चुनाव विशेष: क्या आपके घोषणा पत्र में स्वास्थ्य है?

चुनावी शोर के बीच लोगों के स्वास्थ्य जैसे मुद्दे पर नहीं होती बात, पार्टियों के घोषणा पत्र में स्वास्थ्य जैसे मुद्दे प्रमुखता से नहीं होते

Update: 2019-03-30 05:35 GMT

लखनऊ। चुनावी शोर के बीच नीना को अपनी साढ़े तीन साल की बेटी मिष्ठी की फिक्र है, जिसकी तबीयत खराब है और वो सरकारी अस्पताल के चक्कर काट रही हैं।

"मैं मजदूरी करके किसी तरह पेट पालती हूं। कुछ दिनों से मेरी बेटी बीमार रहती है, कुछ खाती-पीती नहीं। बहुत कमजोर हो गई है। अस्पताल लेकर गए थे, एक दवाई थमा दी। बाहर प्राइवेट में इलाज कराने का पैसा नहीं है," लखनऊ जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर माल ब्लॉक के रामपुर में रहने वाली नीना ने बताया। बारह सौ आबादी वाले इस गाँव में 39 बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, जिनके माता-पिता उन्हें लेकर अस्पतालों के चक्कर काटते रहते हैं लेकिन सही से इलाज नहीं मिलता।

कुपोषण और अन्य बीमारियों से जान गंवाने वाले बच्चे चुनावी मुददा ही नहीं बनते।

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सभी पार्टियों के घोषणा पत्रों में बड़े-बड़े वादों, धर्म और जाति विशेष का जिक्र तो होता है, लेकिन ग्रामीणों की जिंदगी बचाने के लिए महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने का उतना जिक्र नहीं होता जितना होना चाहिए।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के 534 लोकसभा सीट के मतदाताओं के बीच हुए एक सर्वे के अनुसार उनकी दूसरी सबसे बड़ी मांग सेहत और स्वास्थ्य सेवाएं ही है। जिनके बीच यह सर्वे किया गया उनमें 34.60 प्रतिशत मतदाता इसे बेहद जरूरी मानते हैं।

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विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल कुपोषण से मरने वाले पांच साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या दस लाख से भी ज्यादा है, लेकिन कुपोषण और अन्य बीमारियों से जान गंवाने वाले बच्चे चुनावी मुददा ही नहीं बनते।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकडों के अनुसार देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है।

"वर्तमान राजनीति का स्वरूप बदल चुका है। अब चुनाव विकास के मुददे पर नहीं बल्कि जातिगत मुददों पर लड़ा जा रहा है। जब नेता को धर्म और जाति के आधार पर चुनाव जीतने का माहौल मिल रहा है तो वह क्यों विकास की बात करेगा? स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी समस्याओं को दूर करने के लिए नेताओं और नौकरशाही को ईमानदार होना पड़ेगा," वरिष्ठ समाजशास्त्री राजेश भारती कहते हैं।

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विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकडों के अनुसार देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है, इसके बावजूद हर साल केवल 5500 डॉक्टर भर्ती हो पाते हैं। देश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की 50 फीसदी से भी ज्यादा कमी है। ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसदी तक पहुंच जाता है।

संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ के नेफ्रोलॉजी विभाग के प्रो. नरायन प्रसाद का कहना है, " भारत की प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह से बदहाल है। चुनाव जीतने के बाद नेता विकास नहीं अगले चुनाव की तैयारी में जुट जाते हैं। भारत को स्वास्थ्य जैसी बुनियादी व जरूरतमंद सेवाओं के लिए सकल घरेलू उत्पाद की दर में बढ़ोतरी करनी होगी। जनता को ऐसे नेतओं को चुनना होगा जो स्वास्थ्य सेवा जैसी सुविधाओं को आमजन तक पहुंचा सकें।"

देश की बदहाल प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क की मालिनी आइसोला कहती हैं, "जब तक हम प्राथमिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ नहीं करेंगे तब तक कोई भी योजना शत-प्रतिशत लाभकारी नहीं हो सकती। बुनियादी स्वास्थ्य को मजबूत करने की जरूरत है।"

देश में प्राथमिक स्वास्थ्य का बहुत बुरा हाल है।

ब्रिटेन की मशहूर चिकित्सा पत्रिका 'द लांसेट' के अनुसार स्वास्थ्य देखभाल और गुणवत्ता व पहुंच के मामले में 195 देशों की सूची में भारत का 145वां स्थान है।

"भारत के लोग दो मुददों पर ज्यादा जागरूक नहीं रहते, पहला-आर्थिक और दूसरा-स्वास्थ्य। जब तक नागरिक उन मुददों संजीदा नहीं रहेगा, तब तक रानतनीतिक दल उस मुददे को वोट बैंक का जरिया नहीं मानते हैं। यही वजह है कि राजनैतिक दल अपने घोषण पत्र में इसे उतनी तरजीह नहीं देते, जितनी देनी चाहिए" राजनैतिक मामलों के जानकार रहीश सिंह कहते हैं, "एक सरकार, सरकार की तरह काम नहीं करती, वह राजनीतिक दल की तरह काम करती है। जब तक लोग जागरुक नहीं होंगे यह चुनावी मुद्दा नहीं बनेगा।"

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आंकड़ों के अनुसार भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 1.3 प्रतिशत खर्च करता है। जबकि ब्राजील स्वास्थ्य सेवाओं पर 8.3 प्रतिशत, रूस 7.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका लगभग 8.8 प्रतिशत खर्च करता है। भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अफगानिस्तान और मलादीव जैसे देशों से भी कम खर्च करता है। 

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