नीलेश मिसरा की म‍ंडली की सदस्या शिखा द्विवेदी की लिखी कहानी ‘लंच बॉक्स’  

Update: 2017-09-07 17:21 GMT
कहानी लंच बॉक्स।

वो कहानियां तो आज तक आप किस्सागो नीलेश मिसरा की आवाज़ में रेडियो और ऐप पर सुनते थे अब गांव कनेक्शन में पढ़ भी सकेंगे। #कहानीकापन्ना में इस बार पढ़िए नीलेश मिसरा की मंडली की सदस्या शिखा द्विवेदी की लिखी कहानी ‘लंच बॉक्स’

ललिता एक बार फिर से शीशे के सामने थी। सुबह से शायद ये आठवीं बार था, अम्मा भी चार बार टोक चुकीं थी कि शीशा अगर गिर कर टूट गया तो उसकी खैर नहीं। पर अम्मा की कही बात ललिता के कानों तक पहुंची ही नहीं। उसके खुले बालों से टकराकर वो वहीं बिख़र गई शायद। अम्मा काम पर निकल गई तब ललिता फिर से दीवार पर टंगे शीशे के पास पहुंच गई लेकिन इस बार भी शीशे में उसे सिर्फ अपना माथा और आंखें ही नज़र आ रही थीं। पर उसे हार नहीं माननी थी। कमरे के दूसरे कोने पर रखी कुर्सी को देखते ही उसके दिमाग की बत्ती जल उठी, हालांकि ये तरकीब उसके दिमाग में पहले भी आयी थी पर अम्मा के सामने आजमाती तो चांटे खाने का डर भी होता। खैर अब जब तक अम्मा वापस नहीं आती ललिता को कोई डर नहीं था। उसने झट से कुर्सी पर रखे कपड़े ज़मीन पर फेंके और कुर्सी उठाकर ले आई। पर ये क्या कुर्सी पर खड़े होने के बाद भी ललिता की मुश्किल का कोई हल नहीं निकला, दीवार पर लटके उस छोटे से शीशे में अब भी ललिता खुद को पूरा नहीं देख पा रही थी।

कुर्सी को वापस उसकी जगह रख ललिता फिर से कोई तरकीब तलाशने लगी लेकिन दस साल की ललिता के छोटे से दिमाग में कोई बड़ी तरकीब नहीं आ रही थी। दरअसल अगली सुबह ललिता को पहली बार स्कूल जाना था। उसकी अम्मा जिस घर काम करती थी उन्हीं सेठानी जी ने दाखिला करवाया था उसका, किताबें और स्कूल ड्रेस भी उन्होंने ही दिलवाई थी। चार साल पहले शराबी पति को एक सड़क हादसे में खोने के बाद ललिता की मां लज्जो लखनऊ से अपने मायके इटावा आ गई थी। मायके में रिश्ते के नाम पर बस एक बूढ़ी मां थी, वो भी पिछले साल चल बसी, उसकी मां ने ही शहर के एक रईस और भले सेठ के घर उसे काम दिलवाया था। उसकी मालकिन उसकी हर छोटी बड़ी जरूरतें पूरी करती थी उन्होंने ही ललिता को स्कूल भेजने का सारा ज़िम्मा उठाया था। ललिता बहुत खुश थी, उसके सपनों की दुनिया का एक सपना सच होने जा रहा था बाकी के सपनों को हकीकत तक लाने का रास्ता खुलने वाला था। और इसी खुशी में वो कल शाम से, जब से उसकी स्कूल ड्रेस और किताबें आई थीं वो उनसे दूर नहीं हट रहीं थी यहां तक कि बाहर अपने दोस्तों के साथ खेलने भी नहीं गई । जब से उसकी स्कूल ड्रेस आई थी तब से वो खुद को उसमें देखने की कोशिश कर रही थी। हालांकि अम्मा ने उसे नज़र का टीका लगाते हुए कहा था, “बहुत अच्छी लग रही हो बिटिया एकदम बड़े घर के बच्चों की तरह”। पर फिर भी वो एक बार खुद को आईने में देखना चाहती है। तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया।

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ललिता ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने उसकी अम्मा थी। “तूने अभी तक कपड़े नहीं बदले” लज्जो ने अंदर आकर दरवाजा बंद करते हुए कहा। “अरे उतार कर रख दे वरना कल सुबह स्कूल जाने के समय तक गंदे हो जाएंगे”। ललिता ने फिर से अपनी अम्मा की बात अनसुनी कर दी और वापस चारपाई पर अपनी किताबों के पास आकर बैठ गई। लज्जो अपनी सेठानी के घर से एक झोले में कुछ बर्तन लाई थी और उन्हें कमरे के कोने में बनी अपनी रसोई में रखने लगी। “कपड़े बदल और आकर खाना खा” लज्जो ने आवाज़ लगाई। ललिता का कोई जवाब न आया। लज्जो ने मुड़कर देखा तो ललिता अपने किताबें स्कूल बैग में रखने में मगन थी। “अरी क्या हो गया है बौरा गई है कितनी बार बस्ता ठीक करेगी, किताबें फट गई तो फिर न मिलेंगी” इस बार लज्जो ने थोड़ा सख्ती से कहा। ललिता ने भी बैग लगाकर उसे बिस्तर के सिरहाने रख दिया और आकर अपनी अम्मा के पास खड़ी हो गई। “अरे अम्मा ये क्या है?” लज्जो के हाथ में एक नई स्टील की थाली देखकर ललिता की आंखों में चमक आ गई थी। “थाली है और क्या है सेठानी जी ने दी है तू तो ऐसे खुश हो रही है जैसे कोई सोना चांदी मिल गया हो” लज्जो ने थाली अलमारी पर रखे बाकी बर्तनों के बीच रख दी।

ललिता एक बार फिर से शीशे के सामने थी। सुबह से शायद ये आठवीं बार था, अम्मा भी चार बार टोक चुकीं थी कि शीशा अगर गिर कर टूट गया तो उसकी खैर नहीं। पर अम्मा की कही बात ललिता के कानों तक पहुंची ही नहीं। उसके खुले बालों से टकराकर वो वहीं बिख़र गई शायद। अम्मा काम पर निकल गई तब ललिता फिर से दीवार पर टंगे शीशे के पास पहुंच गई लेकिन इस बार भी शीशे में उसे सिर्फ अपना माथा और आंखें ही नज़र आ रही थीं।

ललिता ने झट से वो थाली उठाई और चारपाई पर रखे बिस्तरों के ढेर पर टिका दी। “अम्मा देखो अब हमारे स्कूल के कपड़े पूरे दिख रहे हैं” ललिता थाली में अपने आड़े-तिरछे पूरे प्रतिबिम्ब को देखकर बहुत खुश हो रही थी। अगली सुबह मुर्गे की बांग से लज्जो की नींद टूटी। चारपाई पर बैठे-बैठे ही आंख मलते हुई सामने टंगी दीवार घड़ी पर समय देखने की कोशिश की तो पता चला उसकी सुईयां चलते-चलते सो गई थीं। ललिता को जगाने के लिए बगल की चारपाई की ओर हाथ बढ़ाया तो उसे बीच में ही रुकना पड़ा, चारपाई और बिस्तर दोनों सिमट चुके थे। अपने एक कमरे के छोटे से घर में ललिता को तलाशने की लिए लज्जो को बस थोड़ी सी गर्दन घुमानी पड़ी। ललिता स्कूल जाने के लिए तैयार थी, शर्ट, स्कर्ट, जूते मोजे, टाई बेल्ट सभी से लैस ललिता शीशे के सामने खड़े होकर अपनी चोटी गूंथने की कोशिश कर रही थी हालांकि शीशे में उसे इस बार भी सिर्फ अपने कुछ बाल माथा और आंखे ही नज़र आ रही थी।

लज्जो ने ललिता को आवाज़ लगाकर अपने पास बुलाया। उसके हाथ से कंघी और लाल रिबन लेकर उसे ज़मीन पर बैठने को बोला जिससे वो उसकी चोटी बना सके। ललिता जमीऩ की जगह बिस्तर पर बैठ गई बोली “अम्मा ज़मीन पर बैठने से मेरे कपड़े गंदे हो जाएंगे”। लज्जो को ललिता की बात पर हंसी आ गई कहने लगी” हमारी गुड़िया अभी स्कूल गई भी नहीं और साफ-सफाई की बातें पहले ही सीख गई..अच्छी बात है”। लज्जो खुद ही बिस्तर से उतर गई और खड़े होकर ललिता की चोटी बनाई। “अच्छा बिटिया खाने में क्या ले जाओगी, हम जल्दी से बना देते है” लज्जो ने स्टोव जला कर कढ़ाई चढ़ा दी। “अम्मा तुम भी अजीब हो। घर में सब्जी के नाम पर सिर्फ आलू है और हमसे पूछ रही हो कि स्कूल क्या ले जाएंगे, अरे जो है वही तो बनाओगी फिर पूछती क्यों हो”। ललिता फिर से अपने स्कूल बैग में किताबों को करीने से लगाने लगी।

“अरे बिटिया तुम भी तो कल से कुल पांच किताबें पच्चीस बार बस्ते में जमा चुकी हो, खुशी मिल रही है न तुम्हें, हमें भी खुशी मिलती है तुमसे खाने का पूछने में, भले ही घर में सिर्फ आलू है तो क्या हुआ। हम तुम्हारे लिए आलू-पूरी बनाएंगे।” लज्जो ने फटाफट पहले कढ़ाई में चार पूरिया तलीं और फिर उसी में दो आलू छौंक दिए। हो गया ललिता का स्कूल लंच तैयार। कढ़ाई से आलू निकालते- निकालते लज्जो ने ललिता से बाहर किसी से समय पूछ कर आने को कहा। “अम्मा, सेठानी जी से एक सेल मांग कर ले आओ न घड़ी में डालने के लिए अब तो रोज समय देखने की ज़रूरत होगी नहीं तो हमें स्कूल जाने में देर हो जायेगी”। अपनी अम्मा को हिदायत देकर ललिता बाहर समय पूछने चली गई।

लज्जा के सोच विचार का नतीजा ये निकला कि वो पुरानी साड़ी में ही अपनी बेटी को पहले दिन स्कूल छोड़ने जाएगी। पर ललिता कुछ और चाहती थी उसे लज्जो का पुरानी साड़ी पहनकर अपने साथ चलना शायद पहली बार अखर रहा था। बोल ही पड़ी वो, “अम्मा तुम रहने दो हम चले जाएंगे स्कूल, बस दो गली छोड़ कर ही तो है, तुम सेठानी जी के घर जाओ वरना देर हो जाएगी”

दरवाजा खोलते ही बगल वाले कमरे में रहने वाले प्यारेलाल दिख गए उसे, ललिता ने जल्दी से उनसे समय पूछा और वापस आ गई। कमरे में घुसते ही अपना स्कूल बैग उठाया उसे पीठ पर लादा और हांफती हुई लज्जो के पास आई। “अम्मा साढ़े छह बज गए हैं जल्दी करो हमें पहले ही दिन स्कूल में देर से नहीं पहुंचना।” लज्जो ने जल्दी-जल्दी ललिता का खाना एक मिठाई के खाली डब्बे में रखा और डब्बा ललिता की पीठ पर लदे बस्ते की ऊपर वाली जेब में रख दिया, एक प्लास्टिक की खाली बोतल में मटके से निकाल कर पानी भरा और ललिता को थमा दिया। “जा वो खिड़की की ग्रिल में जो थैला टंगा है उसमें बहुत पन्नियां रखी है एक निकाल लें और ये बोतल उसमें रखकर अपने बस्ते में रख लें” ललिता को समझाकर लज्जो जल्दी से बिना चोटी खोले बस सिर के ऊपर ऊपर बालों पर कंघी फिराने लगी, सोचा साड़ी बदल कर दूसरी पहन लें फिर सोचा नई साड़ी खराब हो जाएगी तो पूजा व्रत में क्या पहनेगी वैसे भी ललिता स्कूल जा रही है, उसे तो सेठानी के घर काम पर जाना था।

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लज्जा के सोच विचार का नतीजा ये निकला कि वो पुरानी साड़ी में ही अपनी बेटी को पहले दिन स्कूल छोड़ने जाएगी। पर ललिता कुछ और चाहती थी उसे लज्जो का पुरानी साड़ी पहनकर अपने साथ चलना शायद पहली बार अखर रहा था। बोल ही पड़ी वो, “अम्मा तुम रहने दो हम चले जाएंगे स्कूल, बस दो गली छोड़ कर ही तो है, तुम सेठानी जी के घर जाओ वरना देर हो जाएगी”। लज्जो ने ताला चाबी उठाया और ललिता का हाथ पकड़ बाहर आ गई। “देखो बिटिया पहले चार दर्जा पढ़ लो तब अम्मा की अम्मा बनना, ऐसे कैसे अकेले जाने दे। तुम्हें स्कूल के दरवाजे पर छोड़कर हम वहीं से सेठानी जी के यहां चले जाएंगे”। ललिता चुपचाप अम्मा की अंगुली थामे चल पड़ी। रास्ते भर उसकी नज़रें दूसरे बच्चों को स्कूल लेकर आ रहे लोगों और अपनी अम्मा के कपड़ों की तुलना करती रहीं।   उधर स्कूल के बाहर बच्चे खेल रहे थे। कुछ लोग अपने बच्चों को छोड़कर वापस जा रहे थे, कुछ वहीं खड़े प्रार्थना की घंटी का इंतज़ार कर रहे थे।

“अच्छा अम्मा अब तुम जाओ, हम अंदर चले जाएंगे”। ललिता ने स्कूल तक पहुंचने से पहले ही अपनी अम्मा को रोक दिया। पर लज्जो ने उसकी बात को अनसुना कर दिया और स्कूल के गेट पर पहुंच कर रूकी, “लो आ गया स्कूल जाओ बिटिया मन लगाकर पड़ना” लज्जो ने ललिता की पीठ थपथपाते हुए कहा। ललिता मुस्कुराते हुए, हाथ हिलाते स्कूल के अंदर चली गई। लज्जो उसे कुछ दूर तक जाते हुए देखती रही फिर साड़ी के पल्लू से अपनी आंखों के कोने से निकलने की कोशिश कर रहे आंसुओं को वहीं दबाया और आगे बढ़ गई। अपनी सेठानी के घर की ओर। उधर ललिता के लिए स्कूल किसी दूसरी दुनिया से कम न था, सुंदर साफ इमारत। खेलने के लिए उबड़ खाबड़ नहीं बल्कि समतल साफ मैदान, सब कुछ बहुत अच्छा। एक ही जगह खड़ी ललिता ने चारों ओर नज़र दौड़ा ली उसकी छोटी- छोटी आंखों में काजल की मोटी लकीरों के बीच कुछ चमक उठा था। शायद उसके सपने अपने धरातल को देख मचलने लगे थे।

कहानी लंच बॉक्स।

अपने में खोई ललिता को एक हाथ ने झकझोरा। “कहां जाना है बेटा, नया एडमिशन है क्या”, वो स्कूल का एक चपरासी था। ललिता उसे कुछ बता नहीं पा रही थी। चपरासी ने उसके गले में टंगे स्कूल के आईकार्ड को हाथ में लेकर प़ढ़ा। “कौन सा क्लास है तुम्हारा? नर्सरी सेक्शन सी, देखो बेटा वो सामने जो क्लास दिख रही है वहीं जाना है तुम्हें, वही है तुम्हारी क्लास, जाओ और अपना बैग वहां रख दो, बस थोड़ी देर में प्रार्थना की घंटी होने वाली है”ललिता तेज़ी से अपनी क्लास की ओर बढ़ गई। अपना बैग पहली बेंच पर रखा और वहीं खड़ी दीवारों पर टंगे पोस्टर्स देखने लगी।

“अच्छा अम्मा अब तुम जाओ, हम अंदर चले जाएंगे”। ललिता ने स्कूल तक पहुंचने से पहले ही अपनी अम्मा को रोक दिया। पर लज्जो ने उसकी बात को अनसुना कर दिया और स्कूल के गेट पर पहुंच कर रूकी, “लो आ गया स्कूल जाओ बिटिया मन लगाकर पड़ना” लज्जो ने ललिता की पीठ थपथपाते हुए कहा।

“सुनो” एक छोटी बच्ची ने ललिता को हिलाते हुए कहा। “मेरा नाम डिंपल है और तुम्हारा नाम क्या है… क्या तुम हमारी क्लास में ही बैठोगी”, ललिता ने हां में सिर हिलाया “पर तुम तो हमसे बड़ी हो और बड़े बच्चे तो दूसरी क्लास में बैठते हैं”। ललिता कुछ देर शांत रही।” नहीं वो बाहर एक भइया थे उन्होंने मुझे यहीं बैठने को कहा है ललिता ने बड़े ही भोलेपन से जवाब दिया। तभी प्रार्थना की घंटी बज गई। ललिता, डिंपल और बाकी बच्चों के साथ ग्राउंड की ओर चली गई। हर क्लास का एक बच्चा बाकी बच्चों की लाइन बना रहा था। ललिता भी अपने क्लास की लाइन में खड़ी थी। सामने चार बच्चे माइक पर प्रेयर शुरू करते हैं। बाकी के बच्चे आंख मूद कर उन पंक्तियों को दोहराते हैं। ललिता भी गाने की कोशिश कर रही थी। पर प्रार्थना याद करने में अभी उसे वक्त लगेगा। प्रार्थना ख़त्म होने के बाद सभी क्लास के बच्चे लाइन से अपनी अपनी क्लास की ओर बढ़ गए। ललिता अपनी बेंच पर आकर बैठ गई।

डिंपल उसके बगल में उसी बेंच पर बैठी, ललिता बहुत खुश थी। शायद उसे भरोसा नहीं हो रहा था कि दिन की शुरुआत ऐसी भी हो सकती थी। तभी क्लास रूम में टीचर आ गईं। सारे बच्चे खड़े हो गए और एक सुर में गुड मॉर्निंग टीचर बोलते लगे। ललिता एक बार फिर कुछ समझ नहीं पाई। बस दूसरे बच्चों को देखकर वो भी खड़ी हो गई। टीचर के बैठते ही सारे बच्चे फिर से बैठ गए और कुछ पल के लिए शांत हुए क्लास रूम में फिर से खुसर फुसर की आवाज़े भरने लगीं। एक एक करके आधे-आधे घंटे की चार क्लासेस निकल गईं। ललिता सब कुछ तेज़ी से समझने की कोशिश कर रही है। हालांकि स्कूल में एडमिशन से पहले ललिता अपने पड़ोस में रहने वाली रेनू दीदी से रोज़ एक घंटा पढ़ती थी। लज्जो पूरे सौ रुपये देती थी और बेटी को स्कूल न भेज पाने की भरपाई करने की कोशिश कर लेती। तभी इंटरवेल की घंटी बजते ही क्लास रूम में धमाचौकड़ी शुरू हो गई। पूनम ने सिम्मी के बालों में बंधा रिबन खोल दिया तो रोहित ने सूरज की ड्राईंग बुक गंदी कर दी। ऐसा लग रहा था मानो मुट्ठी में कैद जुगनुओं को खुला छोड़ दिया गया हो। डिंपल ने अपने बैग से लंच बॉक्स निकाला, ललिता की नज़र जैसे ही उस खाने के डब्बे पर पड़ी वो बस उसे ही घूरती रही, नहीं-नहीं उसे खाना देखकर लालच नहीं आ रहा था बल्कि वो लंचबॉक्स के गुलाबी और सुनहरे रंगों में खो गई थी।

“तुम खाना नहीं लाई।” डिंपल ने अपने टिफिन में रखे सैंडविच का एक टुकड़ा मुंह में भरते हुए कहा। डिंपल की आवाज़ से ललिता का ध्यान लंचबॉक्स से हटा, बेमन से उसने बस्ते की ऊपर वाली जेब में रखा मिठाई का डब्बा निकाला और बेंच पर रख कर खोलने लगी “अरे वाह तुम खाने में मिठाई लाई हो... डिंपल ने खुश होते हुए पूछा। डिंपल की आवाज़ सुनकर पीछे की बेंच पर बैठी सुमन, रेखा और शोहम भी आगे आकर खड़े हो गए। “.मिठाई… हमें भी खानी है...” सभी बच्चों ने एक ही आवाज़ में कहा। “नहीं अम्मा ने इसमें खाना दिया है”। ललिता ने थोड़ा सकुचाते हुए जवाब दिय़ा। ललिता का जवाब सुनकर सुमन रेखा और शोहम हंसने लगे और ललिता को चिढ़ाते हुए वापस अपनी सीट पर जाकर लंच करने लगे। “ललिता तुम मिठाई के डब्बे में खाना क्यों लाई हो। क्या तुम्हारे पास टिफिन बॉक्स नहीं है?” नहीं, ललिता ने बिना ज़्यादा कुछ कहे डिंपल को जवाब दिया। डिंपल ने अपना पूरा टिफिन ख़त्म कर दिया था पर ललिता के डब्बे से सिर्फ आधी पूरी ख़त्म हुई थी। ललिता का ध्यान खाना ख़त्म करने में कम और डिंपल के रंग बिरंगे टिफिन पर ज़्यादा था। डिंपल ने अपना डिफिन बंद किया और बैग में रखने लगी। पर गलती से टिफिन नीचे फर्श पर गिर गया और खुल गया, ललिता झट से अपना खाना छोड़ कर उठी और ललिता का डिफिन उठा लिया। टिफिन को उठाते ही ललिता के होठों पर मुस्कान फैल गई। उसे उलट पलट कर देखने लगी। “कितने रुपयों का है ये,” ललिता ने डिंपल की ओर टिफिन बढ़ाते हुए पूछा...“पता नहीं... पापा लाए थे, बॉटल और पेंसिल ब़ॉक्स भी नया है मेरे पास देखोगी” पर ललिता का पूरा ध्यान डिंपल की बातों के बजाय टिफिन बॉक्स के ढ़क्कन पर था। “ये चम्मच इसमें तुम्हारी अम्मा ने लगाया है।”

लज्जो अपनी बिटिया को समझने की कोशिश करती रही पर नाकाम रही और चुपचाप रसोई की तरफ बढ़ गई। रोज की तरह आज भी लज्जो दोपहर का खाना अपनी सेठानी के घर से ही लाई थी। लज्जो ने खाना निकाला और दोनों मां-बेटी खाने बैठ गईं। खाते वक्त भी ललिता हिन्दी और अंग्रेजी कविता की किताबें साथ लेकर बैठी थी।

ललिता का सवाल सुनकर डिंपल हंसने लगी।“नहीं ये तो पहले से था। तब से जब से पापा लाए हैं। दुकान वाले अंकल ने लगाया होगा…” डिंपल ने बड़े ही भोलेपन से जवाब दिया। “अरे इसमें पीछे तो खिलौना भी बना है” ललिता ने एक बार फिर चौंकते हुए कहा। “हां। मेरे पापा बड़ी वाली दुकान से लाए थे ये टिफिन,” डिंपल ने ललिता के हाथ से टिफिन ले लिया और उसे अपने बैग में रख लिया। ललिता का मन अब भी उसी टिफिन पर अटका था। अपना अधूरा खाना ललिता ने वैसा ही वापस बस्ते की ऊपर वाली जेब में रख दिया। डिंपल ने ललिता से प्लेग्राउंड में चलकर खेलने को कहा और दोनों क्लास रूम से बाहर चली गईं। टन-टन के घंटे के साथ तीस मिनट का इंटरवेल ख़त्म हो गया। सारे बच्चे वापस क्लास रूम की ओर दौड़ पड़े। ललिता और डिंपल भी अपनी बेंच पर आकर बैठ गईं। इंटरवल के बाद नर्सरी क्लास का ड्रॉइंग पीरियड था। ड्रॉइंग टीचर कल्पना अपनी कलरफुल साड़ी में क्लास रूम में घुसीं उनके साथ कोई और भी था। एक बार फिर पूरा क्लास गुडमॉर्निंग टीचर की आवाज़ से गूंज उठा। “गुडमॉर्निंग बच्चों, आज मेरे पास आप सब के लिए कुछ सरप्राइज़ है” कल्पना मैम के इतना बोलते ही सारा क्लास बच्चों की तालियों की गड़गड़ाहट से भर गया। कल्पना ने बच्चों को ज़्यादा सस्पेंस में नहीं रखा और बताया कि उनके साथ आए अंकल का नाम कपिल है और वो बच्चों के लिए एक इंट्रस्टिंग पोयम कॉम्पिटीशन लेकर आए हैं। इसमें हिस्सा लेने वाले बच्चों को 2 हिन्दी और 2 अंग्रेजी की कविताएं सुनानी होंगी और जो बच्चा जीतेगा उसे प्राइज़ मिलेगा। दरअसल कपिल बच्चों के खिलौने और एसीसरीज़ बनाने वाली एक बड़ी कंपनी के प्रोमोशन के लिए यहां आए थे। कपिल ने बताया कि फर्स्ट आने वाले बच्चे को मिलेगा स्कूल बैग, सेकेंड आने वाले बच्चे को मिलेगा खूबसूरत टिफिन बॉक्स और थर्ड आने वाले को मिलेगा पेंसिल बॉक्स।

सभी बच्चों को कपिल की बातें सुनने में मज़ा आ रहा था। कोई उन्हें अपना फेवरेट कार्टून कैरेक्टर बता रहा था तो कोई अपना फेवरेट फूड। इन सब से अलग ललिता कहीं और ही खोई थी। स्कूल आने का सपना पूरा होने के बाद उसकी छोटी आंखों में एक नया छोटा सुंदर और मासूम सपना उड़ान भरने को तैयार था और वो था कविता प्रतियोगिता में दूसरे नंबर पर आना और ईनाम में खाने का डब्बा जीतना। छुट्टी की घंटी के साथ ही ललिता का स्कूल में पहला दिन ख़त्म हो गया। इस पहले ही दिन ने ललिता को एक नया सपना और उसे पूरा करने का रास्ता दोनों दिखा दिए। ललिता जैसे ही स्कूल से बाहर निकली गेट के पास अपनी अम्मा को इंतज़ार करते खड़ा देखा। ललिता दौड़ते हुए अम्मा के सीने से लग गई। लज्जो ने अपनी लाडली के माथे को चूमा और स्कूल का हाल पूछने लगी। ललिता ने सुबह स्कूल में घुसने से लेकर छुट्टी तक की सारी बातें सिलसिलेवार अपनी अम्मा को बता दी, ललिता की बातों में ही रास्ता कट गया और दोनों घर पहुंच गईं। ललिता ने अपनी अम्मा को यह भी बता दिया कि अब वो लंचबॉक्स में ही लंच ले जाएंगी मिठाई के डब्बे में नहीं। लज्जों ने ललिता को समझाया कि अगले महीने जब पगार मिलेगी तब ला देगी वो उसका खाने का डब्बा। पर ललिता ने उल्टा लज्जो को ही समझा दिया “अम्मा तुम परेशान न हो, कल हम उस कविता प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर आकर वो खाने का डब्बा जीत लेंगे और फिर उसी में खाना ले जाया करेंगे”। अपनी अम्मा को आत्मविश्वास का पाठ पढ़ा कर ललिता ने बस्ता चारपाई पर रखा और कमरे के एक कोने में दो दीवारों की आड़ में बने बाथरूम में हाथ मुंह धोने चली गई।

लज्जो अपनी बिटिया को समझने की कोशिश करती रही पर नाकाम रही और चुपचाप रसोई की तरफ बढ़ गई। रोज की तरह आज भी लज्जो दोपहर का खाना अपनी सेठानी के घर से ही लाई थी। लज्जो ने खाना निकाला और दोनों मां-बेटी खाने बैठ गईं। खाते वक्त भी ललिता हिन्दी और अंग्रेजी कविता की किताबें साथ लेकर बैठी थी। “अब क्या खाने में घोलकर पीयेगी किताबें। दूर रख इन्हें वरना खाना गिर जायेगा इन पर” लज्जो ने किताबें दूर सरका दी। ललिता ने हाथ बढ़ाकर उन्हें फिर अपने पास रख दिया। “अम्मा तुम समझ नहीं रही हम देख रहे हैं कि कौन सी कविता याद करें। देखो हिन्दी की दो कविताएं तो हमें आती हैं वो हम जब रेनू दीदी से पढ़ने जाते थे तब उन्होंने सिखाई थीं, पर अंग्रेजी की तो एक भी नहीं आती।

किताब में हम बस यही देख रहे है जिसमें कम लिखा हो। बस उसे याद कर लेंगे। ललिता की बातों और तर्क के सामने लज्जो ने हाथ खड़े कर दिए। खाना खाकर ललिता अपनी किताबें लेकर बाहर जाने लगी। “कहां जा रही है। थोड़ी देर आराम कर ले फिर जाना खेलने” खाने के बर्तन धोते धोते लज्जो ने ललिता को आवाज़ दी। “अम्मा रेनू दीदी के घर जा रहे हैं कविता याद करने, रात को सो लेंगे” ललिता ने दरवाज़े लगाया और बाहर निकल गई। रेनू ललिता के पड़ोस में ही रहती थी और ग्रेजुएशन कर रही थी साथ ही आस-पास के बच्चों को ट्यूशन देती थी। जब ललिता रेनू के घर पहुंची तब वो खुद पढ़ रही थी। ललिता ने पहुंचते ही बिना सांस लिए रेनू को अपने स्कूल के पहले दिन और कविता प्रतियोगिता के बारे में सब बता दिया। “अच्छा हमारी ललिता को खाने का डब्बा जीतना है पर तुम दूसरे नंबर पर क्यों आना चाहती हो। पहले पर क्यों नहीं” रेनू ने मुस्कुरा कर ललिता से पूछा। “नहीं दीदी पहला नंबर नहीं लाना क्योंकि खाने का डब्बा दूसरे नंबर पर मिलेगा और हमें बस्ता नहीं सिर्फ खाने का डब्बा जीतना है क्योंकि बस्ता तो हमारे पास है…।” ललिता ने बड़ी ही मासूमियत से अपना इरादा साफ कर दिया। इतनी छोटी सी बच्ची में लक्ष्य के प्रति इतनी साफ नज़र देखकर रेनू हैरान भी थी और खुश भी। रेनू ने ललिता के हाथ से कविता की किताब ले ली और उसमें से अंग्रेजी की दो कविताएं ललिता को एक-एक करके समझाकर याद करानी शुरू कर दी और ललिता ने बस दो घंटे में दो कविताएं याद कर लीं, हिन्दी की कविताएं उसे पहले से याद थीं। अब ललिता तैयार थी अपने रंग बिरंगे खाने के डब्बे को जीतने के लिए।

रात के ग्यारह बज रहे थे पर ललिता की आंखों से नींद गायब थी। उसके हाथों में अभी भी कविता की किताब थी और आंखें किताब की तस्वीरों और अक्षरों में न जाने क्या तलाश रहे थीं। लज्जो ने अपना सारा काम निपटा लिया था। ललिता का बस्ता और यूनीफॉर्म सलीके से कुर्सी पर रख दिए थे। “चल अब किताब रख दे और सो जा वरना सुबह देर हो जाएगी, स्कूल जाने में..”। लज्जो ने ललिता के हाथ से किताब लेकर उसके बस्ते में रख दी और बत्ती बंद कर उसके पास आकर लेटकर उसका सिर ठोंक कर उसे सुलाने लगी। ललिता की आंखे बंद थी पर होंठ जॉनी-ज़ॉनी यस पापा और टिंवकल टिंवकल लिटिल स्टार बुदबुदा रहे थे। थोड़ी देर में ललिता सो गई, पर रात भर नींद में कविता की पंक्तियां बड़बड़ाती रही। सुबह 6 बजे लज्जो ने ललिता को उठने के लिए आवाज़ दी। ललिता एक ही आवाज़ में उठ गई 15 मिनट में ललिता नहाकर तैयार थी स्कूल जाने के लिए। लज्जो ने ललिता को एक हाथ में दूध का गिलास थमाया और दूसरे में घी चुपड़ी एक रोटी। “और खानी है तो एक और रोटी खा ले। खाना तो तू ले न जाइगी आज।” लज्जो ने ललिता की ओर एक और रोटी बढ़ाई। “अम्मा बस आज की बात है। आज हम डब्बा जीत लेंगे तब कल से उसी में ले जाएंगे खाना”। लज्जो को बेटी की खुशी से डर लग रहा था।

अगर ललिता न जीती तब क्या होगा। किसी तरह लज्जो ने अपने डर की सिलवटें अपने चेहरे पर आने से रोकी और ललिता को लेकर स्कूल की ओर निकल पड़ी। स्कूल में आज ललिता पहले दिन से भी ज़्यादा खुश थी। इंटरवल के बाद उसकी क्लास में कविता प्रतियोगिता होनी था और स्कूल आने से लेकर इंटरवल तक उसने करीब दस बार चारों कविताएं दोहरा ली थीं। इंटरवल के बाद अर्चना मैडम कपिल को लेकर क्लास रूम में आईं। कपिल के हाथ में एक बड़ा सा बैग था उसमें ईनाम के तोहफे थे। कपिल ने तोहफे टेबल पर रख दिए। लंचबॉक्स तो बिल्कुल वैसा था जैसा ललिता को चाहिए था अब तो ललिता की जीतने की इच्छा और बढ़ गई थी। कविता सुनाने का सिलसिला शुरू हो गया। पहला नंबर डिंपल का था उसने सिर्फ एक अंग्रेजी की कविता सुनाई। डिंपल के बाद ही ललिता का नंबर आ गया। ललिता ने चारों कविताएं सुना दीं, पूरे क्लास ने उसके लिए तालियां बजाईं। टीचर ने भी ललिता को शाबाशी दी। एक एक करके सभी बच्चों ने कविताएं सुनाई।

रात के ग्यारह बज रहे थे पर ललिता की आंखों से नींद गायब थी। उसके हाथों में अभी भी कविता की किताब थी और आंखें किताब की तस्वीरों और अक्षरों में न जाने क्या तलाश रहे थीं। लज्जो ने अपना सारा काम निपटा लिया था। ललिता का बस्ता और यूनीफॉर्म सलीके से कुर्सी पर रख दिए थे।

किसी ने एक किसी ने दो तो किसी ने तीन। पर चार कविता सुनाने वाली बस ललिता ही थी। थोड़ी देर में विजेताओं की घोषणा की गई और क्योंकि सिर्फ ललिता ने चार कविताएं सुनाई थीं उसे पहला स्थान मिला। दूसरे और तीसरे नंबर पर रोहन रात के ग्यारह बज रहे थे पर ललिता की आंखों से नींद गायब थी। उसके हाथों में अभी भी कविता की किताब थी और आंखें किताब की तस्वीरों और अक्षरों में न जाने क्या तलाश रहे थीं। लज्जो ने अपना सारा काम निपटा लिया था। ललिता का बस्ता और यूनीफॉर्म सलीके से कुर्सी पर रख दिए थे। गुंजन थे। सभी खुश थे सिवाय ललिता के, उसे तो दूसरे नंबर पर आना था फिर पहले पर क्यों और कैसे आ गई। उसका भोलामन अपनी जीत को हार मान रहा था। उदास मन और नम आंखों के साथ ललिता अपना ईनाम लेने गई। जब उसे स्कूल बैग का पैकेट दिया गया तब उसके आंसू छलक गए। रो पड़ी वो। “क्या हुआ ललिता…” कल्पना मैम ने उसे गले से लगाते हुए पूछा। पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। अपने आंसू पोंछे और वापस अपनी बेंच पर आकर बैठ गई। थोड़ी देर बाद छुट्टी की घंटी बजी आज ललिता को अकेले घर जाना था, अम्मा ने सुबह ही घर की चाबी देते हुए बता दिया था कि सेठानी के घर से आने में उन्हें देर हो जाएंगी। घर पहुंच कर ललिता ने ईनाम के जीते बैग के पैकेट को ज़मीन पर फेंक दिया और कोने में जाकर बैठ कर रोने लगी।

15-20 मिनट बाद लज्जो आई तो दरवाजा खुला था, घर में सन्नाटा देखकर लज्जो को लगा ललिता प्रतियोगिता हार गई। इधर उधर नज़र दौड़ाई तो ललिता चारपाई के कोने में दुबकी बैठी दिखी। लज्जो ललिता के पास गई और प्यार से सिर पर हाथ फेरा। ललिता रोते हुए लज्जो से चिपट गई। “कोई बात नहीं बिटिया। अगली बार जीत जाओगी” लज्जो ने अपने आंचल से ललिता के आंसू पोंछे। सुबकते हुए ललिता ने लज्जो को बताया कि वो हारी नहीं थी पर उसे दूसरा नहीं पहला स्थान मिला और खाने के डब्बे की जगह बस्ता मिल गया। ललिता और ज़ोर से रोने लगी। “पर बिटिया पहला तो शायद दूसरे से बड़ा होता है न फिर काहे दुखी हो रही हो।” लज्जो ने ललिता को समझाते हुए कहा। “अम्मा हमें तो बस वो रंग बिरंगा खाने का डब्बा चाहिए था। पहला दूसरा कुछ नहीं”।

ललिता चुप होने को तैयार नहीं थी। तब लज्जो धीरे से उठी और एक काले रंग की थैली लाकर ललिता के गोद में डाल दी। थैली देखकर ललिता का रोना बंद हो गया, आंसू पोंछकर थैली उठाई और खोलने लगी। “…लो ले लो अपने दूसरे स्थान का ईनाम।” थैली में लंचबॉक्स था। ललिता खुशी से नाच उठी। थोड़ी देर पहले जिसकी आंखों से आंसूओं की गंगा जमुना बह रही थीं अब होठों से हंसी के फूल झड़ने लगे। ललिता लज्जो से लिपट गई। “अम्मा तुम कहां से लाई ये खाने का डब्बा” ललिता ने डब्बे को चूमते हुए पूछा। “बिटिया हमें तो उम्मीद न थी कि तुम जीत भी पाओगी इसलिए सोचे कि हम ही ला दे तुम्हारा ईनाम इसलिए सेठानी जी से कुछ पैसे उधार लिए और रेनू बिटिया के साथ जाकर ये खाने का डब्बा ले आए। पर बिटिया प्रतियोगिता जीत कर तुमने हमें बहुत खुशी दी है। अब तो डब्बे पर पैसा खर्च करने का कोई मलाल नहीं हो रहा हमें”। ललिता अपना खाने का डब्बा पाकर खुश थी और लज्जो अपनी बिटिया की जीत से। थोड़े ही सही पर सपने और इच्छाएं पूरी होने का जश्न उस एक कमरे के छोटे से घर में खीर पूरी के साथ चल रहा था।


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