नीलेश मिसरा की म‍ंडली की सदस्या कंचन पंत की लिखी कहानी ‘सेकेंड इनिंग’   

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नीलेश मिसरा की म‍ंडली की सदस्या कंचन पंत की लिखी कहानी ‘सेकेंड इनिंग’    कहानी सेकेंड इनिंग।

वो कहानियां तो आज तक आप किस्सागो नीलेश मिसरा की आवाज़ में रेडियो और ऐप पर सुनते थे अब गांव कनेक्शन में पढ़ भी सकेंगे। #कहानीकापन्ना में इस बार पढ़िए नीलेश मिसरा की मंडली की सदस्या कंचन पंत की लिखी कहानी ‘सेकेंड इनिंग’

सुबह के साढ़े पांच बज रहे थे, अंधेरा अभी छटा नहीं था, बाहर निपट शांति थी और राजेंद्र नाथ के दिल में बेपनाह सूनापन। रात भर में वो कई बार करवटें बदल चुके थे, हर तरह से नींद को मनाने की कोशिश कर चुके थे, रात को सोने से पहले पैर धोए, चादर बाकायदा बदल कर सोए, तकिए के नीचे मोरपंख भी रखकर देख लिया, पर नींद थी कि किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह रुठ कर बैठी थी, पूरी रात गुज़र चुकी थी और राजेंद्र नाथ एक पलक नहीं सो पाए थे। यूं तो विशाखा की मौत के बाद से ही नींद के साथ उनकी लुका-छिपी चल रही थी, लेकिन जब से वो यादशहर आए हैं तब से सोना और भी मुश्किल हो गया था। हार कर राजेंद्र नाथ ने रज़ाई परे फेंक दी, बिस्तर से उठे और साइड टेबल से पानी का जग उठाया, लेकिन जग खाली था, राजेंद्र नाथ दबे पैरों से रसोई में गए, बहुत संभालकर फिल्टर से पानी भरा, लेकिन लाख सावधानी से काम करने पर भी जग का ढक्कन हाथ से गिर गया, आवाज़ हल्की सी ही हुई, लेकिन राजेंद्र नाथ का दिल चिंहुक उठा।

एक पल को उन्हें खुद पर गुस्सा भी आया। इतना डरने क्यों लगे हैं वो। क्या होता अगर विभोर और अदिति की नींद खुल ही जाती, विभोर उन्हें झिड़क थोड़े ही देता। उनका ध्यान रखता था विभोर, राजेंद्र नाथ जी का अकेलापन भांप कर ही उन्हें गाँव से यादशहर ले आया था और बहू अदिति भी अपनी समझ से उनकी काफी सेवा करती थी। घर में सारी सुख-सुविधाएं थीं, लेकिन राजेंद्र नाथ अपना मन रमा नहीं पा रहे थे यहां। दिन भर करने को कुछ होता नहीं था, जान-पहचान का कोई था नहीं, टीवी देखना उन्हें सख्त नापसंद था, और पढ़ने-लिखने के लिए चश्मे की ज़रूरत थी, जो तीन दिन से टूटा पड़ा था। विभोर और अदिति दोनों व्यस्त रहते थे, इसलिए उन्हें चश्मा बनवाने के लिए कहने की हिम्मत नहीं हुई।

राजेंद्र नाथ को यादशहर आए 20-22 दिन हो गए थे, और मुश्किल से दो बार वो घर से बाहर गए थे, एक बार जब अदिति उन्हें बाज़ार ले गई थी, उनके लिए कपड़े खरीदवाने और दूसरी बार विभोर कॉलोनी के पार्क तक चक्कर लगवा आया था। पानी पीकर राजेंद्र नाथ फिर से अपने कमरे में आ गए, उन्हें चाय की ज़बरदस्त तलब हो रही थी। खुद चाय बनानी आती थी उन्हें लेकिन आवाज़ से विभोर और अदिति की नींद ना खुल जाए, इसलिए बैठे रहे। सिर में थोड़ा दर्द हो रहा था, सोचा थोड़ी देर खुली हवा में सांस ही ले लें। राजेंद्र नाथ उठे, अपना बिस्तर झाड़ा, हवाई चप्पल पहनें और घर से बाहर निकल गए, पार्क का रास्ता कुछ-कुछ याद था, अनुमान के सहारे वो कॉलोनी के पार्क तक पहुंच ही गए। बहुत दिनों बाद कुछ भला सा लग रहा था उन्हें, सूरज अब भी नहीं निकला था, लेकिन अंधेरा थोड़ा कम हो गया था।

राजेंद्र नाथ एक बेंच पर बैठ गए और पुश्त से सिर टिका लिया। रात भर सोए नहीं थे, इसलिए आंखें थोड़ा झपकने लगी थी, अभी कुछ मिनट भी नहीं हुए थे उन्हें इस तरह बैठे हुए कि, उन्हें लगा कोई झकझोर कर उन्हें जगा रहा है। राजेंद्र नाथ ने आंखें खोली तो एकदम से घबरा गए। पचास पचपन साल की एक दुबली-पतली औरत उनके कंधों पर झुकी हुई थी।

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राजेंद्र नाथ के आंखें खोलते ही औरत ने अपना हाथ उनके कंधे से हटा लिया। औरत काले रंग के ट्रेक सूट में थी, उसके कंधे पर एक छोटा सा बैग लटका हुआ था, उसके कानों का ईयर प्लग इस वक्त कंधे से झूल रहा था और उससे छन-छन कर किसी हिंदी गाने की आवाज़ बाहर तक सुनाई दे रही थी।

भाई साहब, आप, ठीक है ना। उस औरत ने पूछा।

अ, हां, वो ज़रा आंख लग गई थी। राजेंद्र नाथ हड़बड़ा गए।

राजेंद्र नाथ की बात सुनकर वो औरत ज़ोर से हंस पड़ी, राजेंद्र नाथ को थोड़ा संकोच हो आया, ऐसी हंसने की बात तो नहीं कही थी उन्होंने। औरत देर तक हंसती रही और फिर मुश्किल से हंसी रोक कर बोली।

आप सोए थे, मैंने समझा कि आप, गए।

बड़ी अजीब औरत है, राजेंद्र नाथ ने सोचा। किसी के मरने के बात इतनी आसानी से कोई कैसे कह सकता है भला, उसकी वेष-भूषा भी राजेंद्र नाथ जी को अटपटी लग रही थी, उस उम्र की औरतों को, उन्होंने साड़ी में या ज़्यादा से ज़्यादा सलवार कमीज़ में देखा था हालांकि ऐसे कपड़ों में भी वो औरत उन्हें खराब नहीं लगी।

अब जब की आप ज़िंदा हैं,और यहां पर बैठे हुए हैं, तो ज़रा मेरे इस बैग का ध्यान रखिएगा। मैं पार्क के चार-पांच चक्कर लगा कर आती हूं। उस औरत ने कहा और जवाब का इंतज़ार किए बिना दौड़ पड़ी। राजेंद्र नाथ हक्के-बक्के होकर उसे देखते रहे। थोड़ी देर बाद पसीना पोछती, हांफती हुई वो औरत वापस लौटी, और राजेंद्र नाथ के बगल में आकर बैठ गई।

वैसे भाई साहब, पार्क में आकर बैठ जाने का कोई मतलब नहीं है, फिर भी बैग का ध्यान रखने के लिए धन्यवाद। राजेंद्र नाथ ने खिंसियानी सी हंसी हंसते हुए बैग औरत की ओर बढ़ा दिया। औरत ने बैग खोला और अंदर से एक थर्मस निकाला कर बोली।

चाय तो पीते हैं ना आप। जवाब का इंतज़ार इस बार भी नहीं किया उसने, और थर्मस के ढक्कन में चाय निकालकर राजेंद्र नाथ की ओर बढ़ा दी। राजेंद्र नाथ को इस वक्त सबसे ज़्यादा ज़रूरत इसी चीज़ की थी, उन्होंने संकोच को कोने में रखा औऱ चाय का ढक्कन पकड़ लिया। अगले आधे घंटे में राजेंद्र नाथ दो बार चाय पी चुके थे और ये जान चुके थे कि उस औरत का नाम सुधा है, वो एक स्कूल में पढ़ाती है, रोज़ सुबह यूं ही थर्मस भर चाय लेकर पार्क आती है, थोड़ी देर सैर करती है, फिर यहीं बैठकर चाय पीती है। विशाखा के अलावा राजेंद्र नाथ जी की औरतों से ज़्यादा बातचीत कभी हुई नहीं थी, पहले सुधा से बात करने में भी हिचकिचा रहे थे, लेकिन सुधा की ज़िंदादिली और साफगोई ने उन्हें ज़्यादा देर अजनबी रहने नहीं दिया।

राजेंद्र नाथ के आंखें खोलते ही औरत ने अपना हाथ उनके कंधे से हटा लिया। औरत काले रंग के ट्रेक सूट में थी, उसके कंधे पर एक छोटा सा बैग लटका हुआ था, उसके कानों का ईयर प्लग इस वक्त कंधे से झूल रहा था और उससे छन-छन कर किसी हिंदी गाने की आवाज़ बाहर तक सुनाई दे रही थी।

आपने अपना नाम बता ही दिया है, तो मैं आपको राजेंद्र ही कहकर बुलाऊं, वो क्या है ना कि,भाई साहब बड़ा औपचारिक लगता है। सुधा ने कहा तो राजेंद्र मुस्कुराए बिना नहीं रह पाए।

आप रोज़ सुबह पार्क में दौड़ लगाती हैं, मैं तो घुटनों के दर्द के मारे कुछ कर ही नहीं पाता। राजेंद्र नाथ ने पार्क में आकर बेंच में बैठ जाने के लिए जैसे सफाई दी।

हां, होता तो है कभी-कभी दर्द, लेकिन मुझे दर्द को पालना अच्छा नहीं लगता। सुधा ने कहा और अपने बैग से एक कुदाल निकाल कर उठ गई, राजेंद्र नाथ भी उसके साथ ही उठ गए। बेंच उठकर सुधा बगीचे के दूसरे कोने की ओर बढ़ गई, फूलों की एक क्यारी के पास बैठी और कुदाल से गुड़ाई करने लगी, राजेंद्र नाथ भी घुटनों के बल बैठकर क्यारी में उग आई घास-पात उखाड़ने लगे।

आपके घर में और कौन-कौन हैं। राजेंद्र नाथ ने पूछा

“बेटी है,पुणे में रहती है,” सुधा बोली।

“और कोई नहीं है, फिर भी आप इतनी खुश?” झटके से राजेंद्र नाथ बोल तो गए, फिर खयाल आया कि शायद ये सवाल पूछकर उन्होंने ठीक नहीं किया। सुधा ज़ोर से हंसी, फिर थोड़ा गंभीर होकर बोली।

कोई नहीं है तो क्या हुआ, मैं खुद हूं अपने लिए और मैं सिर्फ जीना नहीं, जिंदा रहना चाहती हूं, और ज़िंदा रहने के रास्ते तो मिल ही जाते हैं, जैसे कि ये देखो। सुधा ने अपने हाथ में लगे टैटू की ओर इशारा किया।

हर महीने कोई शौक पाल लेती हूं, एक से मन भर जाए तो दूसरा,दूसरा रास ना आए तो तीसरा, वक्त कट जाता है, मन लग जाता है। और क्या।

एक घंटे बाद जब राजेंद्र नाथ अपने घर के लिए लौटे तो इंच लंबी मुस्कान उनके होठों पर खेल रही थी। उन्हें याद आया कि इससे पहले मुस्कुराए हुए उन्हें कई महीने हो चुके थे।

कहानी का पन्ना।

राजेंद्र नाथ घर पहुंचे, दरवाज़े पर कान लगा कर अंदर की आहट लेने की कोशिश की, विभोर और अदिति अभी भी उठे नहीं थे शायद, एक पल झिझकने के बाद उन्होंने बेल बजा दी। अपना जूड़ा बांधती, आंखे मलती अदिति ने दरवाज़ा खोला, और सामने राजेंद्र नाथ को देखा तो थोड़ा सकुचा गई। ससुर के सामने गाउन पहनकर घूमने की आदत नहीं थी उसे। राजेंद्र नाथ इतने चुपचाप रहते थे कि अदिति चाहकर भी उनके सामने सहज नहीं रह पाती थी, इसलिए उनके आने के बाद अदिति ने अपने सारे स्कर्ट, जींस-टॉप अलमारी में बंद कर दिए थे।

प, पापा आप कहां गए थे। अदिति ने झेंपकर पूछा।

ज़रा पार्क तक घूमने चला गया था, तुम जाओ, सो जाओ। राजेंद्र नाथ ने मुस्कुराते हुए कहा।

अदिति ने हैरानी से अपने ससुर का चेहरा देखा,राजेंद्र नाथ आज उससे बात कर रहे थे, वो भी मुस्कुराते हुए। वरना उसने उनके मुंह से हां या नहीं के अलावा ज़्यादा शब्द सुने नहीं थे।

नहीं पापा, आज तो वैसे ही लेट हो गई हूं, 9 बजे मीटिंग है,आप बैठिए मैं चाय बनाती हूं। अदिति भी राजेंद्र नाथ से थोड़ा खुलने लगी थी।

बहू तुम नहाओ, चाय मैं बनाता हूं, राजेंद्र नाथ ने कहा। अदिति लाख मना करती रही पर राजेंद्र नाथ चाय बना कर ही माने।

विभोर और अदिति तैयार होकर ऑफिस चले गए लेकिन आज राजेंद्र नाथ को उनके जाने के बाद घर काटता हुआ नहीं लगा, करने को कई सारे काम थे उनके पास। सबसे पहले उन्होंने कामवाली से पूरा घर साफ कराया, सारी चादरें और कुशन बदलवाए। फिर अपना चश्मा बदलवाने निकल गए और बाल भी तो कटवाने थे। विशाखा को बड़े बालों से चिढ़ थी और उन्हें खुद भी ऐसे बाल अच्छे नहीं लगते थे, पिछले कुछ सालों से उन्होंने अच्छा लगना, बुरा लगना जैसी चीज़ों के बारे में सोचना भी छोड़ दिया था, पर आज सुधा से मिले तो याद आया कि वो अभी ज़िंदा हैं और जब तक मौत नहीं हो जाती, तब तक उन्हें ज़िंदा ही रहना चाहिए।

अब रोज़ सुबह पार्क जाने का नियम उन्होंने बना लिया। सुधा से भी मुलाक़ात रोज़ ही होती थी। उन्हें सुधा के साथ की आदत पड़ती जा रही थी, सुधा को भी उनके साथ वक्त बिताना अच्छा लगता था। पिछले तीन महीने से राजेंद्र नाथ रोज़ सुबह मॉर्निंग वॉक पर जा रहे थे। एक दिन राजेंद्र नाथ सुबह उठे तो बदन टूटता हुआ महसूस हुआ, तेज़ बुखार भी चढ़ा हुआ था, बहुत कोशिश की खुद को पार्क तक घसीटने की, लेकिन दरवाज़े तक पहुंचते-पहुंचते हिम्मत जवाब देने लगी। सैर के लिए जाना तो दूर उस दिन वो बिस्तर से भी नहीं उठ पाए, अगले दिन भी हालत ऐसी ही थी। विभोर और अदिति दोनों के ही ऑफिस में ऑडिट चल रहा था, छुट्टी मिलने का तो सवाल ही नहीं था। दोपहर तक बुखार थोड़ा कम हो गया था, पर कमज़ोरी वैसी की वैसी। दोपहर को दरवाज़े की घंटी बजी, राजेंद्र नाथ ने दरवाज़ा खोला तो सामने सुधा खड़ी थी।

अपने दरवाज़े पर सुधा को देखकर राजेंद्र नाथ थोड़ा हैरान हो गए, हालांकि एक दिन उन्होंने खुद ही अपना फ्लैट नंबर सुधा को बताया था, लेकिन वो इस तरह घर पर आ जाएगी उन्हें भरोसा नहीं था। आप, मुझे लग ही रहा था कि तुम्हारी तबीयत खराब होगी, सुधा ने बिना किसी भूमिका के कहा। और राजेंद्र नाथ को सहारा देती हुआ अंदर ले आई।

राजेंद्र नाथ घर पहुंचे, दरवाज़े पर कान लगा कर अंदर की आहट लेने की कोशिश की, विभोर और अदिति अभी भी उठे नहीं थे शायद, एक पल झिझकने के बाद उन्होंने बेल बजा दी। अपना जूड़ा बांधती, आंखे मलती अदिति ने दरवाज़ा खोला, और सामने राजेंद्र नाथ को देखा तो थोड़ा सकुचा गई। ससुर के सामने गाउन पहनकर घूमने की आदत नहीं थी उसे।

डॉक्टर को दिखाया, नहीं दिखाया होगा। सुधा ने खुद सवाल पूछा, और खुद ही जवाब भी दे दिया, और तुरंत डॉक्टर को फोन भी कर दिया। पूरा दिन सुधा राजेंद्र नाथ के घर पर ही रही, राजेंद्र नाथ यूं तो उन्हें चिंता ना करने और घर लौटने के लिए कह रहे थे, लेकिन दिल से वो खुद भी चाहते थे कि सुधा उनके आस-पास ही रहे, सुधा का उनकी चिंता करना, उनका ध्यान रखना उन्हें अच्छा लग रहा था। दो-तीन दिन बीमार रहे राजेंद्र नाथ, और उसके बाद जब पार्क पहुंचे तो सुधा ने उनका पार्क में शॉल ओढ़कर आना और कानों को मफ़लर से ढकना अनिवार्य कर दिया।

पहले राजेंद्र नाथ और सुधा सुबह साढ़े पांच बजे पार्क पहुंचते थे और साढ़े छह बजे तक लौट जाते थे। साढ़े छह, सात-सात, साढ़े सात, और साढ़े सात कब साढ़े आठ में बदल गया दोनों को अहसास ही नहीं हुआ। राजेंद्र नाथ अब अखबार भी पार्क में ही पढ़ने लगे थे, हर ख़बर ज़ोर से सुधा को पढ़कर सुनाते थे और अपनी विशेष टिप्पणी ज़रूर उसके साथ जोड़ देते थे, बदले में उन्हें सुधा से उनके पसंदीदा धारावाहिक की कहानी सुननी होती थी, राजेंद्र नाथ बिना देखे भी, उस धारावाहिक के हर पात्र को जानने लगे थे।

पर दोनों की दोस्ती, अब लोगों की नज़र में आने लगी थी, इसका अंदाज़ा राजेंद्र नाथ को तब हुआ, जब एक दिन, जब घर पहुंचने में उन्हें थोड़ा ज़्यादा ही देर हो गई। जैसे उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया, विभोर ने तपाक से दरवाज़ा खोल दिया, जैसे वो उन्हीं का इंतज़ार कर रहा हो।

पापा, आजकल पार्क में आपको कुछ ज़्यादा ही देर हो रही है। वो अंदर घुस पाते इससे पहले ही विभोर ने पूछ लिया।

अरे, मौसम अच्छा है, फिर मैं अखबार भी वहीं बैठकर पढ़ लेता हूं। राजेंद्र जी ने विभोर की बात को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी।

वही, तो पापा।

आप इतनी देर तक अखबार पढ़ते रहते हैं, मुझे ऑफिस से आकर पुरानी न्यूज़ पढ़नी पड़ती है। विभोर ने कहा।

ओहो, इतनी सी बात है, कोई बात नहीं, मैं कल से अपने लिए दूसरा अखबार खरीद लूंगा, पार्क के पास ही तो बैठता है अखबार वाला। राजेंद्र नाथ जी को अब भी स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा नहीं हुआ था।

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प..पापा,...बात वो नहीं है। विभोर कुछ हिचकता हुआ बोला। मेरा दोस्त बता रहा था कि आप पार्क में किसी औरत के साथ, आगे की बात विभोर ने अधूरी छोड़ दी, जो कह दिया गया था और जो कहा जाने वाला था, उसे सोचकर राजेंद्र नाथ के तन-बदन में आग लग गई।

तुम्हारे दोस्त का दिमाग ठिकाने है कि नहीं, इस उम्र में क्या यही सब बचा है मेरे लिए और तुम, तुम भी मुझसे सवाल कर रहे हो। राजेंद्र नाथ सप्तम सुर में चिल्लाए। विभोर की तो बोलती बंद हो गई।

वो उठे और धड़ धड़ाते हुए अपने कमरे में चले गए। पर विभोर का सवाल उनका पीछा नहीं छोड़ रहा था।

सुधा और वो? अब तक उन्हें इस रिश्ते पर सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी, पर अब वो जवाब जानना चाहते थे,और जवाब सिर्फ सुधा दे सकती थी।

अगले सुबह राजेंद्र नाथ पार्क पहुंचे तो उनका चेहरा उतरा हुआ था, सुधा ने भी उनके बदले मिजाज़ को भांप लिया।

कल मेरा बेटा पूछ रहा था कि तुम्हारा और मेरा रिश्ता क्या है। राजेंद्र नाथ ने सुधा की आंखों में आंखें डाल कर पूछा। सुधा का चेहरा काला पड़ गया, उन्होंने नज़रें नीचे कर ली, और धीमी आवाज़ में बोलीं।

तो तुमने क्या कहा। तुम्ही, बताओ मुझे क्या कहना चाहिए था। राजेंद्र नाथ ने उल्टा सवाल दागा।

मुझे नहीं पता। मुझे आज थोड़ा जल्दी जाना है। सुधा बोली औऱ राजेंद्र नाथ के कुछ बोलने से पहले ही उठकर चली गईं।

अब रोज़ सुबह पार्क जाने का नियम उन्होंने बना लिया। सुधा से भी मुलाक़ात रोज़ ही होती थी। उन्हें सुधा के साथ की आदत पड़ती जा रही थी, सुधा को भी उनके साथ वक्त बिताना अच्छा लगता था। पिछले तीन महीने से राजेंद्र नाथ रोज़ सुबह मॉर्निंग वॉक पर जा रहे थे। एक दिन राजेंद्र नाथ सुबह उठे तो बदन टूटता हुआ महसूस हुआ, तेज़ बुखार भी चढ़ा हुआ था, बहुत कोशिश की खुद को पार्क तक घसीटने की, लेकिन दरवाज़े तक पहुंचते-पहुंचते हिम्मत जवाब देने लगी।

राजेंद्र नाथ भी ज़्यादा देर तक बैठ नहीं पाए पार्क में। आधे-अधूरे मन से नाश्ता किया और फिर अपनी चारपाई पर जाकर लेट गए। बीमारी और रात के अलावा किसी भी वक्त बिस्तर पर पसरना राजेंद्र नाथ को पसंद नहीं था, लेकिन आज उन्हें लग रहा था कि उनके शरीर में जान ही नहीं बची है। दिन तो उलझन में गुज़रा ही, रात भी आंखों में ही कटी। अगली दिन पार्क जाते समय वो अपने दिल में एक फ़ैसला कर चुके थे।

सुधा, तुम मुझसे शादी करोगी। बिना लाग लपेट, बिना भूमिका के राजेंद्र नाथ ने सुधा को देखते ही सवाल दाग दिया।

तुम क्या कह रहे हो राजेंद्र, तुम से शादी, इस उम्र में। सुधा की आवाज़, और होंठ दोनों कांप उठे।

उम्र की बात छोड़ो, शादी करोगी कि नहीं। राजेंद्र ने फिर पूछा।

हम बच्चे नहीं राजेंद्र और तुम्हें ये बातें करनी हैं तो मैं कल से नहीं आऊंगी। सुधा ने कहा लेकिन अपनी जगह से उठी नहीं। उसके बाद सुधा औऱ राजेंद्र में कोई बात नहीं हुई, दोनों के बीच एक चुप्पी अपना साम्राज्य फैलाती जा रही थी।

उस दिन राजेंद्र नाथ का जन्मदिन था। पिछले चार दिन से उनकी सुधा के साथ बातचीत बंद थी। दोनों रोज़ पार्क आ रहे थे, साथ में सैर भी कर रहे थे, सुधा अब भी उन्हें चाय पिलाती थी, लेकिन चाय पीते समय राजेंद्र नाथ उन्हें अखबार पढ़कर नहीं सुनाते थे और सुधा अपने सीरियल के पिछले चार एपीसोड की कहानी अपने ही अंदर पचा कर बैठी हुई थी। राजेंद्र नाथ काफी देर से पार्क की बेंच पर आकर बैठे हुए थे, बार-बार गेट की ओर देख लेते, लेकिन सुधा का पता नहीं था। काफी देर बाद सुधा आई और आते ही सुनहरे कागज़ में लिपटा एक पैकेट राजेंद्र नाथ की ओर बढ़ा दिया। पैकेट देखकर राजेंद्र नाथ की आंखों में बच्चों जैसी चमक आ गई। लेकिन उन्होंने पैकेट लेने के बजाए सुधा पर सवाल दाग दिया।

ये क्या है। चश्मा है तुम्हारे लिए, ले आऊं। सुधा ने कहा।

इतना घुमा-फिरा के क्यों बोल रही हो, सीधे-सीधे कहो ना कि मेरे जन्मदिन का तोहफ़ा है। राजेंद्र नाथ सुधा के हाथ से पैकेट लेते हुए बोले।

ज्यादा खुश होने की ज़रूरत नहीं है राजेंद्र साहब, मैं तो भलमनसाहत में ले आई, वरना इस बुढ़ापे में कोई जन्मदिन मनाता है भला। सुधा ने कहा। राजेंद्र नाथ उनकी बातों पर ध्यान दिए बिना, चश्मे के केस वाला पैकेट खोलने की कोशिश करने लगे। लेकिन टेप थोड़ा मज़बूत था, और उसका सिरा राजेंद्र नाथ की पकड़ में नहीं आ रहा था। सुधा ने उनके हाथ से पैकट लिया, और खुद खोलने लगी, एक गिफ्ट पैक तो खुलता नहीं इनसे, शादी करने चले हैं। वैसे भी कुर्ता-पैजामा पहनने वाले आदमी मुझे पसंद नहीं, तुम्हारी ये मूंछें भी अच्छी नहीं लगती मुझे, और उम्र देखी है अपनी 64 के हो गए हो। सुधा पैकेट में से चश्मा निकालते हुए बोली।

तो तुम ही कौन सा 25 की हो, राजेंद्र नाथ ने चश्मा अपने आंखों पर लगाया और सुधा के ही अंदाज़ में जवाब दिया। सुधा ने कुछ कहा नहीं औऱ राजेंद्र नाथ के बगल में आकर बैठ गई। राजेंद्र नाथ ने मुंह बनाया, बच्चे की तरह अपने दोनों हाथ सीने पर बांधे, और सुधा से मुंह फेर लिया। थोड़ी देर तक राजेंद्र नाथ ने चोर नज़रों से सुधा की ओर देखा, वो भी उन्हीं की ओर देख रही थी, हंसी को ज़बरदस्ती रोकने की कोशिश में सुधा का मुंह-बन बिगड़ रहा था। दोनों की नज़रें मिली और दोनों ठहाका मार कर हंस पड़े। इस हंसी ने राजेंद्र नाथ के सारे सवालों का जवाब दे दिया। अब दोनों को अपने-अपने बच्चों को मनाना था, राजेंद्र नाथ और सुधा दोनों ही जानते थे कि आसान नहीं होगा।

बारिश के बाद निकली मरी-मरी धूप जैसी हंसी, जिसमें चमक तो थी, पर गर्मी नहीं।

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