हिमालय की चेतावनी: क्या गंगोत्री घाटी जोशीमठ बनने के कागार पर है?
Divendra Singh | Dec 18, 2025, 16:45 IST
गंगोत्री नेशनल हाईवे के चौड़ीकरण ने उत्तराखंड की संवेदनशील गंगोत्री घाटी को संकट में डाल दिया है। सदियों पुराने देवदार, भूस्खलन का बढ़ता खतरा और स्थानीय लोगों की ज़रूरतें, सवाल सिर्फ सड़क का नहीं, बल्कि हिमालय की सहनशीलता, आपदाओं के खतरे और विकास की दिशा का है।
6 दिसंबर 2025 की सुबह गंगोत्री घाटी में कुछ अलग थी। ठंडी हवा के बीच देवदार के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से बँधी रंग-बिरंगी राखियाँ चमक रही थीं। गाँव के बुज़ुर्ग, महिलाएँ, युवा और पर्यावरण कार्यकर्ता एक साथ खड़े थे। कोई नारे नहीं, कोई हंगामा नहीं, बस पेड़ों को छूकर एक संकल्प लिया जा रहा था कि इन्हें यूँ ही कटने नहीं दिया जाएगा। यह कोई धार्मिक रस्म नहीं थी, बल्कि हिमालय को बचाने की एक शांत अपील थी।
उत्तराखंड में गंगोत्री नेशनल हाईवे के चौड़ीकरण को लेकर विवाद पिछले कुछ महीनों से लगातार गहराता जा रहा है। चारधाम सड़क परियोजना के तहत इस मार्ग को विकसित करने की योजना है, लेकिन इसके लिए प्रस्तावित पेड़ों की कटाई ने स्थानीय लोगों और विशेषज्ञों को चिंता में डाल दिया है। कहीं कहा जा रहा है कि 6,800 से ज़्यादा पेड़ प्रभावित होंगे, तो कहीं दावा है कि केवल 1,400 पेड़ ही काटे जाएंगे। इसी विरोधाभास ने अविश्वास को और गहरा कर दिया है।
राज्य वन विभाग के ताज़ा प्रस्ताव में कहा गया है कि कुल 6,822 पेड़ों में से 4,366 को दूसरी जगह स्थानांतरित किया जाएगा और 2,456 पेड़ों को काटा जाएगा। दूसरी ओर, सीमा सड़क संगठन (BRO) का दावा है कि उनकी योजना में केवल करीब 1,400 पेड़ों की कटाई शामिल है। स्थानीय लोगों का सवाल है, अगर आंकड़े ही साफ़ नहीं हैं, तो भरोसा किस पर किया जाए?
गंगोत्री घाटी सिर्फ एक सड़क का रास्ता नहीं है। यहीं से भागीरथी निकलती है, जो आगे चलकर गंगा कहलाती है। करोड़ों लोगों के लिए यह आस्था का केंद्र है, लेकिन साथ ही यह हिमालय का एक बेहद संवेदनशील पारिस्थितिक क्षेत्र भी है। वैज्ञानिक लंबे समय से चेतावनी देते रहे हैं कि इस इलाके में ज़्यादा छेड़छाड़ भूस्खलन, जंगलों के विनाश और जल स्रोतों के सूखने का कारण बन सकती है।
पर्यावरण कार्यकर्ता और चारधाम परियोजना की उच्चस्तरीय समिति के सदस्य हेमंत ध्यानी कहते हैं, "समस्या सड़क बनने की नहीं, बल्कि उसकी डिज़ाइन और पैमाने की है। उनके अनुसार, हिमालय में हर हस्तक्षेप “डिज़ास्टर रेज़िलिएंट” और टिकाऊ होना चाहिए। वे बताते हैं कि जहाँ-जहाँ अंधाधुंध सड़क कटिंग हुई, वहाँ भूस्खलन स्थायी समस्या बन गए हैं। मलबा नदियों और गधेरों में गिरा, पानी के स्रोत खत्म हुए और पहाड़ों की स्थिरता कमजोर पड़ी।
चारधाम परियोजना के तहत गंगोत्री से उत्तरकाशी तक सड़क को DL-PS मानकों पर विकसित करने की योजना है। इसका मतलब है लगभग 10 मीटर चौड़ा ब्लैकटॉप और कुल 12 से 14 मीटर चौड़ी सड़क। इसके लिए पहाड़ों को एक तरफ से काटकर मलबा नीचे फेंकने की ‘कट एंड डंप’ तकनीक अपनाई जा रही है। यही तकनीक विशेषज्ञों के लिए सबसे बड़ी चिंता का कारण है।
हेमंत ध्यानी का आगे कहते हैं, "हिमालयी घाटियों की अपनी एक “कैरिंग कैपेसिटी” होती है। अगर उससे ज़्यादा दबाव डाला गया, तो विकास खुद विनाश में बदल जाता है। वे सुझाव देते हैं कि सड़क का ब्लैकटॉप 5.5 मीटर तक सीमित रखा जाए, जिससे दो वाहन आसानी से निकल सकें और पहाड़ों की कटाई भी कम हो।"
उत्तरकाशी स्थित हिमालयी नागरिक दृष्टि मंच ने भी इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और संबंधित मंत्रालयों को पत्र लिखे हैं। मंच का कहना है कि भागीरथी इको-सेंसिटिव ज़ोन में जिस तरह से चौड़ीकरण की योजना बनाई जा रही है, वह भविष्य में बड़ी आपदाओं को न्योता दे सकती है। मंच से जुड़े आशुतोष कोठारी बताते हैं, "पेड़ों की गिनती में छोटे पौधों और सैपलिंग्स को शामिल ही नहीं किया जा रहा। उनके मुताबिक, यह “पेड़ों के बच्चों” की अनदेखी है, जिनकी संख्या हज़ारों में हो सकती है।"
चिंता सिर्फ पेड़ों की नहीं है। 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में करीब 200 नए भूस्खलन संभावित क्षेत्र सामने आए हैं। देवप्रयाग से पहले तोता घाटी में पहाड़ों में दरारें पड़ना इस बात का संकेत है कि ज़मीन पहले ही दबाव में है। विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि अगर उत्तरकाशी से हर्षिल तक के लगभग 100 किलोमीटर हिस्से में इसी तरह कटाव हुआ, तो हालात बेहद खतरनाक हो सकते हैं।
5 अगस्त 2025 को धराली में आई भीषण आपदा के बाद यह सवाल और गहरा हो गया। बादल फटने और अचानक आई बाढ़ ने यह दिखा दिया कि हिमालय कितनी जल्दी प्रतिक्रिया देता है। इस मामले में राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) में भी रिपोर्ट पेश की गई, जिसमें बताया गया कि गंगोत्री रेंज में कुछ प्रस्तावों को सैद्धांतिक मंजूरी दी गई थी और उनमें कुल 79 पेड़ों की कटाई की अनुमति थी। लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे कहीं बड़ी दिखाई दे रही है।
हालांकि, तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। स्थानीय लोगों का एक वर्ग मानता है कि अगर सड़क पर्याप्त चौड़ी नहीं होगी, तो उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भारी दिक्कतें होंगी। हर्षिल के ग्राम प्रधान दिनेश रावत कहते हैं कि कई बार घंटों जाम में फँसना पड़ता है। आपात स्थिति में मरीज या गर्भवती महिला को समय पर अस्पताल पहुँचाना मुश्किल हो जाता है। उनके अनुसार, सड़क इतनी चौड़ी ज़रूर होनी चाहिए कि जाम की समस्या खत्म हो सके, लेकिन वे भी चाहते हैं कि अनावश्यक पेड़ न कटें।
यही असली द्वंद्व है, विकास की ज़रूरत और पर्यावरण की सीमा। सवाल यह नहीं कि सड़क बने या न बने, बल्कि यह है कि वह कैसे बने। विशेषज्ञ मानते हैं कि सीमित चौड़ाई, वैज्ञानिक मलबा प्रबंधन, मजबूत ड्रेनेज सिस्टम और लगातार निगरानी से जोखिम कम किए जा सकते हैं।
गंगोत्री घाटी को लेकर यह चेतावनी भी दी जा रही है कि अगर अभी संतुलन नहीं साधा गया, तो यह इलाका भी जोशीमठ जैसी स्थिति का सामना कर सकता है, जहाँ विकास ने ज़मीन को अस्थिर कर दिया। हिमालय में सड़क बनाना आसान है, लेकिन उसके असर दशकों तक रहते हैं।
आख़िर में, यह बहस विकास बनाम पर्यावरण की नहीं, बल्कि समझदारी भरे विकास की है। माँ गंगा के उद्गम क्षेत्र में लिया गया हर फैसला सिर्फ उत्तराखंड नहीं, बल्कि पूरे देश को प्रभावित करता है। ज़रूरत है कि पुराने, अवैज्ञानिक मॉडल छोड़कर ऐसे रास्ते चुने जाएँ, जो प्रकृति के साथ तालमेल में हों। तभी देवदार पर बँधी राखियाँ सिर्फ प्रतीक नहीं, बल्कि भविष्य की सुरक्षा का वादा बन सकेंगी।
उत्तराखंड में गंगोत्री नेशनल हाईवे के चौड़ीकरण को लेकर विवाद पिछले कुछ महीनों से लगातार गहराता जा रहा है। चारधाम सड़क परियोजना के तहत इस मार्ग को विकसित करने की योजना है, लेकिन इसके लिए प्रस्तावित पेड़ों की कटाई ने स्थानीय लोगों और विशेषज्ञों को चिंता में डाल दिया है। कहीं कहा जा रहा है कि 6,800 से ज़्यादा पेड़ प्रभावित होंगे, तो कहीं दावा है कि केवल 1,400 पेड़ ही काटे जाएंगे। इसी विरोधाभास ने अविश्वास को और गहरा कर दिया है।
राज्य वन विभाग के ताज़ा प्रस्ताव में कहा गया है कि कुल 6,822 पेड़ों में से 4,366 को दूसरी जगह स्थानांतरित किया जाएगा और 2,456 पेड़ों को काटा जाएगा। दूसरी ओर, सीमा सड़क संगठन (BRO) का दावा है कि उनकी योजना में केवल करीब 1,400 पेड़ों की कटाई शामिल है। स्थानीय लोगों का सवाल है, अगर आंकड़े ही साफ़ नहीं हैं, तो भरोसा किस पर किया जाए?
बस पेड़ों को छूकर एक संकल्प लिया जा रहा था कि इन्हें यूँ ही कटने नहीं दिया जाएगा
गंगोत्री घाटी सिर्फ एक सड़क का रास्ता नहीं है। यहीं से भागीरथी निकलती है, जो आगे चलकर गंगा कहलाती है। करोड़ों लोगों के लिए यह आस्था का केंद्र है, लेकिन साथ ही यह हिमालय का एक बेहद संवेदनशील पारिस्थितिक क्षेत्र भी है। वैज्ञानिक लंबे समय से चेतावनी देते रहे हैं कि इस इलाके में ज़्यादा छेड़छाड़ भूस्खलन, जंगलों के विनाश और जल स्रोतों के सूखने का कारण बन सकती है।
पर्यावरण कार्यकर्ता और चारधाम परियोजना की उच्चस्तरीय समिति के सदस्य हेमंत ध्यानी कहते हैं, "समस्या सड़क बनने की नहीं, बल्कि उसकी डिज़ाइन और पैमाने की है। उनके अनुसार, हिमालय में हर हस्तक्षेप “डिज़ास्टर रेज़िलिएंट” और टिकाऊ होना चाहिए। वे बताते हैं कि जहाँ-जहाँ अंधाधुंध सड़क कटिंग हुई, वहाँ भूस्खलन स्थायी समस्या बन गए हैं। मलबा नदियों और गधेरों में गिरा, पानी के स्रोत खत्म हुए और पहाड़ों की स्थिरता कमजोर पड़ी।
चारधाम परियोजना के तहत गंगोत्री से उत्तरकाशी तक सड़क को DL-PS मानकों पर विकसित करने की योजना है। इसका मतलब है लगभग 10 मीटर चौड़ा ब्लैकटॉप और कुल 12 से 14 मीटर चौड़ी सड़क। इसके लिए पहाड़ों को एक तरफ से काटकर मलबा नीचे फेंकने की ‘कट एंड डंप’ तकनीक अपनाई जा रही है। यही तकनीक विशेषज्ञों के लिए सबसे बड़ी चिंता का कारण है।
गंगोत्री घाटी को लेकर यह चेतावनी भी दी जा रही है कि अगर अभी संतुलन नहीं साधा गया, तो यह इलाका भी जोशीमठ जैसी स्थिति का सामना कर सकता है
हेमंत ध्यानी का आगे कहते हैं, "हिमालयी घाटियों की अपनी एक “कैरिंग कैपेसिटी” होती है। अगर उससे ज़्यादा दबाव डाला गया, तो विकास खुद विनाश में बदल जाता है। वे सुझाव देते हैं कि सड़क का ब्लैकटॉप 5.5 मीटर तक सीमित रखा जाए, जिससे दो वाहन आसानी से निकल सकें और पहाड़ों की कटाई भी कम हो।"
उत्तरकाशी स्थित हिमालयी नागरिक दृष्टि मंच ने भी इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और संबंधित मंत्रालयों को पत्र लिखे हैं। मंच का कहना है कि भागीरथी इको-सेंसिटिव ज़ोन में जिस तरह से चौड़ीकरण की योजना बनाई जा रही है, वह भविष्य में बड़ी आपदाओं को न्योता दे सकती है। मंच से जुड़े आशुतोष कोठारी बताते हैं, "पेड़ों की गिनती में छोटे पौधों और सैपलिंग्स को शामिल ही नहीं किया जा रहा। उनके मुताबिक, यह “पेड़ों के बच्चों” की अनदेखी है, जिनकी संख्या हज़ारों में हो सकती है।"
चिंता सिर्फ पेड़ों की नहीं है। 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में करीब 200 नए भूस्खलन संभावित क्षेत्र सामने आए हैं। देवप्रयाग से पहले तोता घाटी में पहाड़ों में दरारें पड़ना इस बात का संकेत है कि ज़मीन पहले ही दबाव में है। विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि अगर उत्तरकाशी से हर्षिल तक के लगभग 100 किलोमीटर हिस्से में इसी तरह कटाव हुआ, तो हालात बेहद खतरनाक हो सकते हैं।
5 अगस्त 2025 को धराली में आई भीषण आपदा के बाद यह सवाल और गहरा हो गया। बादल फटने और अचानक आई बाढ़ ने यह दिखा दिया कि हिमालय कितनी जल्दी प्रतिक्रिया देता है। इस मामले में राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) में भी रिपोर्ट पेश की गई, जिसमें बताया गया कि गंगोत्री रेंज में कुछ प्रस्तावों को सैद्धांतिक मंजूरी दी गई थी और उनमें कुल 79 पेड़ों की कटाई की अनुमति थी। लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे कहीं बड़ी दिखाई दे रही है।
5 अगस्त 2025 को बादल फटने के बाद हर्षिल घाटी में बाढ़ जैसी स्थिति बन गई।
हालांकि, तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। स्थानीय लोगों का एक वर्ग मानता है कि अगर सड़क पर्याप्त चौड़ी नहीं होगी, तो उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भारी दिक्कतें होंगी। हर्षिल के ग्राम प्रधान दिनेश रावत कहते हैं कि कई बार घंटों जाम में फँसना पड़ता है। आपात स्थिति में मरीज या गर्भवती महिला को समय पर अस्पताल पहुँचाना मुश्किल हो जाता है। उनके अनुसार, सड़क इतनी चौड़ी ज़रूर होनी चाहिए कि जाम की समस्या खत्म हो सके, लेकिन वे भी चाहते हैं कि अनावश्यक पेड़ न कटें।
यही असली द्वंद्व है, विकास की ज़रूरत और पर्यावरण की सीमा। सवाल यह नहीं कि सड़क बने या न बने, बल्कि यह है कि वह कैसे बने। विशेषज्ञ मानते हैं कि सीमित चौड़ाई, वैज्ञानिक मलबा प्रबंधन, मजबूत ड्रेनेज सिस्टम और लगातार निगरानी से जोखिम कम किए जा सकते हैं।
गंगोत्री घाटी को लेकर यह चेतावनी भी दी जा रही है कि अगर अभी संतुलन नहीं साधा गया, तो यह इलाका भी जोशीमठ जैसी स्थिति का सामना कर सकता है, जहाँ विकास ने ज़मीन को अस्थिर कर दिया। हिमालय में सड़क बनाना आसान है, लेकिन उसके असर दशकों तक रहते हैं।
आख़िर में, यह बहस विकास बनाम पर्यावरण की नहीं, बल्कि समझदारी भरे विकास की है। माँ गंगा के उद्गम क्षेत्र में लिया गया हर फैसला सिर्फ उत्तराखंड नहीं, बल्कि पूरे देश को प्रभावित करता है। ज़रूरत है कि पुराने, अवैज्ञानिक मॉडल छोड़कर ऐसे रास्ते चुने जाएँ, जो प्रकृति के साथ तालमेल में हों। तभी देवदार पर बँधी राखियाँ सिर्फ प्रतीक नहीं, बल्कि भविष्य की सुरक्षा का वादा बन सकेंगी।