बदहाल स्वास्थ्य कर्मचारियों के भरोसे बिहार में कोविड-19 से लड़ाई

कोरोना मामलों में तेज़ी, कम टेस्टिंग, थके-मांदे और कम वेतन पाने से नाराज़ स्वास्थ्य कर्मियों के साथ बिहार अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का पतन देख रहा है।

Rohin KumarRohin Kumar   28 July 2020 2:29 AM GMT

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बदहाल स्वास्थ्य कर्मचारियों के भरोसे बिहार में कोविड-19 से लड़ाई

रोहिण कुमार और उमेश कुमार राय

कोरोना महामारी के बीच बीते गुरुवार को पटना स्थित अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एम्स) में एक अभूतपूर्व घटना घटी। कई सालों से अनुबंध के आधार पर कार्य करने वाले लगभग 400 स्वास्थ्य कर्मचारियों ने अस्पताल सेवाओं को ठप कर हड़ताल कर दिया। उन्होंने मुख्य प्रवेश द्वार के बाहर खड़े होकर वेतन बढ़ोत्तरी के साथ-साथ मांग की कि उन्हें भी स्थायी कर्मचारी के तरह ही सुविधा उपलब्ध कराई जाए।

अनौपचारिक श्रमिक संघ, एम्स, पटना के सदस्य, रणविजय कुमार गांव कनेक्शन से कहते हैं, "हमारी मांग है कि समान कार्य के लिए समान वेतन मिले, साथ ही संविदा कर्मचारियों को भी स्थायी कर्मचारियों के तरह अवकाश, आरक्षण या एम्स में स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ दिया जाए।"

रणविजय आगे कहते हैं, "हमारी मांग यह भी है कि कर्मचारियों के नियमितिकरण (स्थायी) में संविदा कर्मचारियों को वरीयता दी जाए, साथ ही अब नर्सिंग कर्मचारियों की आउटसोर्सिंग बंद हो।"

12 जुलाई से हर रोज़ बिहार में 1000 से अधिक कोरोना के मामले सामने आ रहे हैं। राज्य के विभिन्न हिस्सों से इलाज के अभाव में रोते-बिलखते लोगों के दृश्य सामने आ रहे हैं। इस प्रकार के वीडियो से सोशल मीडिया भरा पड़ा है। राज्य के सरकारी अस्पतालों के कुप्रबंधन ने पूरी तरह से चरमरा गए सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का सच सामने ला दिया है।

ऐसी स्थिति में, स्वास्थ्य कर्मचारी- चाहे वे एम्स में कार्य कर रहे हों या ज़मीन पर काम करने वाले सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता से लेकर जूनियर डॉक्टर्स तक, सब के सब थक गए हैं, परेशान हैं और हड़ताल पर जाने की धमकी दे रहे हैं। शुरुआत में अस्पताल के अधिकारियों ने उन्हें कड़ी कार्रवाई के लिए धमकी दी थी, उन्हें लगातार काम करने के लिए विवश किया था। लेकिन अब डराने की रणनीति काम नहीं आ रही है।

भारतीय चिकित्सक संघ (आईएमए) बिहार, कर्मचारियों की मांगों को लेकर मुखर रहा है। अपने नए विज्ञप्ति में आईएमए ने खुलासा किया है कि राज्य में अब तक 200 से अधिक चिकित्सा पेशेवरों के अलावा पराचिकित्सा कर्मचारी कोरोना पॉजिटिव हो चुके हैं।

संविदा कर्मचारियों पर अनिश्चिताएं भारी पड़ती है

मोहम्मद जावेद अख़्तर 2005 में एक संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी के रूप में 6,500 रुपए वेतनमान पर अपना जीवन शुरू किए। आज 14 साल बाद, अख़्तर बोधगया के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में काम कर रहे हैं। अभी उनका वेतन मात्र 12,800 रुपए है।

गांव कनेक्शन से बात करते हुए कहते हैं, "काम की ज़िम्मेदारी और बढ़ती महंगाई को देखते हुए वेतन में की गई वृद्धि अपर्याप्त है। वेतन में सुधार की मांग 2011 से तेज़ कर दी गई थी, लेकिन यह सब व्यर्थ ही जान पड़ता है।"

कोरोना महामारी के दौरान, संविदाकर्मी मरीज़ों के पंजीकरण से लेकर, स्क्रीनिंग और कोरोना पॉजिटिव लाशों की सीलिंग करने में सहायता करते हैं।

अख़्तर, बिहार राज्य संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी महासंघ (बीएससीएचईएफ) के राज्य सचिव भी हैं। वह गांव कनेक्शन से कहते हैं, "हम समझते हैं कि समय बहुत नाज़ुक है, इस समय बिहार कोरोना के साथ बाढ़ से भी जूझ रहा है। इसी को ध्यान में रखते हुए, लोगों के हित में हड़ताल 23 जुलाई को बंद कर दी गई।"

राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियान (एनएचएम) के तहत काम पर रखे गए इन कर्मचारियों की मुख्य मांगों में वेतन संशोधन के तहत हर साल वेतन में 15 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी, राज्य सरकार के तहत काम को नियमित करना, कोरोना के शिकार हो गए स्वास्थ्य कर्मियों के परिजनों को 25 लाख रुपए का मुआवज़ा और रोज़गार भविष्य निधि संबंधी लाभ मुहैया करना है।

अख़्तर कहते हैं, "बीएससीएचईएफ ने राज्य सरकार से 'पब्लिक हेल्थ मैनेजमेंट' कैडर के गठन की मांग की है, जो संविदा कर्मचारियों के देखभाल के लिए जिम्मेदार होगा। यदि 23 अगस्त तक हमारी मांगें नहीं मानी जाती तो हम अनिश्चितकालीन राजव्यापी हड़ताल पर चले जाएंगे।"

सहायक नर्स, प्रसाविका और फार्मासिस्ट

अखिल भारतीय फार्मासिस्ट संघ (एबीपीए) बिहार के सदस्य और बिहार राज्य बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के सहायक नर्स और प्रसाविकाएं 29 जून,2020 से ही अनिश्चितकालीन हड़ताल पर है।

इनका काम 0 से 18 वर्ष तक के बच्चों में विशिष्ट रोग की पहचान और उनके लिए उपचार सुनिश्चित करना है। कोरोना महामारी में इन्होंने अगली पंक्ति के कर्मियों के तरह काम किया है। कोरोना संदिग्धों के लिए डोर-टू-डोर थर्मल स्क्रीनिंग में लगे हुए हैं। इस दौरान इनकी ड्यूटी रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड और क्वांरटाइन सेंटर में लगाई गई।

हड़ताल के दौरान सहायक नर्स, प्रसाविका और फार्मासिस्ट, तस्वीर-रोहिण कुमार

राज्य बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (आरबीएसके), 2015 के तहत, 2136 आयुष चिकित्सक, 1068 फार्मासिस्ट और 1068 एएनएम की भर्ती की गई थी। प्रतिमाह इनकी निर्धारित वेतनमान क्रमश: 20,000 रुपए, 12000 रुपए और 11,500 रुपए थी। ये परियोजना आधारित पद हैं। परियोजना की निगरानी राज्य स्वास्थ्य सोसायटी (एसएचएस) के द्वारा की जाती है।

एसएचएस के द्वारा ही राज्य में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के गैर-सरकारी संगठन/ सरकारी-निजी भागीदारी (पीपीपी) घटकों का प्रबंधन किया जाता है। इसमें अनुबंधों को मूर्त रूप देना, पैसा का भुगतान करना और प्रदर्शन की निगरानी शामिल है।

अखिल भारतीय फार्मासिस्ट संघ (एबीपीए), बिहार चैप्टर के राज्य सचिव राजीव सिन्हा गांव कनेक्शन से कहते हैं, "दिसंबर 2018 में, राज्य सरकार ने स्वास्थ्य विभाग द्वारा भर्ती किए गए संविदा फार्मासिस्टों का वेतन 37,000 रुपए प्रतिमाह कर दिया। लेकिन आरबीएसके द्वारा भर्ती किए गए एएनएम और फार्मासिस्टों को वेतन बस 27,300 रुपए किया गया।"

सिन्हा आगे कहते हैं, "राज्य सरकार ने हमारे साथ भर्ती आयुष डॉक्टरों का वेतन बढ़ाकर 44,000 रुपए प्रतिमाह कर दिया। फिर एएनएम और फार्मासिस्टों को समान और सम्मानजनक वेतन देने में क्या समस्या है?"

बिहार राज्य बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम सहायक नर्स प्रसाविका संघ की सचिव उषा कुमारी गांव कनेक्शन से कहती हैं, "हम यह नहीं कहते हैं कि सरकार तुरंत मांगों को पूरा ही कर दे। लेकिन कम से कम वह हमारी मांगों पर विचार करे और एक आधिकारिक आश्वासन दे। यह कठिन समय है और हम समाज के लिए सर्वश्रेष्ठ योगदान देना चाहते हैं।"

बिहार राज्य बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम सहायक नर्स प्रवासिका संघ और अखिल भारतीय फार्मासिस्ट संघ के सदस्य हड़ताल के दौरान, तस्वीर-रोहिण कुमार

आशा कार्यकर्ता भी अवैतनिक काम कर रही हैं

मान्यता प्राप्त स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) जो कोरोना महामारी से लड़ने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। उन्हें न तो पर्याप्त सुरक्षा मिल रही है और न ही पैसा। यह स्थिति उन्हें अगले महीने हड़ताल करने के लिए विवश कर रहा है। बिहार में 90,000 से अधिक आशा हैं।

मुज़फ़्फ़रपुर की आशा कार्यकर्ता अनिता देवी ने गांव कनेक्शन को बताया कि कोरोना वायरस सर्वेक्षण अब तक तीन बार किया गया है, लेकिन इसका भुगतान अब तक नहीं किया गया है।

22 मार्च, 2020 में बिहार में कोरोना का पहला मामला रिपोर्ट किया गया था, तब बिहार सरकार द्वारा आशा कार्यकर्ता को 'डोर-टू-डोर' कैम्पेन के तहत उन लोगों की स्क्रीनिंग और सूची बनाने का काम सौंपा गया था जो विदेश से आए थे। स्क्रीनिंग 20 अप्रैल से शुरू हुई और आठ दिनों तक चली। फिर एक दूसरे राउंड का सर्वेक्षण मई में आयोजित किया गया। यह सर्वेक्षण भी आठ दिनों तक चला था। तीसरे दौर का सर्वेक्षण 26 जून से शुरू हुआ और पांच दिनों तक चला।

पूर्वी चंपारण के केसरिया गांव की आशा कार्यकर्ता चुन्नी देवी गांव कनेक्शन को बताती हैं कि, "पहले सर्वेक्षण के लिए प्रतिदिन 400 रुपए के दर से 3200 रुपए देने थे। जबकि दूसरे और तीसरे सर्वेक्षण के लिए 200 रुपए के दर से 2600 रुपए दिए जाने थे। लेकिन भुगतान अब तक नहीं किया गया है। परिवार चलाना मुश्किल हो रहा है। हम किसी तरह जी रहे हैं, लेकिन सरकार हमारी ओर ध्यान नहीं दे रही है।"

इस साल आशा कार्यकर्ता द्वारा मुज़फ़्फ़रपुर सहित उत्तर बिहार के कुछ जिलों में चमकी बुखार के ख़िलाफ़ अभियान में हिस्सा लिया गया था। लेकिन इसका भुगतान अब तक बकाया है।

नाम नहीं बताने के शर्त पर एक आशा कार्यकर्ता ने गांव कनेक्शन से कहा, "यह 90 दिनों का अभियान था। हम घर-घर जाकर ओआरएस और जरूरी दवाइयों को वितरण करते थे। चमकी बुखार की जागरूकता के लिए चौपाल का आयोजन करते थे। लेकिन इसके लिए मात्र 3000 रुपए दिए जाने थे जो अब तक नहीं मिला है। "

आशा कार्यकर्ता संघर्ष समिति के अध्यक्ष मीरा सिन्हा ने कहा कि, "हम कई बार अधिकारियों से मिल चुके हैं, लेकिन सारा कुछ व्यर्थ साबित हुआ है। हम उन्हें भुगतान करने का अनुरोध करते-करते थक गए हैं। अब हम 6 अगस्त, 2020 से तीन दिवसीय हड़ताल करने जा रहे हैं।"

चिकित्सकों की अपर्याप्त संख्या

23 मार्च, 2018 को, विधानसभा में विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के विधायक अख़्तरुल इस्लाम शाहीन के एक प्रश्न के जवाब में, राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे ने खुलासा किया कि बिहार में 17,685 लोगों पर एक डॉक्टर है जो राष्ट्रीय औसत (11,097 लोगों पर एक डॉक्टर) से भी काफी कम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू।एच।ओ।) के अनुसार प्रति एक हज़ार व्यक्ति पर एक डॉक्टर होना चाहिए।

भारतीय चिकित्सक संघ (आईएमए) के द्वारा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को दी गई सूचना के अनुसार 30 सितंबर, 2017 तक भारत में कुल 10,41,395 एलोपैथिक डॉक्टर 'स्टेट मेडिकल काउंसिल' या 'मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया' के अंतर्गत पंजीकृत हैं। अनुमान है कि 8।33 लाख यानी लगभग 80 फीसदी डॉक्टर सक्रिय सेवा के लिए उपलब्ध है। इसमें मात्र 40,043 बिहार मेडिकल काउंसिल में पंजीकृत हैं।

इन आंकड़ों के सामने आने से सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की गंभीर स्थिति उजागर होती है। बिहार में केवल 1,899 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) हैं, इनमें से मात्र 439 केंद्र ही चार या उससे अधिक एलोपैथिक डॉक्टरों की क्षमता से लैस हैं। तीन डॉक्टरों के साथ 41 पीएचसी, दो डॉक्टरों के साथ 56 पीएचसी और सिर्फ एक डॉक्टर के साथ 1,363 पीएचसी काम कर रहे हैं। राज्य के 256 पीएचसी में एक भी टेक्नीशियन है। 201 पीएचसी में एक भी फार्मासिस्ट नहीं है और 156 पीएचसी बिना किसी महिला डॉक्टर/टेक्नीशियन या फार्मासिस्ट के हैं।

कोरोना के तेज़ी से बढ़ते मामले को देखते हुए राज्य सरकार ने अब निजी अस्पतालों में मरीज़ों के लिए 20-25 प्रतिशत बेड आरक्षित करने के लिए कहा है। अब तक निजी अस्पताल कोरोना मरीज़ों को अपने यहां भर्ती करने से मना करते रहे हैं।

पटना एम्स में नर्सिंग कर्मचारियों का हड़ताल, तस्वीर-रोहिण कुमार

पूरक के रूप में जूनियर डॉक्टर

जूनियर डॉक्टरों से काम लेना बिहार में एक पुरानी प्रथा बन गई है। राज्य में जनसंख्या के अनुपात में डॉक्टरों की कमी इस कारण भी है। एम्स पटना के वरिष्ठ चिकित्सक नाम नहीं छापने की शर्त पर गांव कनेक्शन से कहते हैं, "यह भारत भर के सरकारों के लिए आर्थिक रूप से सबसे साध्य मॉडल है। आवश्यक रिक्तियों को भरने के बजाय इन्टर्न और स्नातकों से सेवाएं ले ली जाए।"

वे आगे कहते हैं, "जूनियर डॉक्टरों के संघों द्वारा हड़ताल के आह्वान से न केवल प्रबंधक पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है, बल्कि राज्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की पूरी संरचना खराब हो जाती है।"

अप्रैल 2019 में, जूनियर डॉक्टरों की गई हड़ताल के कारण 15 मरीज़ इलाज के अभाव में मर गएं। जुलाई 2019 में, जूनियर डॉक्टर तीन दिन की हड़ताल पर चले गए जिससे 60 सर्जरी स्थगित करना पड़ा। उसी साल नवंबर में, नालंदा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल का कामकाज जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल के कारण अपंग हो गया था।

जूनियर डॉक्टरों से मिली सूचना के अनुसार, कम से कम 1000 से ऊपर जूनियर डॉक्टर कोरोना महामारी के बीच लोगों को अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (पीएमसीएच) के जूनियर डॉक्टर शंकर भारती ने कहा, "जूनियर डॉक्टर राज्य के सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की रीढ़ हैं। अगर उन्हें बुनियादी सुरक्षा उपकरणों से वंचित कर दिया जाएगा तो वे बीमार पड़ जाएंगे। इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली ध्वस्त हो जाएगी।"

भारतीय चिकित्सक संघ (आईएमए) सदस्यों के एक प्रतिनिधि मंडल ने राज्य स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे से मुलाक़ात की, और राज्य में अपनी सेवाएं दे रहे सभी चिकित्सकों और पाराचिकित्साकर्मचारियों के तरफ़ से मांगों का एक ज्ञापन सौंपा है। प्रतिनिधि मंडल ने अगली पंक्ति में काम करने वाले स्वास्थ्य पेशेवरों के लिए 15 दिन की अनिवार्य छुट्टी की भी मांग रखी है।

गांव कनेक्शन ने राज्य के स्वास्थ्य मंत्री को एक विस्तृत प्रश्नावली भेजी है। जब उनके तरफ़ से इस पर कोई प्रतिक्रिया दिया जाएगा तो उसे इस रिपोर्ट में जोड़ा जाएगा।

अनुवाद- दीपक कुमार

इस स्टोरी को मूल रूप से अंग्रेजी में यहां पढ़ें।

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