जब गोमूत्र से बना जीवामृत है तो रसायन खाद की क्या जरुरत

Update: 2017-06-17 18:07 GMT
किसान राधेश्याम शर्मा गाय के गोबर का सबसे बढ़िया प्रयोग करते हैं।

ज्ञानेश शर्मा/जितेंद्र कुमार

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

अलीगढ़। जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर अतरौली तहसील के गांव खेडिया बहादुरगढ़ी के उन्नतिशील किसान राधेश्याम शर्मा फसल में जीवामृत खाद बनाकर फसल में प्रयोग कर रहे हैं। ऐसे में उन्होंने रसायन खाद से तोबा कर ली है। गाय के गोबर और मूत्र से तैयार खाद को उन्होंने जीवामृत नाम दिया है। गाय के गोबर और मूत्र का प्रयोग वह इतने बढिया तरीके से करते हैं कि लोग उन्हें दूसरा बाबा रामदेव कहकर पुकारने लगे हैं।

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अतरौली तहसील के गांव खेडिया बहादुरगढी निवासी 58 वर्षीय किसान राधेश्याम शर्मा कक्षा आठवीं पास हैं। उनके पास खुद की एक एकड़ जमीन है। जमीन में वह रसायन खाद का प्रयोग कतई नहीं करते और बिना रसायन खाद के ही हर साल कम लागत पर सबसे अधिक पैदावार फसल में ले रहे हैं।

ऐसे बनाते हैं जीवा मृत खाद

राधेश्याम शर्मा बताते हैं,“ पांच बीघा खेत के लिए जीवामृत के लिए वह गाय का 10 किलो गोबर, 10 किलो गोमूत्र, एक किलो बेसन, एक किलो पुराना गुड, एक किलो पीपल के पेड के नीचे से मिटटी लेते हैं।इस सबका एक जगह घोल बना लेते हैं। दस दिन तक सुबह शाम इसको हिलाना होता है। फिर सुखा के गोबर या घूरे पर छिडक देते हैं और खेत खाली होने के बाद गोबर को खेत में डाल दिया जाता है। यदिखेत में फसल खडी है तो जब फसल में पानी चलता है तब डिब्बा से जीवामृत डालना होता है जो पानी के साथ फसल में फैल जाता है। इस प्रयोग के बाद डीएपी या यूरिया की कतई जरुरत नहीं पड़ती। ”

राधेश्याम शर्मा आगे बताते हैं, “इस बार इस प्रयोग से गेहूं की फसल में चार कुटल प्रति बीघा के हिसाब से पैदावार हुई ज्यादा हुई जो कि डीएपी और यूरिया का प्रयोग करने वाले किसानों से बहुत बेहतर है।”

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कई बार किया जा चुका है सम्मानित

राधेश्याम शर्मा को उनके बेहतर पैदावार के लिए कई बार जिलाप्रदेश स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है। फसलों में भी वह हर साल नई नई वैरायटी बोकर किसानों के लिए प्रेरणा बनते जा रहे हैं। उनकीइस उन्नति के लिए कई बार अधिकारी उनकी पीठ थपथपा चुके हैं।

परम्परागत खेती से हटकर किसान नया करें उनकी हर संभव मदद की जाएगी। किसानों को कृषि विभाग की साइड पर अपना ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराकर सरकारी योजनाओं का लाभ उठाना चाहिए।

विशंभर सिंह, एडीओ, कृषि अतरौली

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