'अपने इलाके में काम नहीं मिल रहा, सुबह से 30 किलोमीटर साईकिल चलाने पर सिर्फ 10 रुपये की आमदनी हुई है'

कोरोना के कारण लगे लॉकडाउन से जैसे-जैसे देश अनलॉक हो रहा है, वैसे-वैसे ही बिहार के सीमांचल क्षेत्र से बड़े शहरों की तरफ पलायन फिर से शुरू हो गया है। मुश्किलें उनके लिए अधिक हैं जो किसी मजबूरी के कारण अब बाहर नहीं जा सकते और अपने ही इलाके में कोई काम-धंधा करना चाहते हैं।

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अपने इलाके में काम नहीं मिल रहा, सुबह से 30 किलोमीटर साईकिल चलाने पर सिर्फ 10 रुपये की आमदनी हुई है

- शशांक मुकुट शेखर

बिहार के अररिया जिले के भंगिया गांव के रहने वाले मोहम्मद बिलाल पुरानी दिल्ली में दिहाड़ी मजदूर का काम करते थे। काम मिलना ठेकेदार के भरोसे था। महीने में खा-पीकर 8-10 हजार रुपये घर भेज देते थे, जहां परिवार के कुल 8 सदस्य रहते हैं। साल 2020 की शुरुआत में जब देश में एनआरसी के खिलाफ आंदोलन जोड़ पकड़ रहा था, तो बिलाल काम छोड़कर घर आ गए थे। उम्मीद थी कि अगले कुछ महीनों में वापस जाकर कामकाज शुरू करेंगे। मगर मार्च महीने में देशभर में लॉकडाउन लग गया और वे वापस ही नहीं जा पाए।

बातचीत के दौरान मो० बिलाल ने बताया कि 8 लोगों के परिवार में कमाने वाले वह अकेले हैं। लॉकडाउन के दौरान दस टका ब्याज (100 रूपया में 10 रूपया प्रति महीना) पर 25, 000 रुपये का कर्जा हो गया है। उनके पास संसाधन के नाम सिर्फ एक साईकिल है। इसी पर थोड़ा-बहुत पूंजी लगाकर वह घूम-घूमकर कपड़ा बेचते हैं। उन्होंने बताया कि सुबह से 30 km साईकिल चलाने पर 10 रुपये की आमदनी हुई है। गुस्साकर घर जा रहे हैं। फिर शाम में कपड़ा बेचने निकलेंगे।

कोरोना संक्रमण के कारण लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन के कारण बिहार के सीमांचल क्षेत्र के लाखों मजदूर वापस अपने गांव-घर आ गए हैं। केंद्रीय कौशल विकास मंत्रालय द्वारा जारी डाटा के अनुसार लॉकडाउन के दौरान बिहार के करीब 23.6 लाख प्रवासी मजदूर वापस लौटे हैं। देश में सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूरों के वापस लौटने वाले 15 जिलों में 2 जिले सीमांचल के हैं। सीमांचल के कटिहार जिले में जहां लॉकडाउन के दौरान 1.4 लाख मजदूर वापस लौटे, वहीं अररिया में 1.01 लाख प्रवासी मजदूर वापस लौटे। सीमांचल के एक अन्य जिले पूर्णिया में करीब 77000 मजदूर लॉकडाउन के दौरान वापस लौटे।

लॉकडाउन के कारण बिहार लौटने वाले प्रवासी मजदूरों को लेकर राज्य की राजनीति खूब गरमाई रही। राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इन मजदूरों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग कर 'नून-रोटी खाएंगे, जिंदगी यहीं बिताएंगे, बिहार छोड़कर नहीं जाएंगे' जैसे गाने गाए थे। सबको बिहार में रोजगार देने के वायदे का दौर चला जो वर्तमान विधानसभा चुनाव तक जारी है।

राज्य सरकार इन मजदूरों के वापस नहीं जाने और इन्हें बिहार में ही रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाने की बात लगातार कह रही है। इन प्रवासी मजदूरों के पलायन को रोकने के लिए केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी 'प्रधानमंत्री गरीब कल्याण रोजगार योजना' की शुरुआत बिहार के ही खगड़िया जिले से की गई। इस योजना के तहत मजदूरों को बड़े पैमाने पर साल में 125 दिनों के रोजगार उपलब्ध कराने का दावा किया गया।

तमाम सरकारी दावों, वायदों और घोषणाओं के बाद हकीकत यही है कि सीमांचल सहित बिहार के तमाम जिलों से रोजाना सैकड़ों की तादाद में मजदूर रोजी-रोटी की तलाश में परदेस जा रहे हैं। मुम्बई स्थित संस्था 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेस' के फरवरी माह में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार आज बिहार के हर दूसरे परिवार का कोई-न-कोई सदस्य दूसरे राज्यों में पलायन के लिए मजबूर है। लॉकडाउन के कारण वापस आए ऐसे मजदूर जिनके पास निकट समय में बड़े शहर जाने का रास्ता नहीं है वे क्षेत्र में रोजगार नहीं होने से दोहरी मार झेल रहे हैं। अपनी जमीन ना होने और बाढ़ के कारण खेती-किसानी चौपट हो जाने से इनके सामने भोजन-पानी का संकट पैदा हो गया है।

बिलाल बताते हैं कि उनके गांव के आसपास से रोजाना दर्जनों बसें दिल्ली, हरियाणा तथा जम्मू जैसे जगहों के लिए खुलती है। इसी से मजदूर 2000-3000 रुपये किराया भरकर काम की तलाश में वापस जा रहे हैं। सरकार ने ट्रेन सेवा बंद कर रखा है जिससे मजदूर कम भाड़ा में शहर पहुंच जाते थे। इस समय अररिया के बैरियर चौक के आसपास दर्जनों टूर एंड ट्रेवल 'बस सर्विस' खुल गए हैं। सबका संपर्क ठेकेदारों से हैं। ये मजदूरों से मोटा भाड़ा वसूलकर उन्हें काम पर भेज रहे हैं।

अररिया के बैरियर चौक पर प्रवासी मजदूरों को ले जाने के लिए खड़ी बसें

"गांव में कुछ लोगों का मनरेगा जॉब कार्ड बना है मगर किसी को काम नहीं मिला। मनरेगा का सारा पैसा मुखिया की जेब तक ही रह जाता है," बिलाल गुस्से में कहते हैं। उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही स्थिति सामान्य होगी और बड़े शहरों में काम मिलने लगेगा ताकि वह फिर से घर-परिवार का रोजी-रोटी चला सके और लॉकडाउन के दौरान चढ़ा कर्जा चुका सके।

ऐसी ही एक बस अररिया से सिकटी जाने वाले रास्ते पर लगी थी। बस से भगवानपुर पंचायत के सतबिहटा गांव निवासी मरगूब आलम पीओपी (रंगाई-पुताई) का काम करने दिल्ली जा रहे थे। इससे पहले वह चेन्नई में थे। वहां भी मकान में पीओपी का ही काम करते थे, जिससे 8 से 10 हजार की आमदनी हो जाती थी। लॉकडाउन में उनके परिवार वालों ने कर्ज लेकर 5000 रुपया भेजा, जिससे वह भाड़ा गाड़ी करके अपने साथियों के साथ तमिलनाडु से वापस आए थे। इस बस से मरगूब के साथ सतबिहटा गांव के दर्जनों युवा काम की तलाश में दिल्ली जा रहे हैं। पूछने पर गुस्से में उन्होंने बताया कि पिछले 6 महीनों में मनरेगा के तहत उन लोगों को एक दिन का भी काम नहीं मिला है। मुखिया सहित तमाम जनप्रतिनिधि सिर्फ अपना पेट भरने में लगे हुए हैं।

बिहार को देश का 'ह्यूमन लेबर पावर हाउस' भी कहा जाता है। यहां सस्ते मजदूर बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। राज्य की सत्ता और राजनीति अक्सर इस बात पर गर्व भी करती नजर आती है। चुनाव में मजदूरों और रोजगार का मुदा जोर-शोर से उठाया जाता है। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में भी प्रदेश के प्रवासी मजदूरों का मुद्दा प्रमुखता से सामने लाया जा रहा है।

इस साल मार्च के महीने में जब देश में लॉकडाउन लगाया गया, बिहार के लाखों प्रवासी मजदूर एक झटके में सड़क पर आ गए। उनकी रोजी-रोटी बंद हो गई और वे पांव-पैदल हजारों किलोमीटर का रास्ता तय कर अपने गृह राज्य लौटने लगे। शुरू में अपने प्रदेश लौट रहे बिहार के प्रवासी मजदूरों को कोरोना का वाहक कहा गया। उस समय प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रवासी मजदूरों के लिए कहा था कि ' हम उनको बिहार में घुसने नहीं देंगे।' मगर बाद में वही मुख्यमंत्री इनका 'हालचाल जानते' तथा इनके साथ 'वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये गाने गाते हुए' नजर आए।

अररिया के कुर्साकांटा स्थित मैगरा के ऋषिदेव टोला के संतलाल सदा ने बताया कि उनके टोला में सबके घर पर कर्जा चढ़ गया है। टोला के सभी लोग गुजर-बसर के लिए पंजाब में ही मजदूरी करनो पर निर्भर हैं। उन्होंने बताया, "बिहार में काम नहीं है। ऐसे में अगर दिल्ली-पंजाब जाकर नहीं कमाएंगे तो बाल-बच्चा लोग भूखा मर जाएगा। लॉकडाउन में टोला के सभी लोग जो बाहर जाकर काम करते थे, कर्जा लेकर घर आ गए हैं। किसी पर 10 हजार तो किसी पर 20 हजार का कर्जा चढ़ गया है। फिर से कर्ज लेकर पिछले महीने से सब बाहर जाना शुरू किए हैं। अभी हाल यह है कि टोला में सिर्फ 7-8 मर्द बचा है। जो नहीं जा पाए उनमें से कुछ बीमार हैं और कुछ धन-कटनी (धान की कटाई) के काम पर लगे हैं। वे भी अगले महीने दिल्ली-पंजाब निकल जाएंगे।"

अररिया के बैरियर चौक के पास 'टूर एंड ट्रेवल की गुमटी

घर की रोजी-रोटी चलाने के लिए संतलाल सदा 70 साल की उम्र में गांव के आसपास ही दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। उन्होंने बताया कि सितंबर के महीने में उन्हें सिर्फ 4 दिन का काम मिला है और इस साल उनके परिवार पर करीब 1 लाख रुपये का कर्जा चढ़ गया है। टोला में किसी का जॉब कार्ड नहीं बना है तो मनरेगा और किसी अन्य योजना के तहत किसी को एक दिन का काम भी नहीं मिल पाया।

संतलाल सदा की बात को आगे बढ़ाते हुए बुधिया देवी ने बताया कि उनका एक ही बेटा है जिसकी उम्र सिर्फ 17 साल की है। घर में 3 बेटियां हैं जिनका ब्याह करना है। जो कुछ पैसा जोड़कर रखे थे वो लॉक डाउन में खत्म हो गया। ऊपर से हजारों का कर्जा चढ़ गया है जिसको ब्याज सहित चुकाना है। ऐसे में बेटा धन-कटनी का काम करने पंजाब चला गया। वहां से जो 5000-7000 महीना भेजेगा उसी से घर भी चलेगा और बेटियों के ब्याह के लिए बचत भी होगी। पूछने पर उन्होंने बताया कि परदेस जाने से दिन-रात ध्यान बेटा पर ही लगा रहता है। हमेशा घबराहट होती रहती है। मगर किस्मत ही ऐसी है कि कम उम्र से ही बेटा को कमाने के लिए परदेस जाना पड़ा।

बुधिया देवी

इस बाबत पूछे जाने पर अररिया लोकसभा के सांसद प्रदीप कुमार सिंह ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान जितने भी प्रवासी मजदूर अररिया लौट कर आए थे सबको स्कूल में क्वारंटाइन कर 14 दिन तक उनकी देखभाल की गई थी। साथ ही जिले के 50,000 मजदूरों के बैंक अकाउंट में 1000 रुपये ट्रांसफर किया गया।

मनरेगा के सवाल पर उन्होंने कहा, "बाढ़ का इलाका होने के कारण अररिया में मनरेगा के तहत बालू ढुलाई तथा अन्य कामों में व्यवधान आता है। मगर लॉकडाउन के दौरान जिले में बड़ी संख्या में वृक्ष लगाए गए और मजदूरों को इसमें काम मुहैया करवाया गया। साथ ही जिन मजदूरों को मनरेगा और दूसरी योजनाओं के तहत काम नहीं मिल पाया उनके अकाउंट में भी पैसा भेजा गया है।"

जिले में मनरेगा में हो रही धांधली के सवाल पर उन्होंने कहा कि, 'जहां से भी धांधली की शिकायत आई है उसको संज्ञान में लेकर करवाई की गई है।

इस बाबत हमने अररिया के जिलाधिकारी प्रशांत कुमार और बिहार के श्रम संसाधन मंत्री विजय कुमार सिन्हा से संपर्क किया मगर उनकी कोई टिप्पणी हमें प्राप्त नहीं हो पाई।

लॉकडाउन के दौरान मई महीने में बिहार सरकार द्वारा मनरेगा के तहत 18 करोड़ श्रमिक कार्य दिवस को बढ़ाकर 24 करोड़ करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को दिया गया था। केंद्रीय वित्त मंत्री ने भी 40 हजार करोड़ रुपये मनरेगा के जरिये अतिरिक्त दिए जाने का ऐलान किया था। दावा किया गया था कि अगर 24 करोड़ मानव दिवस सृजन संभव हुआ तो राज्य में प्रतिदिन 65 लाख श्रमिकों को काम मिल सकेगा।

सरकारी दावो के अनुसार, "बिहार में मनरेगा में काम के लिए मार्च में 2.25 लाख से अधिक मजदूरों ने निबंधन कराया था। 16 अप्रैल से काम शुरू होने पर पहले ही दिन 2.77 लाख नया निबंधन हुआ। इनमें करीब सवा लाख प्रवासी मजदूर थे। 15 मई तक 11.14 लाख मजदूर निबंधित हो गए थे। इसमें प्रवासी मजदूरों की संख्या लगभग 4 लाख थी। लॉकडाउन के दौरान बिहार में 2.33 लाख जॉब कार्ड बनाए गए।"

सरकार के अनुसार 194 रुपये दैनिक मजदूरी के हिसाब से उनके खजाने में 3500 करोड़ रुपये भुगतान के लिए उपलब्ध था। बिहार के सूचना व जनसंपर्क सचिव अनुपम कुमार द्वारा जुलाई के महीने में बताया गया कि राज्य में 05 लाख 41 हजार 720 योजनाओं में 10 करोड़ 47 लाख 60 हजार 801 मानव दिवसों का सृजन किया जा चुका है।

इस विधानसभा चुनाव में सभी पार्टिया वापस लौटे इन प्रवासी मजदूरों का वोट पाने की जुगत में है। मगर किसी के पास इनके लिए रोजगार सृजन का कोई ब्लू प्रिंट तैयार नहीं है। कई जगहों पर इन प्रवासी मजदूरों द्वारा चुनाव का बहिष्कार करने की बात भी सामने आ रही है। इस विधानसभा चुनाव में भी रोजगार और पलायन मुख्य चुनावी मुद्दों में शुमार है। मगर होता यही आया है कि सिर्फ सरकारें बदलती रहती हैं, बिहार के मजदूरों का जीवन ज्यों-का-त्यों बना रहता है। अभाव, असुरक्षा और बदहाली के साये में पलायन ही इनके हिस्से आता है।

(शशांक मुकुट शेखर बिहार में स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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