बिरसा मुंडा : इंसान से भगवान बनने की कहानी

सिर्फ 25 साल की उम्र में अपने देश की रक्षा के लिए शहीद होने वाले बिरसा मुंडा भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के जनजातीय विद्रोहों और क्रांति के प्रतीक के रूप में याद किये जाएँगे, और शायद यही वजह है की लोग उन्हें "भगवान बिरसा मुंडा" कह कर सम्बोधित करते हैं।

Update: 2023-11-15 05:38 GMT

मैं केवल देह नहीं

मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ

पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं

मैं भी मर नहीं सकता

मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता

उलगुलान!

उलगुलान!

आदिवासी कवि हरिराम मीणा की इन पंक्तियों का सार हैं बिरसा मुंडा

कहते हैं न कि जीवन लम्बा न सही लेकिन प्रभावशाली होना चाहिए; कुछ ऐसा ही प्रभाव था बिरसा मुंडा का, जिसने उन्हें आम इंसान से भगवान बना दिया था।

छोटा नागपुर के जंगलों में लगे पुराने पेड़ों की पत्तियाँ जब हवा से लहराती हैं तो मानो वो आज भी बिरसा मुंडा के शौर्य और साहस की कहानियाँ सुनाया करती हैं, जिनसे आज भी भारत के कुछ लोग अनजान हैं।

कहानी एक 25 साल के आदिवासी नौजवान युवा की है जिसने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी थी, कहानी बिरसा मुंडा की है।

उलिहातू, भारत के झारखण्ड राज्य में खूंटी जिले का एक गाँव, तारीख़ 15 नवंबर, साल 1875, जन्म हुआ एक ऐसे बालक का जो भविष्य में एक क्रांति का महानायक बनने वाला था; जिसका नाम इतिहास में अमर होने वाला था, बालक का नाम था बिरसा मुंडा।

अपनी पहली शिक्षा सालगा गाँव के शिक्षक जयपाल नाग से ली और उनकी सिफारिश पर जर्मन मिशनरी स्कूल में दाखिला ले लिया।

जर्मन मिशनरी स्कूल में दाखिले की अपनी एक कहानी है; दाखिले के लिए बिरसा मुंडा को बिरसा डेविड बनना पड़ा यानी अपना धर्म परिवर्तन करना पड़ा।

दरसल स्कूलों में धार्मिक प्रवचन दिए जाते थे जिसमे ईसाई मूल्य और राजभक्ति की बातें की जाती थी, साथ ही ये वादे भी किये जाते थे कि अगर आदिवासी ईसाई बने रहे हैं तो उनको उनकी ज़मीनें वापस मिल जाएँगी जो ज़मींदारों और महाजनों ने आदिवासियों से छीन ली थी।

उन दिनों जर्मन लूथरन और रोमन कैथोलिक ईसाई किसानों का भूमि आंदोलन चल रहा था। इन ईसाई किसानों को सरदार कहा जाता था।


ज़मीन मिलने के भरोसे के चलते लोग ईसाई धर्म अपना लेते थे। राजधर्म में आ जाने और पादरियों के वादों के कारण उन्होंने सशस्त्र क्रांति का रास्ता छोड़कर कानूनी रास्ता अपना लिया था। अब लोग तीर, बल्लम, कटार आदि छोड़कर अदालतों के चक्कर लगाने लगे। ये सरदारी आंदोलन 40 साल तक चला लेकिन कोई सफलता न मिल पाने की वजह से आगे चल कर यही आंदोलन बिरसा मुंडा के उलगुलान का आधार बना।

उलगुलान मतलब भारी कोलाहल और उथल-पुथल करने वाला और ऐसा हुआ भी। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में उलगुलान या कहें मुंडा आंदोलन झारखण्ड के इतिहास का अंतिम और खोंड आदिवासी विद्रोह था जिसमें हज़ारों की संख्या में आदिवासी शहीद भी हुए।

अपनी ज़मीन, जंगल और जल की रक्षा के लिए उलगुलान का आह्वान हुआ, बिरसा मुंडा के साथ हुज़ूम शामिल हुआ जो बिरसा के एक इशारें पर मरने और मारने को तैयार थे; इस लड़ाई में विशेष तौर पर मुर्हू में एंग्लिकन मिशन और सरवाड़ा में रोमन कैथोलिक मिशन को मुख्य तौर पर निशाने पर लिया गया। इस दौरान नई घोषणा का ऐलान हुआ और इसमें कहा गया "हमारे असली दुश्मन ब्रिटिश सरकार हैं, ना कि ईसाई बने मुंडा।

इसके बाद ये तय था, लड़ाई धर्म से नहीं बल्कि दमनकारी और क्रूर ब्रिटिश सरकार से थी। इस विद्रोह की आग खूंटी, तामार, बसिया और रांची में तेजी से फैली।

ब्रिटिश सरकार हिल चुकी थी ,1897 से 1900 के बीच आदिवासियों और अंग्रेजों के बीच कई लड़ाईयाँ हुईं; पर हर बार अंग्रेजी सरकार को नाकामी मिली। इस क्रम में जनवरी 1900 में मुंडा और अंग्रेजों के बीच आखिरी लड़ाई हुई थी।

25 जनवरी 1900 में स्टेट्समैन अख़बार की ख़बर के मुताबिक, इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे। कहते हैं कि इस नरसंहार से डोंबारी पहाड़ खून से रंग गई थी। लाशें बिछ गई थीं और शहीदों के खून से डोंबारी पहाड़ के पास स्थित तजना नदी का पानी लाल हो गया था। इस युद्ध में अंग्रेज जीत तो गए, लेकिन बिरसा मुंडा उनके हाथ नहीं आए।

अब ब्रिटिश राज के पास कोई चारा न बचा तो उन्होंने बिरसा मुंडा के ऊपर 500 रुपए का इनाम रख दिया। 500 रूपए 123 साल पहले एक बड़ी रकम थी जिसके चलतें बिरसा मुंडा की ही पहचान के किसी आदमी ने अंग्रेजी हुकूमत से मुखबिरी कर डाली और बिरसा मुंडा पकड़ें गए।

आखिरकार अंग्रेज़ो ने बिरसा को 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर से गिरफ़्तार कर रांची में बनी जेल में डाल दिया और कारावास के दौरान ही बिरसा मुंडा की मृत्यु हो गयी। अफवाओं के गलियारों में अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा मीठा ज़हर देकर बिरसा मुंडा को मारने की बात सामने आती है, लेकिन रिकॉर्ड के अनुसार उनकी मृत्यु का कारण हैज़ा बताया गया और 9 जून 1900 को ये वीर शहादत को प्राप्त हो गया।

15 नवंबर को ही जनजातीय गौरव दिवस को मनाया जाना सिर्फ एक संयोग नहीं है बल्कि बिरसा मुंडा और उनके जैसे कई आदिवासी क्रांतिकारियों को सम्मान देने की पहल है जो शायद बहुत पहले शुरू हो जानी चाहिए थी लेकिन हुई 15 नवंबर 2021 से।

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