"मुझे इस सब से क्या मिल रहा है?" — गाँव के सरकारी प्राथमिक विद्यालय की टीचर ने खुद से सवाल किया और फिर उन्हें जवाब मिल गया

साधना पांडे पिछले एक दशक से गोरखपुर के भरोहिया प्रखंड के उर्दीचक प्राथमिक विद्यालय में पढ़ा रही हैं। स्कूल आने-जाने में रोजाना लगने वाला तीन घंटे का समय, स्कूल में बच्चों की कम उपस्थिति और बुनियादी ढांचे की कमी के साथ यह कोई आसान सफर नहीं था। लेकिन ऐसा क्या था जिसने उनके स्कूल की तरफ बढ़ते कदमों को कभी रुकने नहीं दिया- इस सवाल को वह हमेशा अपने-आप से करती रहती हैं।

Update: 2023-03-27 12:16 GMT

उर्दीचक (गोरखपुर), उत्तर प्रदेश। करीने से पिन अप की हुई एक चमकदार साड़ी में साधना पांडेय सुबह 7:40 बजे गोरखपुर शहर में अपने घर से निकलती हैं। वह एक वैन में बैठती है और 35 किलोमीटर दूर उर्दीचक प्राइमरी स्कूल पहुंच जाती हैं। स्कूल के कुछ और टीचर भी पांडेय के साथ वैन में उनके साथ ही आते है। पांडेय पिछले 10 सालों से इस स्कूल की इंचार्ज हैं।

वैन उन्हें उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के भरोहिया ब्लॉक के सरकारी स्कूल से आधा किलोमीटर पहले उतार देती है। शायद वहां से आगे गाड़ी जाने का रास्ता नहीं है। पांडेय और उनके साथी टीचर पैदल मार्च कर स्कूल की दूरी तय करते हैं। अब चाहे बारिश का मौसम हो, कड़ाके की ठंड हो या चिलचिलाती गर्मी, उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, उनकी यह रोजाना की दिनचर्या है।

लेकिन पांडेय ने कभी कोई शिकायत नहीं की। उन्होंने इससे भी ज्यादा थका देने वाले दिन देखे हैं। 2013 में जब उन्हें प्रधानाध्यापक बना इस स्कूल में भेजा गया था, तब उनकी बेटी महज चार महीने की थी। उसे अपनी सास के पास घर पर छोड़ कर वह स्कूल के लिए सुबह 6 बजे निकल जाती थीं। एक सार्वजनिक बस में 35 किलोमीटर का रोजाना का सफर उन्हें आज भी याद है। सिजेरियन डिलीवरी के टांकों का दर्द उनके लिए काफी असहनीय हो जाता था।


पांडेय ने गाँव कनेक्शन को बताया, "कभी-कभी बस के इंतजार में एक घंटे से ज्यादा समय तक चिलचिलाती गर्मी में खड़ा रहना पड़ता था।"

बस से स्कूल आने में लगभग दो घंटे लग जाते थे। बस जहां उतारती थी उससे स्कूल 2.5 किलोमीटर की दूरी पर था। इस दूरी को पैदल पार करने में उन्हें 40 मिनट से ज्यादा लग जाया करते थे।

स्कूल पहुंचने के इस 40 मिनट के पैदल सफर ने पांडे को आत्मनिरीक्षण करने के लिए पर्याप्त समय दिया। वह रास्तें में चलते हुए अकसर अपने आप से सवाल किया करती थीं, “आखिर मुझे इस सबसे क्या हासिल हो रहा है।”

34 साल की पांडेय फिर अपनी बच्ची को याद करने लगती, जो घर लौटने पर उससे लिपट जाती थी, इस डर से कि वह फिर से चली जाएगी। पांडेय ने कहा, " मैंने अपने आप से सवाल किया कि जो मैं कर रही हूं, क्या उसके कोई मायने हैं? अपनी बच्ची को लेकर हमेशा मन में उथल-पुथल बनी रहती थी। इस सवाल का जवाब ढूंढ़ते-ढूंढते मैं स्कूल के बच्चों के बारे में सोचने लगती। फिर मुझे लगा कि मैं उन्हें भला कैसे छोड़ सकती हूं।"

लेकिन स्कूल पहुंचना ही उनके लिए एकमात्र चुनौती नहीं थी। उर्दीचक गाँव के बच्चों को नियमित रूप से स्कूल आने के लिए तैयार करना भी एक चुनौती थी। उन्होंने कहा, " स्कूल में बच्चों की संख्या काफी ज्यादा थी। सभी बच्चों को कक्षाओं में लाने और उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए हमेशा संघर्ष करना पड़ता था।"


हालांकि पांडे अपनी शंकाओं और अपनी नौकरी को लेकर दूसरी तमाम तरह के विचारों से घिरी हुई थीं, लेकिन उन्होंने अपना ध्यान या अपना समर्पण नहीं खोया। उन्होंने बच्चों की स्कूल में उपस्थिति को बेहतर बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। शिक्षा को मनोरंजक बनाने के लिए लगातार नए-नए तरीके खोजती रहीं।

एक शिक्षक के कई प्रयोग

पांडे ने छात्रों को व्यस्त रखने के लिए अपनाए गए तरीकों के बारे में बताया, "मैं छात्रों को स्थानीय क्षेत्रीय नृत्य शैली ‘फरुवाही’ सिखाने लगी। इससे बच्चों की उपस्थिति बढ़ने लगी। फिर मैंने स्कूल में खेल-कूद की गतिविधियों पर ध्यान देना शुरू किया और उसका भी सकारात्मक प्रभाव पड़ा। यह सब करना छात्रों को अच्छा लग रहा था। मैंने पूर्ण उपस्थिति के लिए एक मासिक पुरस्कार की घोषणा की, और शनिवार का आधा दिन बच्चों के लिए बागवानी करने के लिए रखा।"

उन्होंने कहा, "अगर कोई छात्र लगातार तीन दिनों तक स्कूल नहीं आता तो मैं उन बच्चों के अभिभावकों को स्कूल में बुलाती और उसकी वजह जानने की कोशिश करती हूं।"


शास्त्रीय संगीत के प्रति उनका प्रेम साफ झलकता है। कोरस सिंगिग बच्चों के लिए प्राथमिक स्कूल की गतिविधियों का एक खास हिस्सा है।

एक और काम जो उन्होंने किया, वह था स्कूल के लिए घंटी खरीदना। “जब मैंने स्कूल आना शुरू किया था, तब क्लास खत्म होने पर बजने वाली घंटी ग्रामीणों से उधार ली हुई थी। यह वही घंटी थी जिसका इस्तेमाल गाँव में किसी की मौत से जुड़े समारोहों में किया जाता था

पांडेय को अपने छात्रों की उपलब्धियों पर बहुत गर्व है। उन्होंने कहा, “एक छात्र 30 तक पहाड़े जानता है। चार अन्य बच्चों को उत्तर प्रदेश के सभी जिलों के नाम पता हैं। और बहुत से छात्र हैं जो देश के सभी राज्यों की राजधानियों के बारे में बता सकते हैं।”

पांडेय ने बताया कि उर्दीचक प्राइमरी स्कूल में 102 छात्र नामांकित हैं। इसमें से 80 फीसदी बच्चे रोजाना स्कूल आते हैं। गाँव में मुख्य रूप से अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) के लोग रहते हैं।


पांडेय ने कहा कि उनके छात्रों प्यार भरा व्यवहार उन्हें हमेशा आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करता रहा है। “लॉकडाउन के दौरान गाँव की लड़कियों का एक ग्रुप मेरे पास आया और मुझे शिक्षक दिवस पर एक पैन और एक वॉल हैंगिंग गिफ्ट किया।”

अभी पांडेय स्कूली छात्रों के लिए डेस्क और बेंच दिलाने की कोशिशों में लगीं हैं। उन्होंने चिंता जाहिर करते हुए कहा, “हम कुर्सियों पर बैठते हैं और वे दरी पर। क्या उन्हें ठंडे नहीं लगती होगी।"

जैसे ही वह स्कूल में अंदर आती है, बच्चे उनका अभिवादन करने लगते है। यह पांडे की मेहनत का नतीजा है। उन्होंने कहा, "यह सब मुझे अपनी व्यक्तिगत परेशानियों के तनाव से दूर ले जाता है।"

अपनी साड़ी की सिलवटों को ठीक करते हुए उन्होंने कहा, "मैं साड़ी पहनने से थोड़ा बचती हूं क्योंकि इसमें समय लगता है। लेकिन स्कूल के बच्चे कहते हैं कि मैं साड़ी में अच्छी लगती हूँ।" स्कूल परिसर में खेल रहे छात्रों की ओर देखते हुए प्रधानाध्यापिका शरमा कर मुस्कुराने लगीं।

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