"इस सफ़र में हमें पेपर-स्प्रे और चाकू नहीं, पानी की ढेर सारी बोतलों की जरुरत थी"

दो रिपोर्टर, एक दुपहिया, एक यात्रा।थोड़ी यायावर, थोड़ी पत्रकार बनकर गाँव कनेक्शन की जिज्ञासा मिश्रा और प्रज्ञा भारती ने बुंदेलखंड में पांच सौ किलोमीटर की यात्रा की। "6 दिन के बुंदेलखंड यात्रा ने, जहाँ मैं पेपर-स्प्रे और अन्य स्वयं बचाव की चीज़ें लेकर आई थी, मुझे अपनी तो नहीं लेकिन पानी और प्रकृति कि सुरक्षा और इज्ज़त करना बेशक सिखा दिया था।"

Update: 2019-04-02 12:00 GMT

भाग-3

सफ़र के बीच दो-दीवाने 

"पहली बार दो-पहिया चलाकर इतनी दूर जाने वाले थे, वो भी कहाँ? बुंदेलखंड के बीहड़ों में। एक रात पहले ही पेपर स्प्रे, चाकू वाली की-रिंग खरीद कर साथ रख ली थी पर हमें क्या पता था रास्ते में तो सिर्फ़ एक चीज़ की ज़रूरत पड़ेगी; ढेरों पानी की बोतलों की।"

मध्य प्रदेश। कभी ऐसा हुआ है कि प्यास लगी हो और पानी ढूँढा हो पर मजबूरी में चाय पीनी पड़े?

शाम के चार बजे होंगे जब हम रजौला गाँव पहुंच रहे थे। एक चाय की छोटी सी दुकान पर पानी पूछने रुके तो उसने कहा, "चाय मिल जाएगी, पानी की बोतल नहीं है।" कुछ नहीं होने से कुछ भला। एक बोतल तो पड़ी ही थी गाड़ी में तो एक कुल्हड़ चाय सुड़क कर आगे बढ़ गए। शहरों में कहाँ नसीब होते हैं ऐसे कुल्हड़!

थोड़ा ही दूर चले होंगे सड़क पर जहां रजौला गाँव का बोर्ड लगा था। सड़क से जो रास्ता गाँव की ओर मुड़ता है, उस तरफ से पांच-छह औरतों का एक समूह हाथों में खाली डिब्बे और बाल्टी लिए एक ओर जा रहा था। पूछने पर पता चला सब पानी भरने, गाँव के इकलौते हैंडपंप पहुंचने की जल्दी में थीं।

यहाँ पढें दो दीवाने सीरीज़ का भाग-2: "हम घर-घर जाकर, घंटे भर टॉयलेट ढूंढते रहे…"

पानी भरने जाती महकोना गाँव की महिलाएं (Photo by Jigyasa Mishra)

उसी ऊबड़-खाबड़ रस्ते हम गाँव के अंदर दाखिल हुए। रजौला गाँव सतना जिले में स्थित है, जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बॉर्डर से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर है। थोड़ा अंदर बढ़े तो एक घर के बाहर कुछ भैंसें और बकरियां बंधीं थीं जिनके नांदों में पानी डाल कर, करीबन 19-20 साल की एक लड़की पानी भरने के लिए ले जा रही खाली डिब्बों को हवा में झुलाते हुए बाहर की ओर आयी। उसने अपना नाम सुमन बताया।

रजौला गाँव में सुमन का घर (Photo by Jigyasa Mishra)

सुमन से जब मैंने पूछा पानी भरने कहां जाओगी तो बोली, "यहीं आधा-एक किलोमीटर दूर, बस। अभी तीन चक्कर लगाने हैं पानी भर-भर कर। आप भी चलेंगी?" जवाब में मैंने जब पूछा, "ज़्यादा दूर तो नहीं है?" तो हंसने लगी। सुमन के साथ मैं भी चलने लगी। संकरी गलियों से होकर, मच्छरों को भोज कराते हुए हम एक हैंडपंप पहुंचे तो देखा सुमन के ही उम्र एक लड़की लगातार हैंडपंप चला रही थी जबकि उसमे पानी नहीं आ रहा था। "इतना जंगल-झाड़ है न यहाँ, तो मच्छर बहुत लगते हैं," सुमन ने कहा और लाइन में अपनी भी बाल्टी लगा दी।

हैंडपंप से पानी भरने जाती सुमन (Photo by Jigyasa Mishra)

वर्ष 2018 में, गर्मियों की शुरुआत से पहले संकलित केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) की एक रिपोर्ट की मुताबिक मध्य प्रदेश में पिछले दस सालों में जल स्तर बड़े पैमाने पर नीचे जा रहा है, जबकि वाटर रिचार्ज बहुत ही छोटे भागों में हो रहा है।

लगभग तीस सेकेन्ड्स तक वो हैंडपंप चलाती रही और पानी का एक बूँद भी न निकला तो मुझसे पूछे बिन रहा नहीं गया। "कैसे भरोगी पानी, ये हैंडपंप तो चल ही नहीं रहा?" इसपर उसने जवाब दिया, "अरे इसे आधा-एक घंटा जब कोई लगातार चलाता है तब पानी निकलता है इसमें से वरना सूख जाता है तो फिर मेहनत करो घंटे भर," हैंडपंप चला रही निशा न बताया।

"हमारा आधा दिन इसी तरह पानी भरने, लाने में ही बीत जाता है," सुमन ने कहा।

कुम्हार का घर (photo by Jigyasa Mishra)

कुछ दिन पहले ही मैं चित्रकूट जिले के लोढ़वारा गाँव गयी थी जहाँ हालात और भी बदतर थे। "जून आते-आते गाँव के हैंडपम्प जवाब दे जाते हैं और टैंकर आता है गाँव में। रोज़ नहीं आता लेकिन। पानी खत्म हो जाता है तो पड़ोसियों से मांगना पड़ता है। बहुत दिक्कत हो जाती है। गर्मियों से तो डर लगता है," गाँव के निवासी, रामपाल ने बताया था।

वर्ष 2012 के संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) की रिपोर्ट के अनुसार भारत भूजल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, चीन और अमेरिका से भी आगे।

पूरे बुंदेलखंड के गाँवों में जो एक समस्या सभी घरों में देखने मिल जाएगी वो है-पानी की किल्लत। बच्चे, बूढ़े, नौजवान किसी से भी उनकी समस्या पूछिए तो जवाब 'पानी' ही मिलेगा। कहीं हैंडपंप चल नहीं रहे होते तो कहीं बोरवेल ख़राब हो चुका होता है।

भूजल स्तर में गिरावट के पीछे असली वज़ह इसकी आसानी से उपलब्धता और उपयोग है। एक लाइसेंस और हम अपनी ज़मीन पर कुआँ खुदवाकर मनचाही मात्रा में पानी निकाल सकते हैं। जुलाई-2016 में इंडिया स्पेंड में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अनुमानित 30 मिलियन भूजल संरचनाएं हैं।

जब हम इस सफ़र में महकौना पहुंचे ही थे तो एक किनारे तीन-चार आदमी, किसी मोटर के पास इकठ्ठा थे और उनमें से एक ऊपर चढ़ कर कोई मरम्मत कर रहा था शायद। जब मैंने करीब जाकर बात करनी चाही तो पहले हमारी इन्क्वाइरी ही हो गयी। अपने ठिकाने और इरादों के बारे में बताया तो उन लोगों ने भी खुल कर अपनी समस्या बताई।

महकोना गाँव में बोरवेल बनाता ग्रामीण (Photo by Jigyasa Mishra)

"हम मोटर बना रहे हैं। सरकारी मोटर है ये जो ख़राब हो गया है और हम लोग चंदा इकठ्ठा कर के सही कर रहे हैं। पानी तो सबको चाहिए न, करना ही पड़ेगा,"

बोरवेल मोटर दुरुस्त करने में मगन संतोष ने बताया। जब मैंने पूछा कि प्रधान से बात नहीं की इसके बारे में? तो जवाब मिला, "अरे कितने चक्कर काटे! कहता है बजट नहीं है, देख लो अपना। गाँव भर में एक यहीं पर है बोरवेल अब देखना (सही करना) ही पड़ेगा।"

बातचीत और बढ़ी तो इकट्ठा हुए लोग हमें बताने लगे कि किस तरह मार्च से जुलाई ये लोग पानी की किल्लते झेलते हैं और फिर बाढ़ की। "ये देखिये, वो 200 मीटर आगे जो सतना नदी है न, इसमें बाढ़ आ जाती है और सब बेकार हो जाता है। बच्चे स्कूल तक नहीं जा पाते दो-ढाई महीने," बबलू ने एक सूखी ज़मीन की ओर इशारा करते हुए कहा, "जहाँ कभी सतना नदी बहा करती थी पर अब सिर्फ बरसात के मौसम में बाढ़ का पानी।"

बुंदेलखंड की केन, धसान, सुनार और व्यारमा नदियों की तरह सतना नदी भी अतीत की ओर अग्रसर है, जो बस कहीं-कहीं काई के साथ दर्शन देती है।


कोई दिन के बारह बज रहे होंगे और गला सूखा जा रहा था। बोतलों में पानी ख़त्म हो चुका था तो हमने उनसे पूछा, "पानी कहाँ मिलेगा?" फ़िर बबलू, संतोष और वो सभी आदमी जो हमसे बात-चीत कर रहे थे, बड़े आदर के साथ अपने गाँव के अंदर ले गए और पानी के साथ बिस्किट और नमकीन भी ऑफर हुई। उस अनजान व्यक्ति से जिससे मैं चंद मिनटों पहले, बुंदेलखंड के एक गाँव में मिली थी, उसने पानी मांगने पर खाना खिला दिया था। उनके ही घर से पानी भरने के लिए जब बोतल निकाल रही थी तो अचानक 'पेपर-स्प्रे' हाथ में आ गया। अभी तक सील नहीं खुली थी उसकी।

रस्ते में कई जगह रुक-रुक कर हमनें बोतलें खरीदीं। स्कूटर चलाते वक़्त मुझे लग रहा था हर 10 मिनट में पानी की ज़रुरत है। जहाँ बोतल नहीं मिली वहां गांव वालों से मांग कर भी पिया। एक मामूली पानी की जरूरत के लिए कई दुकानें भटके। वही पानी जो शावर, बाथटब और फ़्लश में बहते रहते हैं। जिसके दो-चार बाल्टियां भरने के लिए महकौना जैसे कई गाँवों की लाखों महिलाएं दिन में कई बार, कई किलोमीटर चल कर जाती हैं और फिर लाइन में लगती हैं।

लाइन में पानी भरने का इंतज़ार करती ग्रामीण महिलएं (Photo by Jigyasa Mishra)

तस्वीरों में तो पानी भरने जाती महिलाएं और गाँव के बाहर, खुले में नहाते हर बच्चे अच्छे लगते हैं... पर वास्तविकता कुछ और ही है जो हम जैसे, घर के हर बाथरूम में दो नल लगाने वाले लोग शायद ही समझ पाएंगे।

छह दिन की बुंदेलखंड यात्रा ने, जहाँ मैं पीपर स्प्रे और अन्य खुद के बचाव की चीज़ें लेकर आई थी, मुझे अपनी तो नहीं लेकिन पानी और प्रकृति कि सुरक्षा और इज्ज़त करना बेशक सिखा दिया था। बस यही सोचते हुई लौटी मैं, "कितने खुशनसीब हैं न हम, जब चाहें, जितना चाहें, पानी पी सकते हैं। बस एक बटन दबा कर।" 

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