सरकारी स्कूलों के ढांचे में सुधार की जरुरत

नीति आयोग द्वारा जारी 'स्कूल एजुकेशन क्वालिटी इंडेक्स 2019' के अनुसार सरकारी स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर दाखिले में चिंताजनक गिरावट दर्ज की गई है।

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
सरकारी स्कूलों के ढांचे में सुधार की जरुरत

- नरेंद्र सिंह बिष्ट, नैनीताल (उत्तराखंड)


नीति आयोग द्वारा जारी 'स्कूल एजुकेशन क्वालिटी इंडेक्स 2019' के अनुसार देश भर में स्कूली शिक्षा के मामले में काफी असमानताएं हैं, जिसमें बड़े पैमाने पर सुधार की आवश्यकता है। आयोग की इस रिपोर्ट में गुणवत्ता के आधार पर केरल को सबसे पहला जबकि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को अंतिम पायदान पर रखा गया है।

यह रिपोर्ट स्कूल जाने वाले बच्चों के सीखने के परिणामों पर आधारित है। रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक स्तर पर दाखिले में देश के 20 बड़े राज्यों में से 11 में चिंताजनक गिरावट आई है। जबकि माध्यमिक स्तर पर यह गिरावट 20 बड़े राज्यों में से 8 में दर्ज की गई है। पुस्तकालय और कंप्यूटर शिक्षा के मामलों में भी राज्यों में काफी असमानताएं हैं।

राज्यों के बीच शिक्षा में असमानता देश के विकास में एक बड़ी बाधा है, क्योंकि यही वह सेक्टर है जो पूरी पीढ़ी की दिशा और दशा को इंगित करता है। आंकड़े बताते हैं कि अभी भी शैक्षणिक सुधार के लिए एक मज़बूत पहल की ज़रूरत है। ऐसी नीति बनाने की ज़रूरत है जिसे सभी राज्यों में समान रूप से लागू करवाया जा सके।

निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009 देश के सभी राज्यों में समान रूप से लागू है। इसके बावजूद शिक्षा नियमों को लागू करवाने में केरल सबसे आगे और उत्तर प्रदेश सबसे पिछड़ा है। पढ़ाने का पैटर्न, शिक्षकों की ट्रेनिंग, क्लास रूम और पदों के अनुपात में शिक्षकों की नियुक्ति समेत सभी मामलों में केरल की अपेक्षा देश के सभी राज्य पिछड़े हुए हैं।


देवभूमि कहलाने वाला पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड 'स्कूल एजुकेशन क्वालिटी इंडेक्स' रिपोर्ट में दसवें पायदान पर है, जो सरकारी स्कूलों में इसकी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में कमी को दर्शाता है। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति और भी चिंताजनक है। जहां कुछ क्षेत्रों में स्कूल भवन पढ़ाने लायक नहीं है, तो कहीं शिक्षकों के पद खाली हैं।

सरकारी स्कूलों की चरमराती व्यवस्था के कारण ही अभिभावकों का रुझान प्राइवेट स्कूलों की तरफ बढ़ने लगा है। कम आमदनी के बावजूद मां बाप अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में दाखिला दिलाने को तरजीह दे रहे हैं।

एक गैर सरकारी सर्वे के अनुसार 35 प्रतिशत अभिभावक अपने बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए निजी स्कूलों का विकल्प चुन रहे हैं। वर्ष 2006 में निजी स्कूलों में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत 20 से बढ़कर 2018 में 33 प्रतिशत हो गया है। उत्तराखण्ड के सरकारी स्कूलों ने वर्ष 2014 से 2018 के मध्य 1.5 लाख विद्यार्थियों ने निजी स्कूलों में पलायन किया हैं। 13 जिलों के 1689 प्राथमिक स्कूलों के 39000 विद्यार्थी एकल शिक्षकों की कृपा से चल रहें हैं। राज्य में छात्र शिक्षक के अनुपात में बहुत बड़ा अंतर है।

वर्तमान में निजी एवं सरकारी स्कूलों के ढांचागत शिक्षा में भी बहुत बड़ा अंतर है। खासकर अंग्रेजी भाषा की महत्ता के मामले में अभिभावक निजी स्कूलों का रुख कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि सरकारी स्कूलों की अपेक्षा प्राइवेट स्कूल में प्राइमरी स्तर पर ही अंग्रेजी बोलने पर ज़ोर दिया जाता है, जो भविष्य में बच्चों को रोज़गार दिलाने में सहायक साबित होगा।

निजी स्कूल और सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों की शिक्षा क्षमता का अन्तर भी बढ़ता जा रहा है। 2009 के अनुसार यह 16 प्रतिशत से बढ़कर 2013 में 29 प्रतिशत एवं 2018 में 37 प्रतिशत देखने को मिला हैं। बात केवल भाषा सीखने तक ही सीमित नहीं है बल्कि स्कूल भवन और ढांचागत विकास भी प्रभाव रखता है।


मैंने स्वयं के अनुभव से देखा है कि सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की शिक्षा से ही नहीं वरन् स्वास्थ्य से भी खिलवाड़ किया जा रहा है। इसी साल नैनीताल शहर के एक सरकारी स्कूल में भ्रमण के दौरान मैंने गंदे शौचालय देखे जो गुटखे, सिगरेट व दुर्गंध से भरे थे, जिसमें एक पल खड़ा रह पाना मुश्किल था। वहीं विद्यालय के सभागार का ऐसा आलम था कि छत कभी भी गिर कर एक बडे हादसे का रूप ले सकती है।

यह स्थिति नैनीताल शहर के केवल एक विद्यालय की ही नही हैं। उत्तराखण्ड राज्य के 90 प्रतिशत सरकारी स्कूल इसी परिस्थिती से जूझ रहे हैं। जबकि उत्तराखंड भूकंप के ज़ोन 4 में आता है, जो उच्च क्षति जोख़िम वाला क्षेत्र है। ऐसे में जर्जर भवन एक बड़े हादसे को अंजाम दे सकते हैं, जिसकी तरफ स्थानीय प्रशासन को गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है।

ऐसा नहीं है कि सरकारी स्कूलों के शिक्षकों में ज्ञान की कमी है। उनकी नियुक्ति योग्यता के आधार पर होती है परन्तु शिक्षण कार्य के अतिरिक्त उन शिक्षकों पर चुनाव, जनगणना तथा अन्य सर्वे जैसे कार्य बोझ लाद दिए जाते हैं। जिससे अक्सर उनका अध्यापन कार्य प्रभावित होता है। इसके विपरीत निजी स्कूलों के शिक्षकों को केवल पढ़ाने का काम करना होता है, जिससे वह अपनी सारी ऊर्जा छात्रों के सर्वांगीण विकास में लगाते हैं।

बहरहाल सरकार को नीतियों में सुधार करने की आवश्यकता है। निजी स्कूलों की अपेक्षा सरकारी स्कूलों को सभी अनुदान दिए जाते हैं। बजट में शिक्षा के लिए विशेष राशि आवंटित की जाती है। इसके बावजूद अभिभावकों का निजी स्कूलों की तरफ रुख करना इसकी लचर व्यवस्था को दर्शाता है।

ज़रूरत इस बात की है कि सरकार इन स्कूलों के मॉडल में सुधार करे। एक तरफ जहां प्राइवेट स्कूलों की तर्ज़ पर भवनों को तैयार किया जाये वहीं शिक्षकों की गुणवत्ता पर भी ध्यान दिया जाये। इसके अतिरिक्त प्राथमिक स्तर से ही अंग्रेजी विषय पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। वहीं स्कूली शिक्षा में आधुनिक शैक्षणिक पहुलओं एवं प्रतियोगी परीक्षाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने की आवश्यकता हैं।

वर्तमान समय में कंप्यूटर हमारे दैनिक जीवन का एक हिस्सा बन गए हैं। हमारी पीढी इससे वंचित न रहे इसलिए ज़रूरी है कि कम्यूटर की मूल बातें प्राथमिक स्तर से ही पाठ्यक्रम में शामिल किए जाएं। वास्तव में सरकारी स्कूलों के मॉडल में सुधार की आवश्यकता है। कई स्कूलों में सुधार आया है लेकिन कई जगह अब भी सुधार की गुजाइंश बाकी है। इसकी शुरुआत प्राथमिक स्तर से ही की जानी चाहिए क्योंकि मज़बूत नींव पर ही सशक्त भवन तैयार किया जा सकता है।

(यह लेखक के अपने विचार हैं। Charkha.org से साभार)

यह भी पढ़ें- यूपीः क्या इस बार भी ठिठुरते होगी राज्य के प्राइमरी स्कूल के बच्चों की पढ़ाई?

'प्राइवेट स्कूल की भारी भरकम फीस से बचा सकते हैं सरकारी स्कूल'


    

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.