगा।

एक जनाब तो मय बेटी ही घर पर आ गए। पर मेरी प्रतिक्रिया सीधी निकली। उनकी मुझसे पांच साल छोटी बेटी से मिलते ही पूछ लिया- “और बेटा, क्या पढ़ाई चल रही है आजकल?” इसके बाद मुझे दादा या भैया कहने के अलावा उसके पास कोई चारा ही न रह जाता।

मगर आज के उस इत्तेफाक से पता चल गया। पापा बेवकूफ नहीं बनाते थे। शायद उनके दिल में भगवान ने पटाखा फोड़ा था। वो धमक आज मैंने भी महसूस की थी। पिछले कुछ महीनों से वो सपना मुझे आ रहा था। जिसमेंे मैं उस बैंगनी फूलों से ढके रास्ते पर, रास्ते के अगल-बगल उन्ही फूलों से लदे पेड़ों के बीच, एक लड़की के हाथ को थामे अंतहीन सड़क पर चला जा रहा हूँ। रोज़ वो सपना वहीं आकर टूटता था जब वो मुझसे कुछ कहने वाली होती थी।

पर आज जिस तरह उस खूबसूरत रास्ते के उन बैंगनी फूलों को उस अनजान वसुधा चाची ने एड़ी से रौंदा है उससे तो मेरे सारे तार ही ढीले पड गए। खुद से कहने में भी झिझक। अजी झिझक क्या शर्म महसूस हो रही है की शायद। शायद मेरे उस स्वप्न की वो सुंदरी मीनाक्षी ही है।

दूर-दूर तक याद नही था की अगर उसे मेरे साथ इन लोगों ने स्कूल में डाला था तो उसे मेरी बहन बनाने की बात कब हुई थी। ये बड़े लोगों की यही एक प्रॉब्लम है लाइफ में, पहले तो बच्चों का जोड़ा प्यारा लगे तो बात शादी करवाने तक थी, अब पता चला की नहीं यहाँ तक नहीं थी। ये लोग तो बहन-भाई भी बनाया करते थे। जैसे छोटी लड़कियां अपने गुड्डे-गुडियाओं को कुछ भी बना देती हैं। बचपन से ही मन बना लेना कहाँ की अक्लमंदी है भाई? कई मामलों में तो बच्चे पूरी उम्र इन रिश्तों को लेकर ढोते हैं। मुझे अब याद आया की मीनाक्षी और मैं घर-घर खेला करते थे। मुझे वो पसंद थी। ये सब यूँ नही दिखा इन्हें, अब उन मामलों में से एक, आज मैं भी था। मेरी प्रेम कहानी शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गयी।

कुछ तीन दिनों बाद हमे वसुधा चाची के यहाँ जाना था। नही इत्तेफाक नही था ये। वसुधा चाची का उस दिन न्योता था. उनके बेटे यानि मीनाक्षी के बड़े भाई साहब के बच्चे का मुंडन जो था। अभी मीनाक्षी और मेरा प्यार शुरू ही कहाँ हुआ था जो इत्तेफाक होते।

कुछ तीन दिनों बाद हमे वसुधा चाची के यहाँ जाना था। नही इत्तेफाक नही था ये। वसुधा चाची का उस दिन न्योता था. उनके बेटे यानि मीनाक्षी के बड़े भाई साहब के बच्चे का मुंडन जो था। अभी मीनाक्षी और मेरा प्यार शुरू ही कहाँ हुआ था जो इत्तेफाक होते।

खैर! सामना हुआ वसुधा चाची से। वो मुझे देखकर पूरी नटखटता से मुस्कुरायीं। फिर मैंने गौर किया की वहां मुझे जानने वाले काफी लोग वैसे ही मुस्कुरा रहे थे। सब मेरे चटखारे ले रहे थे और मैं अपने हाथ में लिए शरबत के गिलास में डूब के मर जाना चाहता था।

सहन की पराकाष्ठा तब छूट गयी जब वहां हवा में उड़ते खाली प्लास्टिक के थैले जैसा मेरा एक बहुती दूर का हम उम्र भाई भी मौका ताड़ मेरे पास आ गया।

“क्यूँ बे? स्कूल की प्रार्थना याद है। भारत हमारा देश है और हम सब भारतवासी भाई-बहन हैं।” उसकी खखारती हंसी से मेरे हाथ में थमा शरबत अपने आप उसपर चल गया। मैंने कोई सदाचार न दिखाते हुए बाकी बची कुछ बूंदों से भरा ग्लास उसके हाथ पे थमा दिया और वहां से चलता बना। वो बस अपनी गुलाबी रंग में भीगी शर्ट को ताकता रह गया।

पर मेरे लिए उस उपहास भरे माहौल में वक़्त थोड़ा थम सा गया। मुझे मीनाक्षी दिखाई दी। मैं खुद को उसे देखने से रोक ही न सका। वो भी मुझे देख रही थी।

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उसकी आँखें चमक सी रही थीं। जैसे निचली पलक पर कोई पानी की बूँद, मैं सीधे बात के समाधान के इरादे से मीनाक्षी के पास ही चला गया। एक दम संभल कर, लोगों से भरी जगह पर नज़रों के सर्विलांस को छकाते हुए। कदम बहुत रिस्की था क्यूंकि अगर यहाँ इन लोगों ने मुझे उसके साथ देख भी लिया तो पार्टी का केक मैं ही बना समझो।

“सुनो मीनाक्षी, एक मिनट बात सुनो। तुम, अपनी मम्मी से।”

“देखिए, और दिमाग खराब मत कीजिए आप मेरा अब। एक तो मेरी माँ और ऊपर से ये नया नवेला मुफ्त का भाई, कोई समझता ही नही है। पहली बार आई आपके घर तो। कितने साल बाद देखा आपको। और फिर ये, अब क्या करूँ? राखी बांधू आपको? सारे इमोशान का मज़ाक बना रखा है। कुछ मत बोलिए, काम कीजिए अपना।” मेरे बस हल्का सा मुंह खोलते ही मीनाक्षी के दिल की पता नही कौन सी भड़ास बाहर आ गयी? मैं स्तब्ध, जड़, पेड़ उसका चेहरा ही लाल हो गया था। वहां से रोते हुए तेज़ी से निकल गई। मुझे बस ये समझ में नही आ रहा था की ये हुआ क्या? सवाल, सवाल और सवालों से भरी मीनाक्षी।

“साथ में छतरी लगा के जो घर-घर खेलते थे तुम लोग। मैं देखती नहीं थी क्या? हा हा हा, एक दो दिन में बात करुँगी वसुधा से। हाँ ये थोड़ा मामला गड़बड़ कर दिया है उसने, पर सब ठीक हो जाएगा। चिंता मत कर।

मुंडन संस्कार से घर आकर भी मैं घर तक पहुँच नही पाया था। मन वहीं रह गया था। पूरे माहौल में खुद के मज़ाक के बाद मीनाक्षी की उन सवा चार लाइनों की बात में। उस वक़्त बस इतना ही समझ में आया की बिने रिश्ते की वसुधा चाची का मुझपर थोपे गए उस रिश्ते का असर मुझसे कहीं गुना ज्यादा मीनाक्षी पर पड़ रहा था। होश सँभालने के बाद आज पहली बार उससे मेरी कोई बात हुई, और उसमें भी वो गुस्से से चिढ़ती हुई, रोती हुई। ये क्या बकवास है, अब इसे यहीं न रोका गया तो, मैंने अब धैर्य और शर्म का साथ छोड़ देना ही बेहतर समझा। मीनाक्षी के लिए मेरे दिल में चाहे जो भी तैयार हो रहा हो। पर उसका रोना बिलकुल भी अच्छा नही लगा मुझे। वसुधा चाची के घर से आने के बाद, एक दो घंटे मंथन कर लेने के बाद मैंने माँ को पकड़ ही लिया।

“अम्मा जी, ये या फालतू का नाटक कर रही हैं वो तुम्हारी वसुधा चाची? सिर गरम होता जा रहा है मेरा बता रहा हूँ। कल को कुछ उल्टा-पुल्टा बोल दूंगा तो मत।”

“अरे! इतना ऐसा क्या हो गया? इतना गुस्सा क्यूँ?”

“तो क्या करूँ फिर? हद होती है यार। पहले तो तुम ही पता नही कहाँ-कहाँ से लोगों को पकड़ के ले आती थी। उस दिन गलती से थोडा इंटरेस्ट ले लिया तो इसमें इतना।”

“क्या! अच्छा। ऐसा है क्या?”

माँ के इतना कहते ही मुझे समझ में आ गया की मैं कुछ गलत कह गया हूँ।

“ह्म्म्म, वैसे वसुधा की बेटी से बात हुई थी मेरी। रोये जा रही थी।”

कहकर माँ ने मेरी पसीने से भीगी गर्दन को देखा फिर एक जोरदार ठहाके के साथ बोलीं- “बहुत बड़े भोंदू हो तुम दोनों।”

मेरे मुंह से बस इतना ही निकला, “म, मतलब?”

“साथ में छतरी लगा के जो घर-घर खेलते थे तुम लोग। मैं देखती नहीं थी क्या? हा हा हा, एक दो दिन में बात करुँगी वसुधा से। हाँ ये थोड़ा मामला गड़बड़ कर दिया है उसने, पर सब ठीक हो जाएगा। चिंता मत कर।

पर, ये पक्का है न?” मैं मुस्कुरा दिया। तो वो मेरी माँ ही, समझ ही गयीं, हाँ बिना करियर बनाए शादी करने का अब भी कोई विचार नही था मेरा। पर मेरे बैंगनी फूलों वाले सपने का क्या करता? ये माएं भी न। बहुत चालाक होती हैं।

       

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