भेड़ों में होने वाली इन रोगों का रखें ध्यान, नहीं होगा घाटा

Diti Bajpai | Apr 17, 2018, 14:30 IST
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भेड़ पालन व्यवसाय को कम लागत से शुरू करके अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। लेकिन अगर पशुपालक इनमें होने वाली बीमारियों को ध्यान न दें तो इनको आर्थिक नुकसान भी हो सकता है।

इस व्यवसाय से देश के लाखों परिवार जुड़े हुए हैं। भेड़ का पालन मांस के साथ-साथ ऊन, खाद, दूध, चमड़ा, जैसे कई उत्पादों के लिए किया जाता है।

विश्व की भेड़ जनसंख्या की लगभग 4 प्रतिशत भेड़ भारत में हैं। भेड़ सामान्यतः कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में पायी जाती हैं। भारत में प्रति भेड़ से प्रति वर्ष 1 किलोग्राम से भी कम ऊन का उत्पादन होता है। मांस उत्पादन की दृष्टि से भारतीय भेड़ों का औसत वजन 25 किग्रा. से 30 किग्रा. के बीच होता है। राजस्थान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भेड़ पाली जाती हैं।

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भेड़ों में होने वाले रोग और उनसे बचाव

खुरपका-मुंहपका रोग

यह बीमारी विषाणु जनित होती है। इसलिए यह एक पशु से दूसरे पशु में बहुत तेजी से फैलता है। इस रोग से ग्रसित पशु के मुंह, जीभ, होंठ व खुरों के बीच की खाल में फफोले पड़ जाते है। भारत सरकार द्वारा इस बीमारी के साल में दो बार टीकाकरण भी किया जाता है। मुंह व जीभ के अन्दर छाले हो जाने से भेड़-बकरियां घास नहीं खा पाती व कमज़ोर हो जाती है।

बचाव

अगर किसी पशु को यह बीमारी है तो उसको सबसे पहले अलग कर देना चाहिए। भेड़ पालक को छह महीने के अन्तराल के दौरान एफएमडी का टीकाकरण करवाना चाहिए|

ब्रूसीलोसिस

यह बीमारी जीवाणु द्वारा होती है, इस बीमारी में गाभिन भेड़ों में चार या साढ़े चार महीने के दौरान गर्भपात हो जाता है, बीमार भेड़ की बच्चेदानी भी पक जाती है| गर्भपात होने वाली भेड़-बकरियों की जेर भी नहीं गिरती, इस बीमारी से मेंढों व बकरों के अण्डकोश पक जाता है तथा घुटनों में भी सूजन आ जाती है, जिससे इनकी प्रजनन क्षमता कम हो जाती है|

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बचाव

इस रोग के लक्षण पाऐ जाने पर भेड़ पालक को सारे का सारा झुंड खत्म कर नये जानवर पालने चाहिए| कई बार भेड़ पालक गर्भपात हुए मृत मेमने को उसके भेड़ की जेर खुले में फेंक देते है जिससे की इस बीमारी के कीटाणु अन्य झुंड में भी फैल जाते है| अत: भेड़ पालकों को चाहिए कि वह ऐसे मृत मेमने व जेर को गहरा गढ्ढा कर उसमें दबा देना चाहिए|

गलघोंटू

यह बीमारी भेड़-बकरियों में जीवाणुओं द्वारा फैलता है। जब भेड़ पालक अपने झुंड को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है उस समय इस रोग के अधिक फैलने की संम्भावना होती है| इस बीमारी से भेड़-बकरियों के गले में सूजन हो जाती है जिससे उसे सांस लेने में कठिनाई होती है तथा इस बीमारी में भेड़-बकरी को तेज़ बुखार, नाक से लार निकना तथा निमोनिया हो जाता है|

गोल कीड़े

इस प्रकार के कीड़े मुख्यता भेड़ों की आंतों में पहले धागे की तरह लम्बे व सफेद रंग के होते हैं जोकि भेड़-बकरियों की आंतों से खून चूसते हैं, कई बार भेड़ों में इन कीड़ों के कारण दस्त लगते हैं, जिससे जानवर कमज़ोर हो जाता है, तथा ऊन उत्पादन में भी कमी आ जाती है|

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बचाव

भेड़ अपनी भेड़ों को वर्ष में कम से कम तीन बार पेट के कीड़ों को मारने की दवाई पशु चिकित्सक की सलाह से जरुर पिलाएं।

भेड़ों में चर्म रोग

अन्य पशुओं की तरह भेड़-बकरियों में भी जूएं, पिस्सु, इत्यादि परजीवी होते हैं। यह भेड़ों की चमड़ी में अनेक प्रकार के रोग पैदा करते हैं, जिससे जानवर के शरीर में खुजली हो जाती है और जानवर अपने शरीर को बार-बार दूसरे जानवरों के शरीर व पत्थर या पेड़ से खुजलाता है।

बचाव

भेड़ की खाल की जांच पशु चिकित्सक से करवाएं, तथा स्वस्थ भेड़-बकरियों को बीमारी वाले जानवरों से अलग रखें। इस रोग के बचाव हेतू वर्ष में भेड़-बकरियों को कम से कम दो बार कीटनाशक स्नान अवश्य करवाएं।

भेड़ों में रेबीज रोग

यह बीमारी भेड़ों को पागल कुत्तों/लोमड़ी व नेवले के काटने से होती है। बीमारी हो जाने पर इसका ईलाज हो पाना सम्भंव नहीं है| इसलिए भेड़ पालकों को सुझाव दिया जाता है कि जब भी भेड़-बकरियों को कोई पागल कुत्ता या लोमड़ी काटता है तो तुरन्त नज़दीक के पशु चिकित्सालय/ औषधालय में जाकर इसकी सूचना दें तथा समय रहते इसका टीकाकरण करवाना सुनिश्चित करें|

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