उत्तराखंड हादसा: हिमालय क्षेत्र में बढ़ती बाढ़ और सूखे की घटनाओं से भी सतर्क होने की जरूरत

Nidhi Jamwal | Feb 20, 2021, 13:00 IST
CEEW इंडिया के हालिया विश्लेषण के अनुसार उत्तराखंड में पिछले पांच दशकों में बाढ़ की घटनाओं में चार गुना वृद्धि हुई है। वहीं सूखे की घटनाओं में दो गुना वृद्धि देखी गई है। राज्य के 69% से अधिक जिले सूखे की चपेट में हैं। यहां पिछले 20 वर्षों में 50,000 हेक्टेयर से अधिक इलाके में फैला जंगल बर्बाद हो गया है।
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7 फरवरी की सुबह भूस्खलन की वजह से उत्तराखंड में हुई तबाही से चमोली के लोग अब तक उबर नहीं पाए हैं। इस आपदा में कम से कम 56 लोगों की मौत हुई। इनमें से केवल 29 लोगों की पहचान हो पाई, जबकि 150 लोग अभी भी लापता हैं। बचाव अभियान अभी भी जारी है।

इस बीच सैटेलाइट इमेजरी विश्लेषकों ने भूस्खलन की वजह से निर्मित एक झील को लेकर चेतावनी जारी की है। यह झील ऋषिगंगा नदी के प्रवाह को रोक रही है। इस संबंध में कोई भी गलती एक और आपदा का कारण बन सकती है।

केवल बाढ़ ही एकमात्र आपदा नहीं है, जिससे हिमालय जूझ रहा है। नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू इंडिया) के नवीनतम विश्लेषण से पता चलता है कि उत्तराखंड जलवायु परिवर्तन के प्रति कितना संवेदनशील है। राज्य में पिछले पांच दशकों में बाढ़ और सूखे से संबंधित आपदाओं में काफी बढ़ोतरी हुई है।

सीईईडब्ल्यू इंडिया द्वारा किए गए विश्लेषण के मुताबिक इस अवधि के दौरान राज्य में सूखे में दो गुना वृद्धि देखी गई। राज्य के 69 प्रतिशत से अधिक जिले सूखाग्रस्त हैं। पिछले एक दशक से अल्मोड़ा, नैनीताल और पिथौरागढ़ जिले बाढ़ और सूखे की समस्या से जूझ रहे हैं।

सीईईडब्ल्यू के कार्यक्रम प्रमुख अविनाश मोहंती ने कहा, "उत्तराखंड में हाल ही में आई विनाशकारी बाढ़ ने यह संकेत दिया है कि जलवायु संकट को अब और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। पिछले बीस वर्षों में, उत्तराखंड में पचास हजार हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में फैला जंगल बर्बाद हो गया, जिससे इस क्षेत्र की जलवायु में सुक्ष्म परिवर्तन हो रहे हैं। इससे राज्य में जलवायु से संबंधित बड़ी घटनाओं में वृद्धि हुई है।"

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सैलाब आने के बाद तपोवन हाइड्रोप्रोजेक्ट के बचे अवशेष (सेटेलाइट इमेज- @WaterSHEDLab/Twitter)

भूस्खलन और बाढ़

भूवैज्ञानिक और सैटेलाइट इमेजरी विश्लेषक अध्ययन कर रहे हैं कि हाल ही में घटित चमोली आपदा के पीछे का कारण क्या था? जीआईएस और डब्ल्यूआरआई इंडिया, बेंगलुरु के साथ उपग्रह इमेजरी विश्लेषक राज भगत पलानीचामी ने गाँव कैफे शो में गाँव कनेक्शन को बताया, "अब तक, हम जो जानते हैं वह यह है कि भूस्खलन हुआ था और ऐसा लगता है कि यह सीधे ग्लेशियर पर गिरा, और इसलिए हिमस्खलन हो सकता है। इसके बाद, चट्टानों का मलबा और बर्फ ऋषि गंगा नदी और फिर धौली गंगा नदी के बहाव में बहने लगी।"

उनके अनुसार, यह घटना (आपदा) अभी खत्म नहीं हुई है। उन्होंने बताया, "मलबे चारों ओर फैले हुए हैं। कुछ स्थानों पर नदी का जलस्तर कई मीटर तक बढ़ गया है। मलबे की वजह से रोंटी घाट और ऋषि गंगा नदी के संगम पर एक ब्लॉकेज बन गया है, जिससे कृत्रिम झील का निर्माण होता है।"

उन्होंने बताया कि अक्टूबर 2016 में, उपग्रह चित्रों के मुताबिक एक ही स्थान पर एक भूस्खलन या हिमस्खलन देखा गया था और वहां मलबे भी बह रहे थे। उन्होंने आगे कहा, "ये घटनाएँ प्राकृतिक हैं या मानव प्रभाव के कारण हुई हैं, यह अभी शोध का विषय है। लेकिन, निश्चित रूप से, हम जानते हैं कि यह एक अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है।"

इस बीच, 12 फरवरी को, राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल (एसडीआरएफ) की टीम तपोवन के पास रेनी गांव के ऊपर बनी कृत्रिम झील तक पहुंच गई। यह झील लगभग 350 मीटर लंबी प्रतीत होती है। अधिकारियों के अनुसार, यहां से पानी छोड़ा जा रहा है और इससे कोई तात्कालिक खतरा नहीं है।

उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन

पिछले साल 19 जून को, केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने 'भारतीय क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का आकलन' विषय पर भारत की पहली जलवायु परिवर्तन आकलन रिपोर्ट जारी किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1901-2018 के दौरान देश में औसत तापमान लगभग 0.7 डिग्री सेल्सियस (डिग्री सेल्सियस) बढ़ गया है और सदी के अंत तक लगभग 4.4 डिग्री सेल्सियस बढ़ने का अनुमान है। इसका मतलब मौसम की घटनाओं की तीव्रता और आवृत्ति में बढ़ोतरी हो रही है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण तापमान बढ़ रहा है।

रिपोर्ट में हिंदूकुश हिमालयी क्षेत्र के बारे में कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां भी की गई हैं। इसमें कहा गया है कि 1951-2014 के दौरान लगभग 1.3 डिग्री सेल्सियस तापमान में वृद्धि हुई है। इसके कई क्षेत्रों में हाल के दशकों में बर्फबारी में गिरावट आई है।

21 वीं सदी के अंत तक, हिंदूकुश हिमालय पर वार्षिक औसत सतह का तापमान लगभग 5.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ने का अनुमान है। यहां वार्षिक वर्षा में वृद्धि के अनुमान हैं, लेकिन बर्फबारी में गिरावट है।

हाल के सीईईडब्ल्यू इंडिया के विश्लेषण में यह भी कहा गया है कि 1951-2014 के दौरान हिंदू कुश हिमालय में तापमान में लगभग 1.3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है, जिसके कारण राज्य में माइक्रॉक्लाइमैटिक परिवर्तन और तेजी से हिमनदों की वापसी हुई है। इसने चेतावनी दी है कि आने वाले वर्षों में, ग्लेशियर और बाढ़ की पुनरावृत्ति भी राज्य में चल रही 32 प्रमुख बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को प्रभावित कर सकती है, जिनमें से प्रत्येक की लागत 150 करोड़ रुपये से अधिक है।

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फोटो सोर्स- ट्वीटर

सीईईडब्ल्यू के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अरुणाभ घोष कहते हैं, "उत्तराखंड में त्रासदी विभिन्न प्रशासनिक स्तरों पर विस्तृत जिला-स्तरीय जलवायु जोखिम आकलन और लचीलेपन की क्षमता को बढ़ाने की आवश्यकता को दोहराती है। इसके अलावा, यह देखते हुए कि कमजोर समुदाय अक्सर जलवायु संबंधित आपदाओं से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, उन्हें जोखिम मूल्यांकन की योजना का एक अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए।"

दक्षिण एशिया नेटवर्क ऑन डैम, नदियों और लोगों (SANDRP) के समन्वयक हिमांशु ठक्कर कहते हैं, "हाल ही में चमोली में आई बाढ़ से जलविद्युत परियोजनाओं को नुकसान पहुंचा है और लोगों की मौत हुई है, इस तरह की आपदाओं में जवाबदेही तय करने की आवश्यकता है।" उन्होंने आगे कहा, "हिमालयी क्षेत्र के इन इलाकों में जलविद्युत परियोजनाएं नहीं होनी चाहिए, इससे खतरा बढ़ जाता है।"

मोहंती के अनुसार भूमि के उपयोग के आधार पर पेड़ लगाने से न केवल जलवायु असंतुलन को दूर किया जा सकता है, बल्कि इससे राज्य में स्थायी पर्यटन को बढ़ावा भी मिलेगा। उन्होंने आगे कहा, "बुनियादी ढांचा, निवेश, और नीतियों का जलवायु-प्रमाण भी उतना ही महत्वपूर्ण होगा। यह कोई विकल्प नहीं है, बल्कि इस तरह की बड़ी आपदाओं से निपटने और न्यूनतम नुकसान और क्षति सुनिश्चित करने के लिए एक राष्ट्रीय अनिवार्यता है।"

उत्तराखंड में हाल ही में आई बाढ़ से भारत की जलवायु की अति संवेदनशीलता का पता चलता है। पिछले वर्ष प्रकाशित एक अन्य सीईईडब्ल्यू इंडिया अध्ययन के अनुसार देश के 75 प्रतिशत जिले और देश की आधी से अधिक आबादी बड़ी जलवायु घटनाओं की चपेट में थी। यहां जलवायु परिवर्तन और अनुकूलन के लिए एक मजबूत योजना की जरूरत है।

घोष कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन की बढ़ती घटनाओं के साथ, भारत को तत्काल एक राष्ट्रव्यापी लेकिन विकेंद्रीकृत और व्यवस्थित, वास्तविक समय डिजिटल आपातकालीन निगरानी और प्रबंधन प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है। उन्होंने आगे कहा, "अंत में हम हमेशा की तरह एक व्यापार आधारित विकास मॉडल जैसी मूर्खता के साथ आगे नहीं बढ़ सकते। भारत को आर्थिक समृद्धि और मानव विकास के लिए अधिक लचीला और जलवायु के अनुकूल वाले रास्ते पर चलना चाहिए।"

ठक्कर के अनुसार हाल की आपदा हमारे लिए एक खतरे की घंटी की तरह है। उन्होंने कहा, "भारत सरकार ने अपनी जलविद्युत नीति की समीक्षा की है। चमोली आपदा में तपोवन विष्णुगाड और ऋषि गंगा में क्षतिग्रस्त हुई दो परियोजनाओं को तुरंत खत्म कर दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही अन्य निर्माणाधीन परियोजनाओं की भी समीक्षा की जानी चाहिए।

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