बच्चियों के बलात्कार और यौन शोषण पर नोबल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की 3 कविताएं
नोबल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने बच्चों के यौन शोषण और बलात्कार पर केंद्रित गांव कनेक्शन के लिए विशेष तीन कविताएं लिखी हैं। हैदराबाद की बेटी प्रियंगा रेड्डी से लेकर यूपी में उन्नाव की बेटी को जलाने की घटना से पूरा देश सकते में है। ये कविताएं लोगों को यौशन शोषण और बलात्कार के खिलाफ उड़ खड़े होने पर मजबूर करती हैं।
1.शर्मिंदगी में सर झुकाना काफी नहीं है
शर्मिंदगी में सर झुकाना काफी नहीं है,
काफी नहीं है अफसोस के आंसू बहाना।
जब घोंसले से निकलकर चंदा मामा पकड़ने को बेताब हों कोमल पंख,
और बाहर बुला रही ठंडी बयारों ने आंचल में छुपा रखी हों कैंचियां
जब घर के आंगन में खिले नन्हें फूल ने अभी-अभी सुगंध बिखेरी हो,
और गली में जहरीली गैस से भरे गटर का मुंह लार टपका रहा हो
तब शर्मिंदगी में सर झुकाना काफी नहीं है,
काफी नहीं है अफसोस के आंसू बहाना।
जब भोला-भाला स्वाद घुटने चलना सीख रहा हो,
और ललचा रही आईस्क्रीमों, चॉकलेटों और मिठाइयों में छुपे हों खूंखार पंजे
जब स्कूल के ब्लैकबोर्ड की कालिख,
सपनों और मासूमियत की इबारत के साथ-साथ उंगलियां तक चाटने लगी हो
तब शर्मिंदगी में सर झुकाना काफी नहीं है,
काफी नहीं है अफसोस के आंसू बहाना।
जब भोर की अनछुई पहली किरण को,
अंधेरों के राक्षस निगलने खड़े हों
और कुत्ते चबा रहे हों तोतली जुबान को,
तब शर्मिंदगी में सर झुकाना काफी नहीं है
काफी नहीं है सहानुभूति के शब्दों की लफ्फाजी,
खबरें पढ़ना, देखना और भूल जाना, काफी नहीं है।
हटाओ, हटाओ, अपने कानों में ठुंसी उंगलियां,
खोलो, आंखों पर बंधी पट्टियां
तोड़ो, मुंह पर लगे ताले।
खुद पर यकीन करो
और यकीन करो मुझ पर कि तुम जिंदा हो
तुम्हारी आंखें अभी भी देख सकती हैं पसरता अंधेरा
अभी भी घरों, गलियारों, खेतों, बसों, कारों, स्कूलों और पूजा-घरों से
कुछ टूटने-चटखने की आवाजें सुन सकते हैं तुम्हारे कान
इतनी ताकत जरूर है तुम्हारे हाथों में कि
ठीक से चला सकें कलम, सेलफोन, कंप्यूटर और इंटरनेट।
मुट्ठियों में भींच लो इस सारी ताकत को
और चलो मेरे साथ, अभी चलो
क्योंकि वह कोमल पंख, नन्हां फूल, भोला स्वाद,
ब्लैकबोर्ड की इबारत, उंगलियां, वह अनछुई किरण और तोतली जुबान
किसी और के नहीं, सब तुम्हारे हैं।
चलो उनके लिए बेखौफ और महफूज दुनिया बनाने के लिए चलो,
तुम जितना चल सको, मेरे साथ चलो।।
2.डर
डर से बनती हैं कैंचियां
जो कुतर देतीं हैं परिंदों के पंख
डर से बुने जाते हैं जाल
जो पानी में आज़ाद मछलियों की
बनती हैं मौत
डर से निकलता है धुआं
जो दिन को रात बना देता है
अंधी कर देता है हमारी आंखें
और रोक देता है रास्ते
पिंजरे गढ़ता है डर
हमारे भीतर और बाहर
कैद करने हमारी आत्मा को
डर और आज़ादी नहीं चलते साथ-साथ
डरती नहीं हैं आज़ाद कौमें
और डरी हुए कौमें आज़ाद नहीं होती
Let's make a world where girls are free. Sharing the dream of Soumyata Ghosh, 10 years old daughter of my colleague. Through her poem she echoes the voice of all the girls of this world. So happy to have met her in my office today! pic.twitter.com/umDghQmI4B
— Kailash Satyarthi (@k_satyarthi) January 2, 2019
3.आओ चलें अब चुप्पी तोड़ें
आओ चलें अब चुप्पी तोड़ें
चलो हवाओं का रुख मोड़ें
गूंगे कब तक बने रहेंगे
कब तक बने रहेंगे बहरे
हम दो आंखों वाले अंधे
भीड़-भाड़ के नकली चेहरे
छोड़ें अब पाखंड साथियों
आओ खुद को खुद से जोड़ें
आओ चलें अब चुप्पी तोड़ें
हर ऊंचाई से हम ऊंचे
हर गहराई से भी गहरे
जन की आजादी पर अब से
नहीं रहेंगे धन के पहरे
भीतर की ताकत पहचानें
औरो को तकना अब छोड़ें
आओ चलें अब चुप्पी तोड़ें
चलो हवाओं का रुख मोड़ें
आओ चलें अब चुप्पी तोड़ें
आओ चलें अब चुप्पी तोड़ें