बाढ़ की त्रासदी ने जिन वृद्धों की राहों को मिटा दिया, अब वे अपने समाज और परिवार को नई दिशा दे रहे हैं

Hemant Kumar Pandey | Oct 29, 2020, 09:20 IST
साल 2008 में कोसी की बाढ़ ने बिहार के कई जिलों में भयंकर तबाही मचाई थी। इनमें सबसे अधिक प्रभावित होने वाले बुजुर्ग ही थे। लेकिन अब ये अपनी जरूरतों के लिए संतानों की ओर नहीं, बल्कि संतान इनकी ओर देख रहे हैं।
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65 साल की रेमणी देवी सुपौल जिले के निर्मली गांव में रहती हैं। साल 2008 के कोसी बाढ़ (कुसहा त्रासदी) से पहले ही उनके ऊपर मुसीबतों का एक पहाड़ टूट पड़ा था। उनके पति सुंदर मेहता मानसिक रोग का शिकार हो गए और परिवार की सारी जिम्मेदारियों का बोझ रेमणी के ऊपर आ गया। ये जिम्मेदारियां इसलिए भी और बड़ी हो गई थी कि उनके ऊपर चार बेटियों को पालने और फिर उनकी शादी करने की जिम्मेदारी भी अकेले रेमणी पर ही थी। लेकिन आज की तारीख में रेमणी न केवल अपनी सभी बेटियों की शादी कर चुकी हैं बल्कि, आर्थिक जरूरत होने पर अपने दामादों की मदद भी करती हैं। ऐसा स्वयं सहायता समूहों की मदद से संभव हो पाया है।

"जब से ग्रुप में जुड़ी हूं, परेशानी कम हुई है। अब पैसे की जरूरत होती है तो ग्रुप से पैसा ले लेती हूं और धीरे-धीरे चुका देती हूं। पहले महाजन से कर्ज लेना पड़ता था। प्रत्येक महीना पांच रूपये प्रति सैकड़ा ब्याज दर पर पैसा लेने के भी कई बार दौड़ना पड़ता। महाजन पैसा देने से पहले इस बात को देखते थे कि हम पैसा ब्याज के साथ चुका सकते हैं या नहीं," रेमणी देवी हमें बताती हैं।

रेमणी देवी साल 2009 से 'मां सरस्वती महिला वृद्ध स्वयं सहायता समूह' से जुड़ी हुई हैं। इस समूह में करीब 18 महिलाएं हैं। इस समूह की अध्यक्ष सत्यभामा देवी बताती हैं कि रेमणी ने अपनी दो बेटियों की शादी समूह से कर्ज लेकर की है। इसके अलावा वह यहां से 100 से अधिक किलोमीटर दूर पूर्णिया स्थित निजी अस्पताल में अपने पति का इलाज भी करवाती हैं। इस तरह की कहानी केवल रेमणी की ही नहीं है।

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रेमणी देवी

सुपौल जिले के निर्मली सहित अन्य पंचायत जो कुसहा त्रासदी (2008) से बुरी तरह प्रभावित थे, में बुजुर्गों की मदद के लिए वृद्ध स्वयं सहायता समूह की शुरूआत जनवरी, 2009 की गई। इस त्रासदी में आधिकारिक तौर पर 500 से अधिक लोगों की जानें गईं थीं। वहीं, लाखों लोगों को अपना बसा-बसाया घर छोड़ना पड़ा था। इससे बिहार के 18 जिले प्रभावित हुए थे। इनमें सुपौल में सबसे अधिक तबाही हुई थी, क्योंकि ये जिला नेपाल स्थित कुसहा तटबंध के सबसे नजदीक है।

इन समूहों में 50 साल से अधिक उम्र के महिला और पुरूषों को शामिल किया जाता है। ये हफ्ते में एक बार समूह की बैठक कर न्यूनतम 10 रूपये जमा करते हैं। ये रकम समूह में ही रहता है और जिन सदस्यों को पैसे की जरूरत होती है, वे इससे दो रूपये प्रति सैकड़ा प्रति माह की ब्याज की दर से कर्ज ले सकते हैं। जब इन समूहों को बनाया गया था तो एनजीओ 'हेल्प एज इंडिया' ने प्रत्येक समूह को 10,000 रुपये की वित्तीय मदद दी थी।

इस बारे में जब हमने समूह के कई बुजुर्गों से बात की तो उनका कहना है कि उन्हें सरकार की ओर से 400 रुपये पेंशन मिलता है, उसमें से ही वे अपना हिस्सा समूह में जमा कर देते हैं। इसके बाद मवेशी खरीदने, इलाज करवाने या फिर बच्चों के बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए जब पैसे की जरूरत होती है, तो वे समूह से पैसे ले लेते हैं।

सुपौल में इसके परियोजना संयोजक प्रभाष कुमार झा बताते हैं कि इससे पहले साल 2007 के बाढ़ के बाद दरभंगा और मधुबनी के बाढ़ प्रभावित गांवों में इस तरह के समूहों की शुरूआत की गई थी। वहां जब यह प्रोजेक्ट कामयाब रहा तो इसे कोसी बाढ़ (2008) से प्रभावित गांवों में भी शुरू किया गया। उनकी मानें तो आज की तारीख में तीनों जिले के कुल 26 पंचायतों में कुल 875 समूहों का संचालन हो रहा है और इनसे 11,000 से अधिक सदस्य जुड़े हुए हैं। अकेले सुपौल में 475 समूहें सक्रिय हैं। इनमें 243 समूह वृद्ध महिलाओं की और 174 पुरुषों की हैं। इनके अलावा 58 ऐसे समूह हैं, जिनमें बुजुर्ग पुरुष और महिलाएं एक साथ समूह से जुड़ी हुई हैं।

प्रभाष बताते हैं कि इन समूहों को बनाने का काम पटना स्थित गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) हेल्प एज इंडिया ने किया था और अब इनके कामकाज का निगरानी करती है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता नियुक्त किए जाते हैं। निर्मली स्थित टेकनारायण यादव साल 2009 से ही इन समूहों का कामकाज देख रहे हैं। उन पर 18 समूहों की निगरानी करने की जिम्मेदारी है।

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टेकनारायण यादव

वह हमें बताते हैं, "2008 में बाढ़ के चलते इस गांव में भारी तबाही हुई थी। मुख्य सड़क पर सीने के बराबर पानी चल रहा था। तीन-चार महीने तो बाहर ही रहना पड़ा था। जब सभी वापस आए तो देखा कि घर तो बर्बाद हो गया। कई मवेशी मर गए। खेत में बालू भर गया था। मतलब कि यहां के लोगों के पास कुछ नहीं बचा था। इनमें सबसे खराब स्थिति बुजुर्गों की थी। बाढ़ प्रभावित गांवों में राहत कार्य किए जाने के बाद हेल्प एज इंडिया ने वृद्ध लोगों की समूह बनाने की शुरूआत की।"

हालांकि, टेकनारायण की मानें तो इस तरह की पहल करने में कई तरह की बाधाएं आई थीं, जैसे; लोगों का विश्वास जीतना मुश्किल काम था। इसके अलावा इलाके में जो महाजन ब्याज की अधिक दर पर जरूरतमंदों को कर्ज देते थे, उन्होंने भी ग्रामीणों को बहकाना शुरू कर दिया था कि ये पैसे लेकर भाग जाएंगे।

वह आगे कहते हैं, "आज स्थिति ये है कि गांव के महाजन तीन रूपये प्रति सैकड़ा प्रतिमाह की दर पर ब्याज देने को तैयार है। पहले यही महाजन पांच से दस रुपये ब्याज वसूलते थे।" टेकनारायण ने हमें इस बात की जानकारी दी कि अब गांव के बुजुर्ग इस स्थिति में हैं कि वे दूसरे को कर्ज देते हैं और एक-एक समूह में डेढ़-दो लाख रूपये की बचत राशि है।

हमने उनकी इस बात की पुष्टि कई समूहों से बात करके की। जैसा कि सत्यभामा देवी का कहना है कि उनके ग्रूप में मूलधन से अधिक ब्याज जमा हो गया है और कुल मिलाकर डेढ़ लाख रुपये से अधिक पैसा है। सत्यभामा देवी के पति ताराचंद मेहता बताते हैं कि समूह में पैसा होने के चलते उनके पास अब आर्थिक ताकत भी आ गई है। वह कहते हैं, "अब जरूरत पड़ने पर वह (सत्यभामा) अपने बेटे को बिजनेस करने के लिए पैसे दे देती है, जिसके चलते अब इनका परिवार में मान-सम्मान और देखभाल बढ़ा है। पहले इस तरह की स्थिति नहीं थी।"

वहीं, ताराचंद की बातों को आगे बढ़ाते हुए टेकनारायण कहते हैं, "जब समूह की शुरूआत हुई थी तो कई वृद्धों के संतान उन्हें 10 रुपये नहीं देते थे। आज वही बेटे हजारों रूपये के लिए अपने मां-बाप का मुंह देखते हैं। इसके अलावा एक संगठन के रूप में सामने आने के चलते समाज में भी इन सबका दबदबा बढ़ा है। इन्हें कोई अब कमजोर नहीं समझता। नहीं तो पहले इन लोगों को कौन पूछता था! अब तो डीएम भी इन लोगों के कार्यक्रम में शामिल होते हैं।"

इसके अलावा अब ये बुजुर्ग दूसरे राज्यों के भी हमउम्रों की मदद कर रहे हैं। टेकनारायण यादव बताते हैं कि इनसे जुड़े कई सदस्य अब झारखंड और छत्तीसगढ़ सहित अन्य राज्यों में इस तरह के समूह बनाने में योगदान दे रहे हैं और वहां के बुजुर्गों के बीच अपना अनुभव साझा करते हैं।

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निर्मली ग्राम पंचायत

2008 की त्रासदी के बाद बुजुर्गों को नया रास्ता मिला, उम्मीद पैदा हुई



सुपौल जिले के बसंतपुर स्थित संस्कृत निर्मली गांव के 60 वर्षीय मोतीलाल यादव कहते हैं, "अब अच्छे से रहते हैं और अच्छा खाना खाते हैं। अब किसी से मदद की कोई जरूरत नहीं है। बाढ़ में सबकुछ खत्म हो गया था। तीन साल बाद (2011-12) में खेत से खुद ही बालू हटाया तो खेती करने लायक जमीन तैयार हुआ। बहुत मुश्किल समय था लेकिन समूह से जुड़ने के बाद एक नया रास्ता मिला है और उम्मीद भी पैदा हुआ है।" मोतीलाल जनवरी, 2009 में गठित 'राजाजी डीहवार बाबा स्वयं सहायता समूह' से जुड़े हुए हैं।

वहीं, टेकनारायण यादव बताते हैं कि पहले उन लोगों को वृद्धावस्था या विधवा पेंशन मिलने में काफी परेशानी होती थी। वह कहते हैं, "सरकारी कर्मचारी इन लोगों का नाम ही नहीं जोड़ते थे, आखिर में दौड़ते-दौड़ते ये लोग थक जाते थे। अब इन लोगों का हर काम तुरंत हो जाता है। समूह से जुड़े लोगों को सरकारी कार्यालयों और कामकाज में भी प्राथमिकता दी जाती है।"

हालांकि, इन समूहों की सरकार से कई तरह की मांगें भी हैं। बसंतपुर के भगवानपुर ग्राम पंचायत स्थित सत्यनारायण वृद्ध स्वयं सहायता समूह के कोषाध्याक्ष बालेश्वर प्रसाद महतो हमसे कहते हैं, "हमने सरकार से 3,000 रुपये वृद्धावस्था पेंशन की मांग की है। अभी केवल 400 रुपये मिल रहे हैं। इतनी महंगाई है। इलाज के लिए पैसे की जरूरत होती है। इतने पेंशन में हमारा क्या होगा?"

राज्य सरकार से मांग

इस समूह के सदस्यों का कहना है कि जिस तरह बिहार सरकार महिलाओं के लिए 'जीविका' जैसी योजना चला रही है और इसे अलग-अलग तरह की सुविधाएं दे रही हैं, उसी तरह वृद्धों के स्वयं सहायता समूह को भी सरकार की ओर से मदद दी जाए। जीविका परियोजना राज्य सरकार प्रायोजित है। इसके तहत महिलाओं के समूह को कम ब्याज दरों पर कर्ज और अन्य वित्तीय मदद दी जाती है।

इस बारे में हमने प्रभाष कुमार झा से बात की। उन्होंने कहा, "इन समूहों के पास इतना पैसा जमा हो गया है कि सरकार से फंडिंग की कोई जरूरत ही नहीं है। एक-एक समूह के पास तीन से सात लाख रूपये की रकम है।" वहीं, टेकनारायण यादव हमें बताते हैं कि इन्हें जीविका से जोड़ने की भी बात चल रही है, लेकिन ये बातचीत कहां तक पहुंची है, इस बारे में वह कुछ कह नहीं सकते हैं।

अकेलेपन का कम होना

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बैद्यनाथ मेहता

74 साल के बैद्यनाथ मेहता भगवानपुर पंचायत में रहते है। वह साल 2017 में गठित जय महादेव वृद्ध स्वयं सहायता समूह के सदस्य हैं। वह दिल की बीमारी और डायबिटीज के मरीज हैं। उनके परिवार में उनके साथ कोई नहीं है। एक बेटी है, जिसकी शादी हो चुकी है। पत्नी कुछ साल पहले गुजर गई थीं। अब वे अकेले रहते हैं। खुद खाना बनाते हैं। कभी-कभी रिश्तेदार या पड़ोसी खाना दे जाते हैं। वह गांव कनेक्शन को बताते हैं कि जब से ग्रुप से जुड़े हैं, उनका अकेलापन कम हुआ है। ग्रुप के बैठक में ही हंस-बोल लेते हैं और काम की बात हो जाती है।

करीब-करीब इसी तरह की स्थिति भगवानपुर पंचायत में ही संचालित मां सीता वृद्ध महिला स्वयं सहायता समूह की अध्यक्ष 75 वर्षीय धर्मा देवी की है। उनकी दो बेटियां और दो बेटे हैं। लेकिन अभी कोई उनकी देखभाल नहीं करता है। वह पहले खेतों में मजदूरी का काम करती थीं, लेकिन अब घुटनों में दर्द के चलते पहले की तरह काम नहीं कर पाती हैं। वह हमें बताती हैं कि सुख (खुशहाली) हासिल करने के लिए इस समूह से जुड़ी हैं। अभी कोई परेशानी होने पर वृद्धों के अन्य समूह भी उनकी मदद करते हैं। अब ये समूह ही उनका परिवार और सहारा हैं। ये भी पढ़ें- बिहार: लॉकडाउन के बाद नदी के कटान के कारण फिर से घर वापसी को मजबूर कोसी क्षेत्र के प्रवासी मजदूर जिस विकास की बात बिहार सरकार करती है, उस विकास को कोसी की जनता पहचान ही नहीं पा रही

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