एक पेड़-पूरा गाँव: उत्तराखंड के हर्षिल की मिसाल, जहाँ विकास ने प्रकृति से समझौता किया
Divendra Singh | Dec 22, 2025, 14:20 IST
Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection
जब देश के अलग-अलग हिस्सों में सड़क, खनन और विकास के नाम पर जंगल कट रहे हैं, उसी समय उत्तराखंड के हर्षिल गाँव ने एक अलग रास्ता चुना। कहानी है एक देवदार की और उस पूरे गाँव की, जिसने तय किया कि विकास का मतलब प्रकृति की बलि नहीं होता।
<p>एक पेड़, जो सिर्फ़ पेड़ नहीं था, हर्षिल के बीचोंबीच खड़ा वह देवदार कोई साधारण पेड़ नहीं था। वह गाँव की स्मृतियों का हिस्सा था।<br></p>
जब देश के अलग-अलग हिस्सों में जंगलों, पहाड़ों और नदियों को लेकर टकराव तेज़ होता जा रहा है, कहीं अरावली में पहाड़ों को बचाने के लिए लोग सड़कों पर हैं, कहीं उत्तरकाशी में सड़क चौड़ीकरण के नाम पर हज़ारों पेड़ों पर आरी चलने की तैयारी है, उसी समय उत्तराखंड के एक छोटे से गाँव हर्षिल ने विकास की एक बिल्कुल अलग तस्वीर पेश की।
यहाँ न कोई बड़ा आंदोलन था, न मंच, न पोस्टर और न ही नारे। यहाँ सिर्फ़ एक देवदार का पेड़ थाऔर उसके साथ खड़ा था पूरा गाँव।
यह कहानी किसी सरकारी फ़ाइल या पर्यावरण रिपोर्ट की नहीं है। यह कहानी रिश्ते की है, इंसान और पेड़ के बीच बने उस रिश्ते की, जिसे अक्सर विकास की दौड़ में सबसे पहले कुर्बान कर दिया जाता है।
एक पेड़, जो सिर्फ़ पेड़ नहीं था, हर्षिल के बीचोंबीच खड़ा वह देवदार कोई साधारण पेड़ नहीं था। वह गाँव की स्मृतियों का हिस्सा था।
उसने सर्दियों की पहली बर्फ़ अपने कंधों पर सबसे पहले झेली थी। बरसात में पहाड़ों से उतरते उफनते पानी को अपनी जड़ों में थाम कर रखा था। जब ऊपर के जंगलों में लकड़ी काटी गई, तब भी वह चुपचाप खड़ा रहा, बिना शिकायत, बिना शोर।
गाँव के बच्चे उसी के पास से स्कूल जाते थे। कंधों पर बस्ते, आँखों में सपने और हर रोज़ वही पेड़ उन्हें देखता था, बड़ा होते हुए। सड़क बदली, समय बदला, लोग बदले, लेकिन उसकी मौजूदगी नहीं बदली। “सड़क के लिए पेड़ कटेगा”और पूरा गाँव रुक गया
कुछ साल पहले जब लोक निर्माण विभाग (PWD) के लोग सड़क निर्माण के लिए गाँव पहुँचे, तो नक़्शे में एक “समस्या” सामने आई। सड़क का सीधा अलाइनमेंट उसी देवदार से टकरा रहा था। फैसला लगभग तय माना जा रहा था, पेड़ कटेगा।
लेकिन इसी मोड़ पर हर्षिल ने वह किया, जो आज के समय में विरल है। 81 वर्षीय बसंती नेगी, गाँव की पूर्व सरपंच और जीवन भर जंगल-नदी बचाने की लड़ाई लड़ चुकीं, उस दिन को याद करते हुए कहती हैं, “मैं न जाने कितने सालों से जंगलों और पेड़ों को बचाने की लड़ाई लड़ रही हूँ। ये पेड़ न जाने कितने सालों देखती आ रही हूँ। जब कहा गया कि सड़क के लिए इसे काटना पड़ेगा, तो मन मान ही नहीं पाया।”
उनकी आवाज़ में आज भी उस दिन का कंपन है। “हमें जैसे ही पता चला कि पेड़ काटा जाएगा, पूरा गाँव इकट्ठा हो गया। हमने कहा, सड़क थोड़ी मुड़ सकती है, लेकिन ये पेड़ वापस नहीं आ सकता, ”उन्होंने आगे कहा।
जब गाँव ने मिलकर कहा-“नहीं”, यह कोई भावनात्मक आवेग भर नहीं था। यह सामूहिक समझ थी। ग्राम सभा से लेकर आम लोगों तक, सभी ने एक सुर में कहा- पेड़ नहीं कटेगा।
वर्तमान ग्राम प्रधान दिनेश रावत बताते हैं, “तकनीकी तौर पर दिक्कतें थीं। पुल का अलाइनमेंट बिल्कुल उसी पेड़ के पास आ रहा था। विभाग का कहना था कि रोड टेढ़ी-मेढ़ी हो जाएगी।”
वे एक पल रुकते हैं, फिर कहते हैं, “हमें भी परेशानी थी। सड़क नहीं बनती तो दिक्कतें बढ़तीं। लेकिन फिर भी गाँव वालों ने साफ़ कहा, इस पेड़ को किसी भी हालत में बचाइए। अलाइनमेंट थोड़ा बदल दीजिए।”
यह आसान नहीं था। फ़ाइलें बदलीं, नक़्शे फिर से बने, तकनीकी आपत्तियाँ आईं। लेकिन गाँव अडिग रहा, ठीक उस देवदार की तरह।
और तब, सड़क झुक गई, आख़िरकार समाधान निकला। सड़क भी बनी, लेकिन पेड़ वहीं खड़ा रहा आज भी। आज जब कोई उस रास्ते से गुज़रता है, तो वह देवदार “रुकावट” नहीं लगता, बल्कि लगता है जैसे रास्ता उसी के सम्मान में झुका हो।
जैसे सड़क कह रही हो, “हम आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन जड़ों को कुचले बिना।” एक पेड़, जो पहरा देता है, शाम के वक़्त, जब पहाड़ों के पीछे सूरज ढलता है, उस देवदार की लंबी परछाईं सड़क पर फैल जाती है। पत्थरों पर पड़ती उसकी छाया मानो फुसफुसाकर कहती हो, “मैं यहाँ सिर्फ़ खड़ा नहीं हूँ। मैं याद दिला रहा हूँ।”
याद दिला रहा हूँ कि विकास का मतलब सिर्फ़ चौड़ी सड़कें नहीं होता। याद दिला रहा हूँ कि अगर चाहें, तो इंसान और प्रकृति साथ चल सकते हैं।
हर्षिल की सीख, आज जब गंगोत्री घाटी से लेकर अरावली तक विकास बनाम पर्यावरण की बहस गर्म है, हर्षिल का यह देवदार एक सवाल खड़ा करता है, क्या हर जगह पेड़ कटना ही आख़िरी विकल्प है? क्या हर परियोजना में प्रकृति को ही झुकना होगा?
हर्षिल ने दिखाया कि जवाब “नहीं” भी हो सकता है। यह पेड़ सिर्फ़ लकड़ी का ढांचा नहीं है। यह एक समझौता है, इंसान और प्रकृति के बीच।
यह एक याद है कि अगर चाहें, तो हम रास्ते बना सकते हैं बिना जड़ों को काटे। और शायद, आने वाले समय में, जब कहीं फिर किसी पेड़ के सामने बुलडोज़र रुकेगा, तो हर्षिल का यह देवदार चुपचाप कहेगा, “रुको। एक बार सोच लो।”
यहाँ न कोई बड़ा आंदोलन था, न मंच, न पोस्टर और न ही नारे। यहाँ सिर्फ़ एक देवदार का पेड़ थाऔर उसके साथ खड़ा था पूरा गाँव।
यह कहानी किसी सरकारी फ़ाइल या पर्यावरण रिपोर्ट की नहीं है। यह कहानी रिश्ते की है, इंसान और पेड़ के बीच बने उस रिश्ते की, जिसे अक्सर विकास की दौड़ में सबसे पहले कुर्बान कर दिया जाता है।
एक पेड़, जो सिर्फ़ पेड़ नहीं था, हर्षिल के बीचोंबीच खड़ा वह देवदार कोई साधारण पेड़ नहीं था। वह गाँव की स्मृतियों का हिस्सा था।
उसने सर्दियों की पहली बर्फ़ अपने कंधों पर सबसे पहले झेली थी। बरसात में पहाड़ों से उतरते उफनते पानी को अपनी जड़ों में थाम कर रखा था। जब ऊपर के जंगलों में लकड़ी काटी गई, तब भी वह चुपचाप खड़ा रहा, बिना शिकायत, बिना शोर।
गाँव के बच्चे उसी के पास से स्कूल जाते थे। कंधों पर बस्ते, आँखों में सपने और हर रोज़ वही पेड़ उन्हें देखता था, बड़ा होते हुए। सड़क बदली, समय बदला, लोग बदले, लेकिन उसकी मौजूदगी नहीं बदली। “सड़क के लिए पेड़ कटेगा”और पूरा गाँव रुक गया
Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection
कुछ साल पहले जब लोक निर्माण विभाग (PWD) के लोग सड़क निर्माण के लिए गाँव पहुँचे, तो नक़्शे में एक “समस्या” सामने आई। सड़क का सीधा अलाइनमेंट उसी देवदार से टकरा रहा था। फैसला लगभग तय माना जा रहा था, पेड़ कटेगा।
लेकिन इसी मोड़ पर हर्षिल ने वह किया, जो आज के समय में विरल है। 81 वर्षीय बसंती नेगी, गाँव की पूर्व सरपंच और जीवन भर जंगल-नदी बचाने की लड़ाई लड़ चुकीं, उस दिन को याद करते हुए कहती हैं, “मैं न जाने कितने सालों से जंगलों और पेड़ों को बचाने की लड़ाई लड़ रही हूँ। ये पेड़ न जाने कितने सालों देखती आ रही हूँ। जब कहा गया कि सड़क के लिए इसे काटना पड़ेगा, तो मन मान ही नहीं पाया।”
उनकी आवाज़ में आज भी उस दिन का कंपन है। “हमें जैसे ही पता चला कि पेड़ काटा जाएगा, पूरा गाँव इकट्ठा हो गया। हमने कहा, सड़क थोड़ी मुड़ सकती है, लेकिन ये पेड़ वापस नहीं आ सकता, ”उन्होंने आगे कहा।
जब गाँव ने मिलकर कहा-“नहीं”, यह कोई भावनात्मक आवेग भर नहीं था। यह सामूहिक समझ थी। ग्राम सभा से लेकर आम लोगों तक, सभी ने एक सुर में कहा- पेड़ नहीं कटेगा।
वर्तमान ग्राम प्रधान दिनेश रावत बताते हैं, “तकनीकी तौर पर दिक्कतें थीं। पुल का अलाइनमेंट बिल्कुल उसी पेड़ के पास आ रहा था। विभाग का कहना था कि रोड टेढ़ी-मेढ़ी हो जाएगी।”
Image credit : Gaon Connection Network, Gaon Connection
वे एक पल रुकते हैं, फिर कहते हैं, “हमें भी परेशानी थी। सड़क नहीं बनती तो दिक्कतें बढ़तीं। लेकिन फिर भी गाँव वालों ने साफ़ कहा, इस पेड़ को किसी भी हालत में बचाइए। अलाइनमेंट थोड़ा बदल दीजिए।”
यह आसान नहीं था। फ़ाइलें बदलीं, नक़्शे फिर से बने, तकनीकी आपत्तियाँ आईं। लेकिन गाँव अडिग रहा, ठीक उस देवदार की तरह।
और तब, सड़क झुक गई, आख़िरकार समाधान निकला। सड़क भी बनी, लेकिन पेड़ वहीं खड़ा रहा आज भी। आज जब कोई उस रास्ते से गुज़रता है, तो वह देवदार “रुकावट” नहीं लगता, बल्कि लगता है जैसे रास्ता उसी के सम्मान में झुका हो।
जैसे सड़क कह रही हो, “हम आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन जड़ों को कुचले बिना।” एक पेड़, जो पहरा देता है, शाम के वक़्त, जब पहाड़ों के पीछे सूरज ढलता है, उस देवदार की लंबी परछाईं सड़क पर फैल जाती है। पत्थरों पर पड़ती उसकी छाया मानो फुसफुसाकर कहती हो, “मैं यहाँ सिर्फ़ खड़ा नहीं हूँ। मैं याद दिला रहा हूँ।”
याद दिला रहा हूँ कि विकास का मतलब सिर्फ़ चौड़ी सड़कें नहीं होता। याद दिला रहा हूँ कि अगर चाहें, तो इंसान और प्रकृति साथ चल सकते हैं।
हर्षिल की सीख, आज जब गंगोत्री घाटी से लेकर अरावली तक विकास बनाम पर्यावरण की बहस गर्म है, हर्षिल का यह देवदार एक सवाल खड़ा करता है, क्या हर जगह पेड़ कटना ही आख़िरी विकल्प है? क्या हर परियोजना में प्रकृति को ही झुकना होगा?
हर्षिल ने दिखाया कि जवाब “नहीं” भी हो सकता है। यह पेड़ सिर्फ़ लकड़ी का ढांचा नहीं है। यह एक समझौता है, इंसान और प्रकृति के बीच।
यह एक याद है कि अगर चाहें, तो हम रास्ते बना सकते हैं बिना जड़ों को काटे। और शायद, आने वाले समय में, जब कहीं फिर किसी पेड़ के सामने बुलडोज़र रुकेगा, तो हर्षिल का यह देवदार चुपचाप कहेगा, “रुको। एक बार सोच लो।”