पलायन पार्ट-2 : 1600 रुपये देकर भी नहीं मिली बैठने की जगह, दिल्ली से पटना तक बस में खड़े होकर आया

कोरोना के लगातार बढ़ते मामलों के बीच कई राज्यों ने लॉकडाउन लगा दिया है। दिल्ली में भी 19 अप्रैल से 3 मई तक लॉकडाउन घोषित है। इस बीच यहां से अपने घरों को जाने का सिलसिला जारी है। दिल्ली से पटना पहुंचे एस प्रवासी मजदूर समेत कई ने गांव कनेक्शन से साझा की अपनी पीड़ा।

Umesh Kumar RayUmesh Kumar Ray   27 April 2021 1:38 PM GMT

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पलायन पार्ट-2 : 1600 रुपये देकर भी नहीं मिली बैठने की जगह, दिल्ली से पटना तक बस में खड़े होकर आया

मीठापुर बस अड्डे पर प्रवासियों की भीड़। फोटो: उमेश कुमार राय

पटना (बिहार)। दिल्ली में 19 अप्रैल को लॉकडाउन की घोषणा के बाद आनंद विहार बस अड्डे में उमड़ी भीड़ में से एक नंदलाल पंडित को भी अपने घर पहुंचने की जल्दी थी। इस घोषणा के बाद उन्होंने अपना फटा हुआ बैग उठाया, उसमें सामान भरा और निकल लिए बस अड्डे के लिए। यहां भीड़ और धक्का मुक्की के बीच बड़ी मशक्कत के बाद पटना जा रही एक बस में सवार हो गए।

नंदलाल के जहन में पिछले साल लगे लॉकडाउन की यादें अभी भी ताजा थीं। वह फिर से पिछले साल जैसी खाने-पीने, रहने और रुपये की कमी समस्या नहीं झेलना चाहते थे। ऐसे में उन्होंने घर लौटना तय किया और बस पकड़कर खड़े-खड़े दिल्ली से पटना (1100 किमी) तक का सफर तय किया।

गांव कनेक्शन की नंदलाल से मुलाकात 20 अप्रैल को पटना में हुई। यहां पहुंचकर नंदलाल ने बताया, "दिल्ली से पटना का किराया ग्यारह सौ रुपये है, लेकिन मैंने 16 सौ रुपये दिए वो भी खड़े-खड़े आने के लिए।"

दिल्ली में लॉकडाउन के बस से बिहार लौटे नंदलाल पंडित। फोटो: उमेश कुमार राय

दिल्ली में रोजाना बड़ी संख्या में संक्रमित हो रहे लोगों के आंकड़े को रोकने के लिए सीएम केजरीवाल ने 19 अप्रैल से एक हफ्ते के लॉकडाउन की घोषणा की थी, जो बाद में 3 मई तक बढ़ा दिया गया है। लॉकडाउन की घोषणा के बाद हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूरों का दिल्ली छोड़ने की कवायत अब भी जारी है। रोजाना बस अड्डे पर लोग पहुंच रहे हैं और अपने-अपने घरों की बस पकड़ रहे हैं।

पटना स्टेशन पर भागलपुर जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहे नंदलाल ने अपने सूजे पैरों को दिखाते हुए कहा, "मैंने दिल्ली से पटना तक 21 घंटे का सफ़र खड़े-खड़े तय किया है, अभी मुझे बारह घंटे का सफर और करना है।" उन्होंने आगे कहा कि ट्रेन से भागलपुर तक पहुंचने में सात घंटे लगेंगे, जहां से बस के जरिए बांका जिले के अपने गाँव बेलहर तक 70 किलोमीटर और यात्रा करनी है। नंदलाल दिल्ली में एक कंस्ट्रक्शन साइट पर 400 रुपये दिहाड़ी में काम करते थे। घर पहुंचने में उनके करीब 2500 रुपये खर्च हो जाएंगे।

लॉकडाउन और प्रवासियों का दर्द

पिछले साल देश ने प्रवासी मजदूरों का बड़े पैमाने पर बड़े शहरों से अपने घर की ओर पलायन देखा। भूखे-प्यासे मजदूरों ने मई की प्रचंड गर्मी में कई-कई किमी तक पैदल यात्रा की। इस बीच जरूरत से ज्यादा किराया देकर बसों और ट्रकों का भी सहारा लिया। पिछले साल 2020 सितंबर में संसद में अपने लिखित जवाब में, श्रम और रोजगार राज्य मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने कहा था कि लॉकडाउन के दौरान 10,466,152 श्रमिक अपने गृहनगर लौट आए।

नंदलाल ने पिछला लॉकडाउन याद करते हुए बताया, "लॉकडाउन के दौरान बिना खाने के एक महीने तक किराए के कमरे में रहना पड़ा। किसी ने रहम कर दिया तो खाना मिल जाता था नहीं तो भूखा सो जाता था। घर लौटने के लिए पिछले साल मई में श्रमिक स्पेशल ट्रेन पकड़ने के लिए एक दोस्त से पैसे उधार लेने पड़े थे। बिहार सरकार ने घोषणा की थी कि हम ट्रेन का किराया देंगे, लेकिन मुझे आज तक टिकट का पैसा नहीं मिला है।"

दूसरे राज्यों से लौटे प्रवासी मज़दूर अपने गाँवों तक पहुँचने के लिए बस लेने के लिए पटना के मीठापुर बस स्टैंड पर इंतज़ार कर रहे हैं। (फोटो: उमेश कुमार राय

केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल लॉकडाउन के दौरान 1,500,612 प्रवासी मजदूर बिहार लौटे थे। तब नीतीश कुमार सरकार ने कहा था कि प्रवासी मजदूरों के कौशल को परखा जाएगा और उन्हें रोजगार दिया जाएगा। राज्य के श्रम विभाग के अनुसार 9,50,000 लोगों को परखा गया और इनमें से 3,50,000 लोगों को रोजगार मिला, जो लगभग 37 प्रतिशत है। इस साल भी ऐसी ही घोषणाएं की जा रहीं हैं।

बिहार के श्रम मंत्री जीवेश कुमार ने 15 अप्रैल को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा,"कौशल परखने के आधार पर, अन्य राज्यों से बिहार लौटने वाले मजदूरों को दस लाख रुपये तक का ऋण दिया जाएगा।"

क्या है सरकारी दावों की असलियत

राज्य सरकार का दावा है कि कई योजनाओं के तहत वह प्रवासी श्रमिकों की चिंताओं का ध्यान रख रही है, लेकिन इनमें से कितनी अमल में लाई गईं ये कैलाश रविदास से बेहतर कौन बता सकता है। कैलाश शारीरिक रूप से विकलांग हैं और जमुई जिले के नवाकडीह गांव का मूल निवासी है।

एक साल पहले रविदास कोलकाता, पश्चिम बंगाल में जूते और चप्पलों की मरम्मत का काम करते थे। जब लॉकडाउन लगा तो वह मई के अंत में बिहार लौटने में कामयाब रहे। उन्होंने बताया कि उन्होंने अपने बस के किराए के लिए 1,800 रुपये का भुगतान किया, जिसकी कीमत 250 से अधिक नहीं होनी चाहिए थी।

कोलकाता में जूता फैक्ट्री में काम करने वाले रविदास पिछले साल लॉकडाउन के दौरान वापस गाँव आ गए, लेकिन अभी तक उन्हें कोई काम नहीं मिल पाया है। (फोटो: अरेंजमेंट)

जब रविदास क्वारंटाइन सेंटर में थे तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए उनसे बात कर उन्हें रोजगार देने का आश्वासन दिया था। रविदास ने बताया, "मैंने दिसंबर तक इंतजार किया, लेकिन कोई भी अधिकारी मुझसे मिलने नहीं आया और न ही मुझे कोई नौकरी की पेशकश की गई।" उन्होंने कुछ समय के लिए दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम किया। साथ ही उन्हें अपने गांव में भी कर्ज लेना पड़ा।

घर में किसी तरह की आय नहीं होने के कारण रविदास को दिसंबर में कोलकाता लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा, जहां वह अभी भी हैं। वह लॉकडाउन को लेकर चिंतित है। उन्होंने कहा, "यहां नाइट कर्फ्यू लग रहा है। मुझे उम्मीद है कि लॉकडाउन नहीं लगेगा और हमारा काम जारी रख सकते है।"

मधुबनी जिले के मुहम्मद समीरुल, जो पिछले साल लॉकडाउन के दौरान दिल्ली से घर लौटे थे, अपने गांव में नहीं रह पाए। क्योंकि उन्हें वहां नौकरी नहीं मिली और वे वापस दिल्ली जाने के लिए मजबूर हो गए।

मुहम्मद समीरुल ने गाँव कनेक्शन को बताया, "मैंने गांव में राजमिस्त्री का काम किया, लेकिन काम नियमित नहीं था। इसलिए मैं दिल्ली लौट आया"। हालांकि उनका अभी घर लौटने का कोई विचार नहीं है।

फिर भी समीरुल ने चिंतित होकर कहा, "लॉकडाउन की घोषणा के बाद खाद्य पदार्थ महंगे हो गए हैं। हम अगले कुछ दिनों में सरकार द्वारा कुछ निर्णय लेने का इंतजार कर रहे हैं। यदि लॉकडाउन बढ़ाया जाता है, तो मैं घर वापस जाएंगे।"

भले ही नंदलाल पंडित हाल ही में 20 अप्रैल को बिहार लौटे, लेकिन उन्हें गांव में रोजगार मिलने की बहुत उम्मीद नहीं है। नंदलाल ने कहा, "मैं पिछले साल मई में घर लौटा था। मुझे सप्ताह में तीन से चार दिन काम मिलता था। कभी खेत में तो कभी कंस्ट्रक्शन साइट पर, लेकिन दुर्गा पूजा के बाद मैं दिल्ली वापस आ गया।"

अब दिल्ली में फिर हुए लॉकडाउन के चलते 5 महीने के भीतर दोबारा लौटना पड़ा। उन्होंने कहा, "अगर मैं दिल्ली रुक भी जाता तो क्या करता। वह अपने गांव में तब तक रहेंगे, जब तक वह पूरी तरह से कृषि के क्षेत्र में किसी काम पर नहीं करेंगे। मैंने फैसला किया है कि जब तक हालात सामान्य नहीं हो जाते, तब तक दिल्ली वापस नहीं जाना चाहिए।"

केंद्र की ओर से जारी फंड पूरा खर्च नहीं कर पाए राज्य

एक ओर जहां गांवों में लोगों को काम नहीं मिल रहा है, वहीं ग्रामीणों को रोज़गार देने के लिए मंजूर किया गया फंड न के बराबर रह गया है।

जून 2020 में केंद्र सरकार ने उन राज्यों में गरीब कल्याण रोज़गार अभियान शुरू किया, जहां काफी बड़ी संख्या में लोग बड़े शहरों से लौटे थे। बिहार,उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश,राजस्थान,ओडिशा और झारखंड में 125 दिनों के मजदूरों को रोजगार देने के लिए सरकार ने 50,000 करोड़ रुपये मंजूर किए। बिहार को 17,000 करोड़ रुपये मिले।

हालांकि 8 फरवरी 2021 को जारी पीआईबी की विज्ञप्ति के अनुसार, बिहार ने आवंटित फंड के तहत केवल 10,992 करोड़ रुपये (लगभग 64.6 प्रतिशत) ही खर्च किए थे। वहीं कुल 50,000 करोड़ रुपये के आवंटन में, राज्यों ने केवल 39,293 करोड़ रुपये (कुल आवंटन का लगभग 78.6 प्रतिशत) खर्च किया था।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा), जो एक वर्ष में कम से कम 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है, ने कुछ राहत प्रदान की। बिहार में अब तक 2 मिलियन से अधिक मनरेगा जॉब कार्ड जारी किए जा चुके हैं। इनमें से 11,76,084 मनरेगा जॉब कार्ड पिछले साल अप्रैल से सितंबर के बीच बनाए गए थे।

पिछले साल लॉकडाउन के दौरान 1,500,612 प्रवासी मजदूर बिहार वापस लौटकर आए थे। फोटो: गाँव कनेक्शन

पीआईबी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, महामारी के दौरान बिहार में जिन ग्रामीण परिवारों को मनरेगा के तहत काम मिला, उनकी संख्या में वृद्धि हुई है। मई 2020 में यह संख्या 17,83,198 थी, जो मई 2019 से 7,79,378 अधिक थी। पिछले साल जून में 21,44,286 परिवारों को रोजगार मिला था, जो जून 2019 की तुलना में 10,91,664 अधिक था।

जबकि 2019 में मनरेगा के तहत रोजगार पाने वाले परिवारों की संख्या 2020 में अधिक थी। पिछले साल जुलाई और अगस्त के महीनों में धीरे-धीरे गिरावट आई थी। जुलाई 2020 में बिहार में ग्रामीण परिवारों की काम करने की संख्या 10,59,316 थी और अगस्त में 6,47,987 परिवारों ने काम किया।

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इस साल 9 मार्च को लोकसभा में पेश की गई 'ग्रामीण विकास पर स्थायी समिति' की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार में इस साल 28 जनवरी तक 37.81 बिलियन रुपये मनरेगा मजदूरों के खाते में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के माध्यम से जमा किए गए, लेकिन 791.17 मिलियन रुपये अभी तक जमा नहीं किए गए थे।

इस बीच पिछले आठ महीनों से दिल्ली में एक मोबाइल कंपनी में काम करने वाले बिट्टू राज बिहार के भोजपुर स्थित अपने घर वापस आ गए हैं।

22 साल के बिट्टू ने गांव कनेक्शन को बताया, "मैं कुछ दिनों तक इंतजार करूंगा। नौकरी नहीं मिलेगा तो खेती करूंगा। नीतीश सरकार नौकरी ढूंढने में मेरी कोई मदद करेगी, इसका मुझे विश्वास नहीं है।"

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