ये हैं लखनऊ के पैडमैन : लड़कियां बेझिझक मांगती हैं इनसे सेनेटरी पैड

माहवारी दिवस पर मिलिए लखनऊ के पैडमैन अमित सक्सेना से, ये लखनऊ की झुग्गी-झोपड़ी में जाकर महिलाओं और लड़कियों से माहवारी विषय पर खुलकर बात करते हैं। अब यहाँ की लड़कियां इनसे सेनेटरी पैड मांगने में झिझक नहीं करतीं।

Neetu SinghNeetu Singh   9 Feb 2018 4:33 PM GMT

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ये हैं लखनऊ के पैडमैन : लड़कियां बेझिझक मांगती हैं इनसे सेनेटरी पैडलखनऊ के इस पैडमैन से लड़कियां माहवारी पर करती हैं खुलकर बातें।

लखनऊ। अमित सक्सेना ने दो साल पहले जब माहवारी जैसे अहम मुद्दे पर काम करने की सोची तो इस बात को अपनी पत्नी से साझा करने में उन्होंने तीन दिन लगा दिए। पत्नी की सहमति के बाद अब तक ये झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली 68 लड़कियों को एडाप्ट कर चुके हैं, जिन्हें पूरे साल मुफ्त में सेनेटरी पैड उपलब्ध कराते हैं। अब लड़कियां लखनऊ के लखनऊ के पैडमैन अमित सक्सेना चर्चा में भले ही न हो पर लखनऊ की झुग्गी-झोपड़ी में हर कोई इन्हें जानता है। ये पैडमैन इन बस्तियों में जाकर महिलाओं और लड़कियों से माहवारी विषय पर खुलकर बात करते हैं और ये लड़कियां लखनऊ के इस पैडमैन से सेनेटरी पैड मांगने से बिल्कुल झिझकती नहीं।इस पैडमैन से माहवारी जैसे विषय पर बात करने से नहीं झिझकती हैं।

लखनऊ के जानकीपुरम में रहने वाले अमित सक्सेना (38 वर्ष) ने जब माहवारी पर काम करना शुरू किया था तब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि लोग क्या कहेंगे ये पुरुष होकर महिलाओं के मुद्दे पर काम कर रहा है। दूसरी बड़ी चुनौती थी कि महिलाएं और लड़कियां माहवारी जैसे मुद्दे पर एक पुरुष से कैसे बात करेंगी।

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अपना अनुभव साझा करते हुए अमित बताते हैं, "जब 2015 में माहवारी दिवस पर पहली बैठक करने के लिए निकले तो 20-25 लोगों को इकट्ठा करने में ही दो घण्टे लग गए, जो मीटिंग मैंने की इसे कई साथियों से सलाह करने के बाद फेसबुक पर डालने में मुझे 20 दिन लग गए, एक वो दिन था और एक आज का दिन। अब तो लड़कियां फ़ोन करके कहती हैं भैया कब आ रहे हैं या फिर सेनेटरी पैड खत्म हो गये हैं दे जाइए।"

बाएं से सबसे पहले खड़े अमित।

अमित सक्सेना की हमेशा से यही साेच थी कि कुछ ऐसा काम किया जाए जिससे बदलाव हो। अपनी इस सोच को साकार करने के लिए इन्होंने साल 2010 में एक संस्था सृजन फाउंडेशन की नींव रखी।

माहवारी पर चर्चा करने के अमित सक्सेना ने 'हिम्मत' नाम के कैम्पेन की शुरुवात की। वो बताते हैं, "मुझे लगा माहवारी की तकलीफ महिलाएं और लड़कियां तो अच्छे से समझती ही हैं, अगर लड़कों से भी बात की जाए तो उन्हें भी जानकारी होगी और वो इनके माहवारी की तकलीफों को समझेंगी।" वो आगे बताते हैं, "हम लड़के और लड़कियों को एक साथ एकत्रित करके दोनों से आपस में इस विषय पर चर्चा करते हैं, माहवारी शुरू होने से लेकर उसके पैड निस्तारण तक की पूरी जानकारी देते हैं, उसी में से 20 लड़कियों को एक साल के लिए एडाॅप्ट करते हैं जिन्हें पूरे साल फ्री में सेनेटरी पैड उपलब्ध कराते हैं।"

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एक लड़की के सेनेटरी पैड का खर्चा एक महीने का 40 रुपए के हिसाब से पूरे साल का 500 रुपए पड़ता है। अमित ये लड़किया कुछ तो अपने खर्चे से एडस्ट करते हैं और कुछ बहार की संस्थाएं इसका खर्चा उठाती हैं। अमेरिका का बेगुनाही फॉउंडेशन अब तक 50 लड़कियों को एडाॅप्ट कर चुका है।

झुग्गी-झोपड़ी में कुछ इस तरह से होती है बात।

महिलाओं के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्था वात्सल्य के अनुसार देशभर में करीब 35 करोड़ महिलाएं उस उम्र में हैं जब माहवारी होती है, लेकिन इनमें से करोड़ों महिलाएं इस अवधि को सुविधाजनक और सम्मानजनक तरीके से नहीं गुजार पातीं। एक शोध के अनुसार करीब 71 फीसदी महिलाओं को पहले मासिक स्राव से पहले मासिक धर्म के बारे में जानकारी ही नहीं होती। करीब 70 फ़ीसदी महिलाओं की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि सेनिटरी नेपकिन खरीद पाएं जिसकी वजह से वो कपड़े इस्तेमाल करती हैं।

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ये संस्था सांस्कृतिक क्षेत्र में न सिर्फ बच्चों के अन्दर छिपी प्रतिभा को एक मंच देती है बल्कि लड़कियों और महिलाओं के अंदर माहवारी को लेकर जो टैबू बना हुआ है उसे दूर करती है। अमित ने महिलाओं और किशोरियों के लिए सिलाई सेंटर खोलने से लेकर बुजुर्गों के लिए वृद्धआश्रम भी खोला।

सिग्नेचर कैम्पेन से लड़कियों में बढ़ी जागरूकता।

अमित का कहना है, "हम सिर्फ बस्तियों में ही चर्चा नहीं करते हैं, बल्कि रोड पर भी माहवारी को लेकर हस्ताक्षर कैम्पेनिंग करते हैं जिससे लोगों की झिझक टूटे और वो इस विषय पर खुलकर बात कर सकें।" वो कहते हैं, "मुझे खुशी है इतना मैंने सोचा भी नहीं था कि इतने कम समय में हमारे इस अभियान में इतने लोग शामिल होंगे और हमे सपोर्ट करेंगे, जब लड़कियां फोन करके मुझसे सेनेटरी पैड मांगती हैं तो मुझे बहुत खुशी होती है कि हम अपने मिशन में आगे बढ़ रहे हैं, शायद इसी उद्देश्य से हमने अपने इस कारवां की शुरुवात की थी।" अमित के इस काम में उनकी पत्नी इन्हें बहुत सपोर्ट करती हैं। पत्नी के इतने सपोर्ट के बाद ही आज अमित माहवारी जैसे संवेदनशील मुद्दे पर काम कर पा रहे हैं।

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