क्यों आसान नहीं है देश में MSP पर क़ानून बनाना ?

किसान संगठन अड़े हैं कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे। लेकिन एमएसपी पर क़ानून ना बन सकने की बड़ी वजह है विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) के साथ हुआ एक समझौता। अंतर्राष्ट्रीय कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर सुभाष पालेकर का कहना है एमएसपी सभी देशों की समस्या है, जिसे डब्लूटीओ से जुड़े रहकर दूर कर पाना कठिन है।

Update: 2024-02-21 09:02 GMT

सिर्फ अपने देश में एमएसपी को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं ऐसा नहीं है, बाहर के कई देशों में इसे लेकर आवाज़ उठ रही है।

'एक किसान एक किलो गेहूँ उगाने में अगर 40 रुपये खर्च करता है तो सरकार उसे 20 रुपये देती है; यानी किसान का घाटा वहीं से शुरू हो जाता है, जिसे रोकने के लिए एमएसपी की माँग उठ रही है।" मशहूर कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर सुभाष पालेकर ने गाँव कनेक्शन से कहा।

डॉक्टर पालेकर के मुताबिक किसानों की ये माँग जायज है जिसे सरकार पूरा भी करना चाह रही है, लेकिन ये इतना आसान भी नहीं है।

डॉक्टर पालेकर कहते हैं, डब्लूटीओ के साथ जुड़े रहकर ये कैसे मुमकिन है? आपको समझना होगा, ये सरकार के हाथ में पूरा है ऐसा भी नहीं है, भारत सरकार तो डब्ल्यूटीओ की अनदेखी कर किसानों के लिए एमएसपी पर बात कर रही है, जबकि समझौते में साफ है कोई सरकार बाजार भाव में दखल नहीं देगी। " वे आगे कहते हैं, "जब भी हम दबाव में आयात चालू करते हैं तो घरेलू बाजार में अनाज की कीमत नीचे चली जाती है, नतीजा बिचौलिए स्टॉक करते हैं और बाद में ऊँचे दाम पर बेचते हैं, इससे घाटा तो किसान का ही हुआ।"


आर्थिक मामलों के जानकार डॉक्टर मनोरंजन मोहंती कहते हैं इसके लिए विश्व की अर्थ व्यवस्था बदलनी होगी। सभी देशों को ये सोचना होगा कि किसानों के हित के लिए बड़े कदम कैसे उठाये जाए , लेकिन उसके दूरगामी असर पर भी ध्यान देना होगा।

"भारत में दूसरे देशों की तुलना में काफी गंभीरता से इस तरफ काम हो रहा है, किसान अब दूसरी मंडी में भी अपना अनाज बेचने को आज़ाद है, कुछ राज्यों में एमएसपी पर खरीद हो भी रही है। " डॉक्टर मोहंती ने बताया। "

वे कहते हैं, "देखिए विकासशील देशों को अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज़ की भी ज़रूरत होती है, जो ज़्यादातर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक से मिलता है; इन दोनों संगठनों से पैसा लेने और दूसरे देशों के साथ व्यापार करने के लिए विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होना ज़रूरी है; अगर कोई डब्लूटीओ का सदस्य नहीं है तो वह विश्व व्यापार का लाभ नहीं उठा सकता है। "

पुरानी है एमएसपी की गारंटी की माँग

सिर्फ अपने देश में एमएसपी को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं ऐसा नहीं है, बाहर के कई देशों में इसे लेकर आवाज़ उठ रही है।

डॉक्टर सुभाष पालेकर कहते हैं, " यूरोप में भी आंदोलन चल रहा है,सब्सिडी के बिना वहाँ भी किसान के लिए खेती आसान नहीं है; वहाँ एक किसान के पास हज़ारों एकड़ खेत है, सब मशीन से काम करते हैं , लेकिन डीज़ल महँगा है वो कैसे खरीदेंगे ? डीज़ल पर सब्सिडी नहीं है।"

"डब्लूटीओ के दवाब में वहाँ के देश शांत रहते हैं, कैसे फैसला ले सकते हैं? अमेरिका की सरकार बाहर से सस्ते दाम पर अनाज खरीद रही है। "

कैसे दूर होगी किसानों की समस्या?

डॉक्टर सुभाष पालेकर के मुताबिक किसान जितना भी उत्पादन करे उसके कुल लागत का 50 फीसदी उसे ज़्यादा देना चाहिए। यही बात स्वामीनाथ आयोग ने कही थी। प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन का मानना था कि इससे छोटे किसान भी मुकाबले में आसकेंगे।

स्वामीनाथन आयोग 2004 में बनाया गया था। 1965 में अकाल और युद्ध के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने तब भारत को अन्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने की ज़िम्मेदारी कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन को दी थी।

इससे पहले साल 1959 में जनवरी के अंत में, अमेरिका की फोर्ड फाउंडेशन के सहयोग से 13 सदस्यों की एक टीम भारत आई थी। दो महीने से अधिक समय तक ये टीम अलग अलग राज्यों की यात्रा करते हुए ज़मीनी स्तर पर लोगों और ग्राम सेवक से लेकर मुख्यमंत्री और सभी स्तरों के अधिकारियों से मुलाकात की। उनका मिशन था भारत की खाद्य उत्पादन समस्याओं का अध्ययन करना।


इस टीम में मुख्य रूप से अमेरिकी कृषि विभाग के अधिकारी और कॉर्नेल और लोवा, कंसास, अर्कांसस और मैरीलैंड के विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिक शामिल थे। ख़ास बात ये है कि उस टीम ने जाने से पहले तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री अजीत प्रसाद जैन को अपने निष्कर्षों और प्रस्तावों की एक रिपोर्ट सौंपी। इसमें ज़मीनी हकीकत के साथ सुझाव भी थे।

उनकी रिपोर्ट में 'भारत का खाद्य संकट और उससे निपटने के कदम 'शीर्षक वाली उस रिपोर्ट में एक नीतिगत विचार का अंश शामिल था जो इनदिनों बहस का मुद्दा है। जी हाँ, फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी)।

रिपोर्ट में जो सुझाव दिए गए थे उनमें इस बात पर जोर था कि बुआई सीज़न से पहले एक गारंटीकृत न्यूनतम मूल्य का प्रचार किया जाए। साथ ही एक बाज़ार तय हो, जो किसानों की फसल को न्यूनतम कीमत पर स्वीकार करने के लिए तैयार रहे जब किसान बेचना चाहें। लेकिन इस बात का भी ध्यान रहे कि वो बाजार खेत से उतना ही दूर हो जहाँ बैलगाड़ी से किसान अपनी फसल पहुँचा सके।

क्या होगा अगर क़ानून बनेगा

अगर न्यूनतम सर्मथन मूल्य यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस (एमएसपी) पर क़ानून बन जाता है तो सरकार सभी फसलों को एमएसपी पर खरीदने के लिए मज़बूर हो जाएगी। कानून बनने का दूसरा बड़ा असर ये होगा कि अभी जो कॉर्पोरेट घराने कम कीमत पर किसानों से फसलें खरीद लेते हैं, क़ानून बनने के बाद उन्हें भी ये एमएसपी पर ही खरीदना होगा।

करीब 60 साल से एमएसपी पर फसलों की खरीद की जा रही है; लेकिन इसे क़ानूनी रूप अब तक नहीं दिया गया है। हालाँकि इसके लिए एक आयोग बना हुआ है, जिसका नाम कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कास्ट्स एंड प्राईज यानी CACP है। यह आयोग ही हर साल फसलों की एमएसपी तय करता है। अभी फिलहाल देश में 23 फसलों पर एमएसपी लागू है, जिनमें ज्वार ,बाजरा ,धान ,मक्का ,गेहूँ,जौ,रागी ,मूंग,अरहर ,चना,उड़द ,मसूर ,सोयाबीन, कुसुम,मूंगफली, तोरिया-सरसों, तिल,सूरजमुखी ,नाइजर बीज,कपास,खोपरा ,गन्ना और कच्चा जूट है। इन फसलों की कीमत इनकी बुआई के समय ही तय कर दी जाती है।

जिन 23 फसलों के लिए एमएसपी देने की कानूनी अनिवार्यता है वो भारत की कुल कृषि पैदावार की सिर्फ 27.8 फीसदी ही हैं। एमएसपी पर चावल और गेहूँ की खरीद पंजाब और हरियाणा सहित सिर्फ छह या सात राज्यों में ही होती है।

छत्तीसगढ़, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश इस ग्रुप में नए राज्य हैं। पूर्वी भारत का ज़्यादातर हिस्सा इस तरह की खरीद व्यवस्था से बाहर है।

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