बिहार: लॉकडाउन के बाद नदी के कटान के कारण फिर से घर वापसी को मजबूर कोसी क्षेत्र के प्रवासी मजदूर

लॉकडाउन की मार सहने के बाद बीते महीने ही कोसी तटबंध के भीतरी इलाके से बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन बड़े शहरों की तरफ हुआ था, लेकिन एक महीने के भीतर ही एक बार फिर ये अपने घर वापस लौटने को मजबूर हो गए हैं।

Hemant Kumar PandeyHemant Kumar Pandey   27 Oct 2020 11:29 AM GMT

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बयालीस साल के रामानंद राय बिहार के सुपौल जिले के किशनपुर स्थित बोढ़ा गांव के रहने वाले वाले हैं। वे पंजाब में मजदूरी करते हैं और इस साल फरवरी में पंजाब से घर आए थे, लेकिन लॉकडाउन के चलते करीब आठ महीने यहीं रह गए। इस दौरान गांव में कोई कमाई न होने के चलते उनपर 30,000 रुपये का कर्ज भी हो गया। इस रकम पर उन्हें प्रत्येक महीने पांच रुपये प्रति सैकड़ा का ब्याज भी चुकाना है। इसके लिए उन्हें एक बार फिर कर्ज लेकर पंजाब का रास्ता पकड़ना पड़ा। लेकिन सिर्फ दो हफ्ते तक काम करने के बाद ही रामानंद एक बार फिर से घर वापस आ गए।

"घर से फोन आया कि नदी (कोसी) में कटान काफी तेज हो गया है। कई लोगों का घर नदी में चला गया है। अब घर में पत्नी के साथ पांच बच्चे थे, इनको सुरक्षित जगह पर पहुंचाने और घर को दूसरी जगह पर ले जाने के लिए फिर वापस आना पड़ा। दो हफ्ते में जितना कमाए नहीं थे, उससे अधिक तो पंजाब जाने और घर वापस आने में खर्च हो गया," रामानंद कहते हैं।

आने वाले दिनों में भी उनकी मुश्किलें कम होती हुई नहीं दिख रही हैं। वह कहते हैं, "अब हमारे पास जमीन नहीं बसा है। अभी बांध पर घर ले गए हैं, लेकिन घर बनाने के लिए फिर से जमीन खरीदना होगा और इसके लिए कर्ज ही लेना होगा। अब जब परिवार सेटल हो जाएगा। फिर कमाने के लिए दूसरे राज्य जाएंगे।"

रामानंद की मानें तो गांव में कोई काम नहीं है। महीना में 10 दिन भी काम मिल गया तो बहुत है। इस तरह से उनकी पूरी आजीविका कर्ज पर ही निर्भर है और जब वे फिर कमाने के लिए पंजाब जाएंगे तो कर्ज का भारी बोझ उनके कंधे पर होगा। इस तरह की कहानी केवल रामानंद राय की नहीं है बल्कि, बोढ़ा सहित अन्य पंचायतों में कटान के शिकार प्रत्येक मजदूर परिवारों की हैं।

बीते एक महीने के दौरान सुपौल जिले के किशनपुर और सरायगढ़-भपटियाही प्रखंड में सैकड़ों घर नदी के कटान के चलते उजड़ चुके हैं। इस कटान से सबसे अधिक प्रभावित गांवों में बोढ़ा, बेंगा, बनैनिया, औराही और सोनबरसा जैसे गांव हैं। इन इलाकों में कटान से न केवल घरों को नुकसान पहुंचा है, बल्कि सैकड़ों एकड़ में लगी धान की फसल भी कोसी में समा चुकी है। वहीं, इनमें से अधिकांश इलाकों का संपर्क मुख्य सड़क से कट चुका है और यहां पहुंचने के लिए नाव ही एकमात्र सहारा रह गया है।

तटबंध पर घर बसाने की कोशिश

इससे पहले बीते अगस्त में बिहार के 16 जिलों को भारी बाढ़ का सामना करना पड़ा था। इनमें सुपौल और सहरसा सहित मिथिलांचल के कई जिले शामिल थे, जो कोसी के दायरे में आते हैं। अपनी धारा बदलने के लिए कुख्यात कोसी नदी पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के भीतर 380 गांव और लाखों की आबादी बसती है। मानसून के दिनों में इनकी नियति नेपाल और इससे लगे बिहार के उत्तरी इलाके में होने वाले बारिश की मात्रा तय करती है।

वहीं, यहां के ग्रामीणों की मानें तो कटान की समस्या नदी में पानी की मात्रा कम होने के बावजूद बनी रहती है। उदाहरण के लिए, बेंगा गांव से थोड़ी ही दूरी पर कोसी महासेतु है, जहां पानी का बहाव करीब-करीब स्थिर ही दिखता है। कोसी नदी की यही बात यहां के लोगों के लिए भी परेशानी का सबब है कि पानी की अधिक मात्रा न होने के बाद भी कटान ऐसा होता है कि एक रात में ही कई घर अपने में विलीन कर लेती है। जैसा कि बेंगा की दुलारी देवी हमें बताती हैं। वह नदी की धारा की तरफ इशारा करके कहती हैं, "दो दिन पहले वहां टिन का घर था। लेकिन रात में ही सब बह गया। कुछ नहीं बचा।"

कोसी के भीतर रहने वाले अधिकांश परिवारों की आजीविका का सहारा दूसरे राज्यों में मजदूरी ही हैं। लेकिन कटान के चलते अब यह भी इनके हाथों से निकल रहा है।

बेंगा सनपतहा के रहने वाले रवींद्र राय पिछले महीने ही 6,000 रुपये कर्ज लेकर हरियाणा गए थे। वहां वे एक अनाज मंडी में काम कर रहे थे, लेकिन एक महीने के भीतर ही उन्हें एक बार फिर घर वापस आना पड़ा है।

"घर कट चुका है। यहां एक बीघे से कम जमीन पर खेती-बाड़ी करते हैं। अब खेत भी नदी में कट रहा है। धान पानी में बह गया। इन सबके चलते वहां से काम छोड़कर आना पड़ा। वहां मंडी में अभी एक महीना और काम चलता, लेकिन क्या करें!"

रवींद्र हरियाणा जाने से पहले छह महीने घर में ही थे। गांव में कमाई के नाम पर कुछ भी नहीं था। अब जो संपत्ति उनके पास बची हुई थी, कोसी के कटान ने उसे भी खत्म कर दिया है। वह हरियाणा वापस जाने को लेकर कहते हैं, "अभी अब घर बनाएंगे, तब न जाएंगे। बीवी बच्चा को ऐसे छोड़कर तो नहीं जाएंगे। कोई सिस्टम करके जाएंगे न।"

टूटे हुए घर और बिखरीं चीजें

हमने कटान के शिकार जितने भी मजदूरों से बात की, उनमें से अधिकांश भारी कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। स्थानीय स्तर पर काम न होने के चलते अब फिर से कर्ज लेना और फिर इसके तले दबे रहना ही इन सबकी नियति दिखती है।

रामानंद राय कहते हैं, "कर्ज लेने के अलावा हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है। पहले कर्ज लेते हैं और फिर इसे चुकाने और घर चलाने के लिए बाहर (दूसरे राज्य) जाना पड़ता है। ऐसा लगता है कि हमारी जिंदगी इसी तरह खत्म हो जाएगी।"

दूसरी ओर, अपनी और अपने परिवार की जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में सती देवी बसंत से अधिक उजाड़ को भोगा है। करीब 45 साल की सती को अपनी शादी के बाद अब तक चार बार बसा-बसाया घर छोड़ना पड़ा है। लेकिन इस बार घर उजड़ने के बाद सती को अब तटबंध पर भी बसने से मना किया जा रहा है।

वह कहती हैं, "यहां भी कुछ लोग आकर हमें हटने के लिए कह रहे हैं। बोलते हैं कि नहीं हटोगे तो केस कर देंगे। हम कहते हैं कि जेल में ही सब को डाल दो, इससे तो अच्छा हम लोग वहीं रहेंगे। यहां तो अब कुछ भी जमीन नहीं बचा। पहले पांच-छह बीघा जमीन था, अब सब डूब गया है।"

सती के पति और बेटा बीते मार्च से ही घर पर हैं। अब जब तक घर का व्यवस्था नहीं हो जाता, वे फिर नहीं जा सकते हैं।

इस तरह की कहानी इलाके के कई मजदूरों की है। कोसी महासेतु के करीब स्थित तटबंध पर हमें सुरिंदर राम मिलते हैं। वह अपने घर में अकेले कमाने वाले सदस्य हैं। पिछले छह महीने से वह घर में ही हैं।

"अभी घर का खर्चा कर्ज वगैरह उठाकर ही चल रहा है। परिवार में सात लोग हैं। अकेल कमाने वाले हैं। दो साल पहले घर बनवाए थे। लॉकडाउन से लेकर अब तक घर पर ही हैं। कुछ दिनों बाद बाहर कमाने के लिए जाने वाले थे लेकिन, अब जब तक घर तैयार नहीं हो जाता है, तब तक यहीं रहना पड़ेगा," सुरिंदर कहते हैं।

वह हमें आगे बताते हैं कि दो हफ्ते हो गए हैं लेकिन सरकार की ओर से हम लोगों के रहने के लिए कोई व्यवस्था नहीं किया गया। साथ ही, प्रखंड या जिला से हमें देखने के लिए कई अधिकारी या कर्मचारी नहीं आया है।

कटान का शिकार बना ग्रामीण सड़क

इस बारे में हमने सुपौल के जिला अधिकारी (डीएम) महेंद्र कुमार से संपर्क करना चाहा लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई। उन्होंने व्हाट्सएप मैसेज और ई-मेल का भी कोई जवाब नहीं दिया। वहीं, किशनपुर की सर्किल ऑफिसर (सीओ) संध्या से हमें जवाब नहीं मिल पाया।

हमने जब कटान के शिकार परिवारों को मुआवजा, राहत-पुनर्वास को लेकर सरकार की नीतियों और योजनाओं के बारे में जब किशनपुर के प्रखंड विकास पदाधिकारी (वीडियो) अजित कुमार से सवाल किया तो उन्होंने चुनावी व्यस्तताओं का हवाला देकर हमारे सवालों का जवाब देने से इनकार कर दिया। उन्होंने रिपोर्ट लिखे जाने तक इस संबंध में ई-मेल का भी कोई जवाब नहीं दिया है।

कोसी तटबंध पर अस्थायी तौर पर घर बना रहे योगेश्वर साह हमसे कहते हैं, "आज से 10 साल पहले कटान की इतनी भारी समस्या नहीं थी। पहले भी कटान होता था लेकिन एक ओर कटान होता था तो हम दूसरी ओर बसे जाते थे। अब पूरा जमीन ही पानी में डूबा हुआ है।"

योगेश्वर साह पंजाब-हरियाणा में मजदूरी करते हैं। वह दो दिन पहले ही वापस आए हैं और कटान से घर की संपत्ति बचाने के लिए तटबंध में अपना नया घर बनाने में जुटे हुए हैं। वह हमें बताते हैं कि उनके जाने के 10 दिन पहले कटान नहीं था।

वहीं, जब हम कटान से उजड़ चुकी बस्ती बेंगा में पहुंचते हैं तो हमें दुलारी देवी अपने बच्चों के साथ मिलती हैं। वह कई घर को उजाड़ चुकी होती हैं, लेकिन दो घर अभी भी दिखते हैं। इनमें से एक रसोई घर है और दूसरा पूजा घर।

दुलारी कहती हैं, "अभी दुर्गा पूजा चल रहा है। जब तक ये खतम नहीं होता, इसको कैसे हटा सकते हैं?" वहीं, वह रसोई घर के बगल में ही दूसरा चूल्हा भी तैयार कर रही होती हैं। वह कहती हैं, "बांध पर इसी चूल्हे को लेकर जाएंगे। पुराना चूल्हा तो यहीं रह जाएगा।" दुलारी सरकार और स्थानीय प्रशासन से नाराज दिखती हैं, लेकिन उनका सब कुछ ले जाने वाली कोसी नदी को अभी भी आदर के साथ 'मैया' ही कहती हैं।

भपटियाही-सरायगढ़ स्थित बनैनिया गांव के रहने वाले कोसी महासेतु पीड़ित संघर्ष समिति के अध्यक्ष मोहम्मद इकबाल हुसैन कहते हैं, "यहां (कोसी क्षेत्र) से पलायन बहुत बड़ी संख्या में होती है। हमारे हर से कमाने वाले सदस्य देश के अलग-अलग हिस्सों में पलायन करके कमाते हैं, तब दो जून की रोटी जुटा पाते हैं। अभी जो विस्थापित हैं, वे सभी जमींदार थे। लेकिन अभी बांध और गलियों में शरण लिए हुए हैं।"

कटान से प्रभावित खेत

बीते मार्च में देशव्यापी लॉकडाउन के बाद बेरोजगारी की सबसे अधिक मार मजदूर तबके पर ही पड़ी है। इसमें भी दिल्ली-एनसीआर और मुंबई जैसे बड़े शहरों में काम करने वाले प्रवासी मजदूर बड़ी संख्या में शामिल हैं। ये सभी किसी तरह अपने घर वापस तो आ गए लेकिन, यहां पर काम न होने से इनके सामने बहुत भारी संकट खड़ा हो गया। इससे निकलने के लिए बीते महीने इन्होंने एक बार फिर दूसरे राज्यों का रूख किया था, लेकिन कोसी के कटान ने इनके पांवों को एक बार फिर वापस घर की ओर खींच लिया है।

अब ये खुद को बेरोजगारी, विस्थापन, भूमिहीनता और भूखमरी के दुष्चक्र में खुद को फंसा हुआ पा रहे हैं, जिनसे इन्हें मुक्ति सरकार से नहीं कोसी मैया से ही मिलने की उम्मीद दिखती है। तटबंध पर नदी की ओर इशारा करते हुए सती देवी कहती हैं, "सरकार रहने के लिए जगह नहीं दे सकती है तो हम सब को नदी में ही फेंक क्यों नहीं देती?"

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