"हेड मास्टर से बच्चों की 'बड़ी मैम' तक का सफ़र"

पारुल निरंजन, कानपुर देहात के रसूलाबाद ब्लॉक के प्राथमिक विद्यालय उसरी में हेड मास्टर हैं। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने अपने क्षेत्र में बदलाव की बयार चला दी, टीचर्स डायरी में पारुल अपनी उसी यात्रा का किस्सा साझा कर रहीं हैं।

Parul Niranjan SachanParul Niranjan Sachan   26 May 2023 8:30 AM GMT

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हेड मास्टर से बच्चों की बड़ी मैम तक का सफ़र

साल 2014 का वह दिन, जब जाकर विद्यालय देखा, यही लगा कि सच में शायद इसीलिए रसूलाबाद विकासखण्ड को पिछड़ी श्रेणी में रखा जाता है। मन में बहुत कुंठा हुई क्यों पदोन्नति ले ली।

विद्यालय के हालात काफ़ी गंभीर थे। बच्चे देर सवेर आते थे और केवल मध्यान्ह भोजन पर ही उनका ध्यान रहता था। भोजन के बाद बिना चारदीवारी के विद्यालय में उनको रोक कर रखना मुश्किल काम था।

अब तो बस यही मन करता था कि क्या करूँ? कहां से शुरू करूँ? क्या-क्या सुधारूँ?

एक महिला होने के नाते दूर की नौकरी और फिर रोजमर्रा की दिनचर्या से अलग कुछ करने की सोच बहुत ही कठिन सा लग रहा था।


फिर यूँ ही एक दिन बैठे बैठे जब स्कूल के नौनिहालों के उत्सुक चेहरों को पढ़ा तो दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब सिर्फ विद्यालय तक सीमित रहने वाला एक अध्यापक बनकर सुधार संभव नहीं है। फिर शुरू हुआ हेडमास्टर से "बड़ी मैम" का सफ़र। हां कहने को ये एक बहुत ही छोटा शब्द है - "बड़ी मैम", पर मेरे लिए ये शब्द किसी उपाधि से कम नहीं..

जो मेरे बच्चों द्वारा सम्मान स्वरूप मुझे प्रदान किया गया और फिर शुरू हुआ बच्चों से जुड़ने के साथ साथ उनके माता पिता, अभिभावकों से संपर्क कर सुधार लाने का सिलसिला।

गाँव में कई प्राइवेट स्कूल होने के साथ विद्यालय के ठीक सामने भी प्राइवेट स्कूल मेरे लिए किसी चुनौती से कम न था, लेकिन जो दाखिला 103 था वो धीरे धीरे सत्र दर सत्र बढ़ना शुरू हुआ और आज 200 के ऊपर पहुँच गया है। उसकी वजह रही समुदाय को विद्यालय से जोड़ने की मेरी मुहिम।

जब बच्चों ने घर में विद्यालय और अपनी बड़ी मैम की प्रशंसा शुरू की तो अभिभावकों में जिज्ञासा जगी की आख़िर विद्यालय में ऐसा क्या परिवर्तन हुआ है। और सच मानिए जब सामुदायिक स्तर पर मेरी लगनशीलता और कार्यों को सराहा जाने लगा तो सबसे पहले प्राइवेट स्कूल को ये बात खटकना शुरू हुई।


उन्होंने कई तरह से मुझे और विद्यालय को मानसिक रूप से परेशान करने की कोशिश भी की, लेकिन संसाधनों के अभाव में भी मैंने अपनी कोशिश बंद नहीं की। एक समय आया कि ग्राम पंचायत द्वारा विद्यालय का कायाकल्प हुआ और मेरे प्रयासों में ये एक मील का पत्थर साबित हुआ।

मैंने विद्यालय स्तर पर रैली, सांस्कृतिक समारोह, झाँकियाँ, प्रतियोगिताएँ, निरक्षर पाठशाला, उपचारात्मक कक्षाएँ, सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता,खेल प्रतियोगिता, मीना मंच ,बाल संसद जैसे क्रिया कलाप में बच्चों को आगे बढ़ने के अवसर आरंभ किए तो विद्यालय में प्रवेश लेने के लिए होड़ लग गई।

मेरे प्रयासों से मेरे विद्यालय में स्मार्ट कक्षाओं का संचालन भी शुरू हुआ है।

सच पूछिए तो मुझे मेरे विद्यालय के बच्चों से इतना स्नेह है कि जैसे एक माँ को अपने बच्चों से होता है और इसी ममता के तार से बंधे मेरे बच्चे कक्षा पाँच उत्तीर्ण होने के बाद भी कई महीनों तक अपनी बड़ी मैम को फोन करके याद करते रहते हैं। मुझे भी उनके विद्यालय से जाने का बहुत दुःख होता है, क्योंकि जितना मैं अपने बच्चों से स्नेह के तार से जुड़ जाती हूँ। उतना ही मेरे बच्चे भी अपनी "बड़ी मैम" को बदले में प्यार और सम्मान देते है।

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