जमुना टुडू की एक पहल से छह हजार महिलाएं वन माफियाओं से बचा रहीं जंगल
Neetu Singh | May 01, 2019, 13:01 IST
बाईस साल पहले छह महिलाओं से जंगल बचाने की शुरुआत करने वाली जमुना टुडू के लिए ये राह इतनी आसान नही थी पर इनके बुलंद इरादों के आगे वन माफियाओं ने भी इनसे हार मान ली थी।
जमशेदपुर (झारखंड)। झारखंड में लेडी टार्जन के नाम से मशहूर जमुना टुडू के बुलंद हौसले वन माफिया पस्त नहीं कर पाए। बाइस साल पहले छह महिलाओं से जंगल बचाने की शुरुआत करने वाली जमुना टुडू ने आज छह हजार महिलाओं की एक बड़ी फ़ौज तैयार कर दी है। जो आज भी सुबह-शाम अपने आसपास के जंगलों की देखरेख करने जाती हैं।
भरी दोपहरी में जब हम जमशेदपुर जिला मुख्यालय से लगभग 65 किलोमीटर दूर चाकुलिया प्रखंड के मुटुरखाम गाँव पहुंचे तो यहाँ हरे-भरे जंगल देखकर मन को बड़ा सुकून मिला। ये वो जंगल हैं जिसे शादी के एक दो महीने बाद ही जमुना टुडू (39 वर्ष) ने बचाने शुरू कर दिए थे। अपने दरवाजे के बाहर इमली के पेड़ के नीचे चार महिलाओं के साथ बैठी जमुना अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए कहती हैं, "ये पेड़ वो ठिकाना है जहाँ हम महिलाएं जंगल से आकर घंटो बैठकर जंगल बचाने की रणनीति बनाते थे। शुरुआत में छह महिलाओं के साथ हम हर सुबह छह बजे जंगल जाते और दोपहर 11-12 बजे तक वापस आ जाते। एक दो घंटे इमली के पेड़ के नीचे बैठकर बातचीत करते और फिर दो तीन बजे जंगल चले जाते।" जमुना और इन महिलाओं का ये रोज का काम है। आज भी ये काम ये बिना किसी मेहनताना के अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए करती हैं।
एक छोटे से गाँव से जंगल बचाने का शुरू हुआ जमुना का कारवां आज पूरे देश के लिए उदाहरण बना हुआ है। वर्ष 1998 से लेकर 2002 तक जमुना खामोशी से जंगल बचाने का काम गिनी चुनी कुछ महिलाओं के साथ अपने गाँव में करती रहीं। जब इनके काम की भनक 2003 में वन विभाग के उस समय के रेंजर ए.के. सिंह को लगी तो उन्होंने इन्हें पूरा सहयोग किया। जमुना को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिले इसके लिए रेंजर ने 'वन सुरक्षा समिति' का रजिस्ट्रेशन कराकर इन महिलाओं की एक समिति तैयार कर दी। 15 महिला और 15 पुरुषों से बनी इस पहली समिति की जमुना अध्यक्ष बनी। समिति बनने के बाद जमुना अपने गाँव से बाहर दूसरे गाँव में जाने लगी। धीरे-धीरे इन्होने पूर्वी सिंहभूम जिले में 400 समितियां वन सुरक्षा समिति के नाम से बनाकर तैयार कर दीं। आज भी हर समिति से हर दिन चार पांच महिलाएं अपने आसपस के जंगल की निगरानी करने जाती हैं।
बाईस साल पहले छह महिलाओं से जंगल बचाने की शुरुआत करने वाली जमुना के लिए ये राह इतनी आसान नही थी पर इनके बुलंद इरादों के आगे वन माफियाओं ने भी इनसे हार मान ली थी। कभी इन्हें वन माफियाओं ने जान से मारने की धमकी दी तो कभी जानलेवा हमला किया। एक बार तो सात लोग हथियार लेकर रात डेढ़ बजे जमुना के घर कूंद पड़े और जंगल बचाने की मुहीम को बंद करके को कहा। वन माफियाओं की अनगिनत धमकियों और हमलों का जमुना के ऊपर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। इनके निर्भीक और अथक प्रयासों से जंगल बचाने की इस मुहीम के लिए इन्हें पद्मश्री अवार्ड से लेकर सैकड़ों अवार्ड मिल चुके हैं। वर्ष 2016 में देश की 100 प्रतिभाशाली महिलाओं में शामिल किया गया।
जमुना वन माफियाओं के हमलों को याद करते हुए बताती हैं, "वन माफियाओं ने कई बार हमारे ऊपर हमला किया पर हम कभी डरे नहीं। 2007 में सात लोग रात के डेढ़ बजे हथियारों के साथ हमारे घर कूंद गये। पति के हाथ बाँध दिए और मुझसे कहा कि ये जंगल बचाने का अपना काम तुम बंद कर दो नहीं तो फिर तुम्हारे साथ कुछ बुरा हुआ तो मत कहना।" जमुना ने उस वक़्त तो हाँ कह दिया लेकिन अगले ही दिन उन्हें जेल भिजवाने की ठान ली। एक हफ्ते के अन्दर वो सात लोग जेल पहुंच गये। जमुना ने आत्मविश्वास के साथ कहा, "इसी साल तीन चार महीने पहले उन सबको सात आठ साल की सजा हो गयी है। जब वो पकड़े गये थे तबसे छूटकर नहीं आये थे। जेल में रहते-रहते उन्हें सजा भी हो गयी।" जमुना ने वन माफियों को कई बार माफ़ किया तो कई बार जेल पहुंचाया।
उड़ीसा में जन्मी दसवीं पढ़ी जमुना अपनी छह बहनों में सबसे छोटी हैं। इनकी शादी 18 वर्ष की उम्र में 1998 में झारखंड राज्य के पूर्वी सिंहभूम जिला के मुटुरखाम गाँव में हुई। ये अपनी शादी के शुरुआती दिनों के बारे में बताती हैं, "शादी के कुछ दिनों बाद हमें भी जंगल लकड़ी लाने भेजा गया। एक दो हफ्ते ही हम जंगल लकड़ी लेने गये थे। लकड़ी काटना हमें अच्छा नहीं लगता था। जहाँ लकड़ी लेने जाते थे वहां आसपास बहुत कम पेड़ बचे थे। मैंने सोचा अगर इन्हें नहीं बचाया गया तो कुछ दिनों बाद ये सब पेड़ खत्म हो जायेंगे।"
जंगल से लकड़ी काटते समय जमुना को अपने मायके की याद आती। क्योंकि इनके माता-पिता ने अपनी पथरीली सात-आठ बीघा जमीन को समतल करके एक बड़ा जंगल तैयार कर दिया था। जमुना भी बचपन से पौधे लगाती उनकी देखरेख करती। पर अचानक से यहाँ पेड़ काटने की बात जमुना को परेशान करने लगी। जमुना ने जब आसपास की महिलाओं से लकड़ी न काटने की बात कही तो सब कहने लगीं अभी तुम कल से आयी हो और ज्ञान दे रही हो। अगर जंगल से लकड़ी नहीं काटेंगे तो खाना कैसे बनायेंगे। जमुना ने समझाया जिन क्षेत्रों में जंगल नहीं वहां के लोग भी खाना बनाते हैं। जमुना की ये बात महिलाओं के समझ में आ गयी और गिनी चुनी महिलाएं इस मुहीम में शामिल हो गईं।
जमुना कहती हैं, "जब शुरुआत में हम लोग लकड़ी काटने वालों को मना करते तो वो लड़ने लगते. कई बार गालियाँ भी दीं। हम लोग उन्हें कैसे भी करके समझाते पर हरी लकड़ी नहीं काटने देते और सूखी लकड़ी ले जाने से कभी मना भी नहीं करते। धीरे-धीरे लोग हमारी बातें समझने लगे थे।" वो आगे बताती हैं, "पहले हमारे साथ केवल छह महिलाएं थीं धीरे-धीरे ये संख्या बढ़ने लगी। कुछ समय बाद हमारे गाँव के लोग हमारा साथ देने लगे। हम जंगल बचाने के साथ-साथ पौधे भी लगाने लगे। अब तक डेढ़ लाख से ज्यादा पौधे लगा चुके हैं।"
जमुना एक बार का एक वाकया याद करते हुए बताती हैं, "एक दिन मैं समिति बनाने दूसरे गाँव चली गयी उसी दिन हमारे गाँव के 70 हरे पेड़ को वन माफियाओं ने काट लिया। हमारी महिलाओं को जैसे भनक लगी वो वहां पहुंच गयी उन्होंने जंगल से लकड़ी नहीं उठने दी।" वो आगे बताती हैं, "हमने अगले ही दिन रिपोर्ट करके चार लोगों को तीन महीने के लिए जेल भिजवा दिया। बाद में जब उन्होंने माफी माँगी और कभी जंगल न काटने की बात कही तो हम लोगों ने उन्हें माफ़ कर दिया।" जमुना के लिए ये कोई पहली घटना नहीं थी उन्होंने ऐसी कई घटनाओं को अंजाम दिया था।
ट्रक में हरी लकड़ी जाते देख जमुना को तकलीफ होती
जमुना का मकसद सिर्फ अपने क्षेत्र के जंगल बचाना नहीं था। किसी भी क्षेत्र में अगर वो ट्रक में हरी लकड़ी जाते देखतीं तो उसका विरोध करती थीं। उनकी नजरों के सामने न तो कोई हरी लकड़ी काट सकता और न ही बेच सकता. ये उनकी जिन्दगी का मकसद था। जमुना जब इस घटना का जिक्र कर रहीं थीं तो उनके आँखों में आंसू थे, "एक बार लकड़ी को जाते हुए रोका था तो वन माफियाओं ने हमें और हमारे पति को पत्थर से मारा। इस दौरान हमें और हमारे पति को खूब चोटें आयीं और खून निकला पर इस तरह की घटनाओं से हम अपने फैसले से कभी डिगे नहीं।"
इस तरह की घटनाएँ जमुना टुडू के लिए आम बात थी। जमुना की बहादुरी को देखकर इनके साथ जुड़ी महिलाएं भी अब बहादुर हो गईं थीं। वो बेखौफ़ होकर जंगलों में घूमती और लकड़ी काटने वाले का पुरजोर तरीके से विरोध करतीं।
उस समय के रेंजर ने जमुना की बहादुरी देखकर इनका गाँव गोद ले लिया
जिस समय जमुना की शादी होकर आयी थी इस गाँव में कोई भी सुविधा नहीं थी। ये नदी के किनारे गड्ढा खोकर रोज पानी छानकर पीती थीं। जब 2003 में जंगल बचाने की इनकी बहादुरी की कहानी उस समय के रेंजर अमरेन्द्र कुमार सिंह तक पहुंची तो उन्होंने न केवल वन सुरक्षा समिति का गठन कराया बल्कि इनके गाँव को गोद भी ले लिया।
जमुना रेंजर अमरेन्द्र कुमार सिंह की तारीफ़ करते हुए कहती हैं, "अगर वो साहब हमें मदद न करते तो शायद आज हम यहाँ तक नहीं पहुंच पाते। उनकी वजह से वन विभाग के अधिकारियों का हमें पूरा सहयोग मिला। हमारे गाँव में स्कूल, पानी, बिजली जैसी कई सुविधाएँ नहीं थीं पर जब रेंजर साहब ने हमारे गाँव को गोद लिया तो उन्होंने ये सभी सुविधाएँ कर दीं।" उन्होंने कहा, "गाँव की ऐसी रास्ता थी कि अगर कोई बीमार हो जाये तो डेढ़ किलोमीटर तक खटिया पर रखकर उन्हें रोड पर ले जान पड़ता था। जब रेंजर साहब ने हमारे गाँव की सड़क और बाकी सुविधाएँ पूरी कर दीं तो हम महिलाओं का आत्मविश्वास और बढ़ गया।"
हमारे बच्चे नहीं इसलिए इन पेड़ों को ही हम अपना बच्चा मानते हैं
जमुना ने अपनी जिन्दगी का मकसद जंगलों की रक्षा करना और नये पौधों को लगाना बना लिया है। जमुना के कोई बच्चा नहीं इस बात का जमुना को कोई पछतावा नहीं वो कहती हैं, "हमें भगवान ने शायद इसलिए बच्चे नहीं दिए क्योंकि हमें इन पेड़-पौधों की रक्षा करनी थी। ये पेड़-पौधे ही हमारे बच्चे हैं। हम इनकी देखरेख वैसे ही करते हैं जैसे एक बच्चे की होती है।"
उन्होंने जंगल में बधें पेड़ों पर राखी दिखाते हुए कहा, "अगर आपको मौका लगे तो रक्षाबंधन को जरुर आइये। हम सब मिलकर जंगल में लगे हर पेड़ में राखी बांधते हैं और ये संकल्प लेते हैं कि हर हाल में हम तुम्हारी रक्षा करेंगे।" वहां के हरे-भरे जंगल इस बात की गवाही दे रहे थे कि ये महिलाएं कितनी तत्परता से जंगल की देखरेख करती हैं।
ये भी पढ़ें : जंगल भी बन सकता है कमाई का जरिया, झारखंड की इन महिलाओं से सीखिए
भरी दोपहरी में जब हम जमशेदपुर जिला मुख्यालय से लगभग 65 किलोमीटर दूर चाकुलिया प्रखंड के मुटुरखाम गाँव पहुंचे तो यहाँ हरे-भरे जंगल देखकर मन को बड़ा सुकून मिला। ये वो जंगल हैं जिसे शादी के एक दो महीने बाद ही जमुना टुडू (39 वर्ष) ने बचाने शुरू कर दिए थे। अपने दरवाजे के बाहर इमली के पेड़ के नीचे चार महिलाओं के साथ बैठी जमुना अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए कहती हैं, "ये पेड़ वो ठिकाना है जहाँ हम महिलाएं जंगल से आकर घंटो बैठकर जंगल बचाने की रणनीति बनाते थे। शुरुआत में छह महिलाओं के साथ हम हर सुबह छह बजे जंगल जाते और दोपहर 11-12 बजे तक वापस आ जाते। एक दो घंटे इमली के पेड़ के नीचे बैठकर बातचीत करते और फिर दो तीन बजे जंगल चले जाते।" जमुना और इन महिलाओं का ये रोज का काम है। आज भी ये काम ये बिना किसी मेहनताना के अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए करती हैं।
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एक छोटे से गाँव से जंगल बचाने का शुरू हुआ जमुना का कारवां आज पूरे देश के लिए उदाहरण बना हुआ है। वर्ष 1998 से लेकर 2002 तक जमुना खामोशी से जंगल बचाने का काम गिनी चुनी कुछ महिलाओं के साथ अपने गाँव में करती रहीं। जब इनके काम की भनक 2003 में वन विभाग के उस समय के रेंजर ए.के. सिंह को लगी तो उन्होंने इन्हें पूरा सहयोग किया। जमुना को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिले इसके लिए रेंजर ने 'वन सुरक्षा समिति' का रजिस्ट्रेशन कराकर इन महिलाओं की एक समिति तैयार कर दी। 15 महिला और 15 पुरुषों से बनी इस पहली समिति की जमुना अध्यक्ष बनी। समिति बनने के बाद जमुना अपने गाँव से बाहर दूसरे गाँव में जाने लगी। धीरे-धीरे इन्होने पूर्वी सिंहभूम जिले में 400 समितियां वन सुरक्षा समिति के नाम से बनाकर तैयार कर दीं। आज भी हर समिति से हर दिन चार पांच महिलाएं अपने आसपस के जंगल की निगरानी करने जाती हैं।
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बाईस साल पहले छह महिलाओं से जंगल बचाने की शुरुआत करने वाली जमुना के लिए ये राह इतनी आसान नही थी पर इनके बुलंद इरादों के आगे वन माफियाओं ने भी इनसे हार मान ली थी। कभी इन्हें वन माफियाओं ने जान से मारने की धमकी दी तो कभी जानलेवा हमला किया। एक बार तो सात लोग हथियार लेकर रात डेढ़ बजे जमुना के घर कूंद पड़े और जंगल बचाने की मुहीम को बंद करके को कहा। वन माफियाओं की अनगिनत धमकियों और हमलों का जमुना के ऊपर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। इनके निर्भीक और अथक प्रयासों से जंगल बचाने की इस मुहीम के लिए इन्हें पद्मश्री अवार्ड से लेकर सैकड़ों अवार्ड मिल चुके हैं। वर्ष 2016 में देश की 100 प्रतिभाशाली महिलाओं में शामिल किया गया।
जमुना वन माफियाओं के हमलों को याद करते हुए बताती हैं, "वन माफियाओं ने कई बार हमारे ऊपर हमला किया पर हम कभी डरे नहीं। 2007 में सात लोग रात के डेढ़ बजे हथियारों के साथ हमारे घर कूंद गये। पति के हाथ बाँध दिए और मुझसे कहा कि ये जंगल बचाने का अपना काम तुम बंद कर दो नहीं तो फिर तुम्हारे साथ कुछ बुरा हुआ तो मत कहना।" जमुना ने उस वक़्त तो हाँ कह दिया लेकिन अगले ही दिन उन्हें जेल भिजवाने की ठान ली। एक हफ्ते के अन्दर वो सात लोग जेल पहुंच गये। जमुना ने आत्मविश्वास के साथ कहा, "इसी साल तीन चार महीने पहले उन सबको सात आठ साल की सजा हो गयी है। जब वो पकड़े गये थे तबसे छूटकर नहीं आये थे। जेल में रहते-रहते उन्हें सजा भी हो गयी।" जमुना ने वन माफियों को कई बार माफ़ किया तो कई बार जेल पहुंचाया।
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उड़ीसा में जन्मी दसवीं पढ़ी जमुना अपनी छह बहनों में सबसे छोटी हैं। इनकी शादी 18 वर्ष की उम्र में 1998 में झारखंड राज्य के पूर्वी सिंहभूम जिला के मुटुरखाम गाँव में हुई। ये अपनी शादी के शुरुआती दिनों के बारे में बताती हैं, "शादी के कुछ दिनों बाद हमें भी जंगल लकड़ी लाने भेजा गया। एक दो हफ्ते ही हम जंगल लकड़ी लेने गये थे। लकड़ी काटना हमें अच्छा नहीं लगता था। जहाँ लकड़ी लेने जाते थे वहां आसपास बहुत कम पेड़ बचे थे। मैंने सोचा अगर इन्हें नहीं बचाया गया तो कुछ दिनों बाद ये सब पेड़ खत्म हो जायेंगे।"
जंगल से लकड़ी काटते समय जमुना को अपने मायके की याद आती। क्योंकि इनके माता-पिता ने अपनी पथरीली सात-आठ बीघा जमीन को समतल करके एक बड़ा जंगल तैयार कर दिया था। जमुना भी बचपन से पौधे लगाती उनकी देखरेख करती। पर अचानक से यहाँ पेड़ काटने की बात जमुना को परेशान करने लगी। जमुना ने जब आसपास की महिलाओं से लकड़ी न काटने की बात कही तो सब कहने लगीं अभी तुम कल से आयी हो और ज्ञान दे रही हो। अगर जंगल से लकड़ी नहीं काटेंगे तो खाना कैसे बनायेंगे। जमुना ने समझाया जिन क्षेत्रों में जंगल नहीं वहां के लोग भी खाना बनाते हैं। जमुना की ये बात महिलाओं के समझ में आ गयी और गिनी चुनी महिलाएं इस मुहीम में शामिल हो गईं।
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जमुना कहती हैं, "जब शुरुआत में हम लोग लकड़ी काटने वालों को मना करते तो वो लड़ने लगते. कई बार गालियाँ भी दीं। हम लोग उन्हें कैसे भी करके समझाते पर हरी लकड़ी नहीं काटने देते और सूखी लकड़ी ले जाने से कभी मना भी नहीं करते। धीरे-धीरे लोग हमारी बातें समझने लगे थे।" वो आगे बताती हैं, "पहले हमारे साथ केवल छह महिलाएं थीं धीरे-धीरे ये संख्या बढ़ने लगी। कुछ समय बाद हमारे गाँव के लोग हमारा साथ देने लगे। हम जंगल बचाने के साथ-साथ पौधे भी लगाने लगे। अब तक डेढ़ लाख से ज्यादा पौधे लगा चुके हैं।"
जमुना एक बार का एक वाकया याद करते हुए बताती हैं, "एक दिन मैं समिति बनाने दूसरे गाँव चली गयी उसी दिन हमारे गाँव के 70 हरे पेड़ को वन माफियाओं ने काट लिया। हमारी महिलाओं को जैसे भनक लगी वो वहां पहुंच गयी उन्होंने जंगल से लकड़ी नहीं उठने दी।" वो आगे बताती हैं, "हमने अगले ही दिन रिपोर्ट करके चार लोगों को तीन महीने के लिए जेल भिजवा दिया। बाद में जब उन्होंने माफी माँगी और कभी जंगल न काटने की बात कही तो हम लोगों ने उन्हें माफ़ कर दिया।" जमुना के लिए ये कोई पहली घटना नहीं थी उन्होंने ऐसी कई घटनाओं को अंजाम दिया था।
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ट्रक में हरी लकड़ी जाते देख जमुना को तकलीफ होती
जमुना का मकसद सिर्फ अपने क्षेत्र के जंगल बचाना नहीं था। किसी भी क्षेत्र में अगर वो ट्रक में हरी लकड़ी जाते देखतीं तो उसका विरोध करती थीं। उनकी नजरों के सामने न तो कोई हरी लकड़ी काट सकता और न ही बेच सकता. ये उनकी जिन्दगी का मकसद था। जमुना जब इस घटना का जिक्र कर रहीं थीं तो उनके आँखों में आंसू थे, "एक बार लकड़ी को जाते हुए रोका था तो वन माफियाओं ने हमें और हमारे पति को पत्थर से मारा। इस दौरान हमें और हमारे पति को खूब चोटें आयीं और खून निकला पर इस तरह की घटनाओं से हम अपने फैसले से कभी डिगे नहीं।"
इस तरह की घटनाएँ जमुना टुडू के लिए आम बात थी। जमुना की बहादुरी को देखकर इनके साथ जुड़ी महिलाएं भी अब बहादुर हो गईं थीं। वो बेखौफ़ होकर जंगलों में घूमती और लकड़ी काटने वाले का पुरजोर तरीके से विरोध करतीं।
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उस समय के रेंजर ने जमुना की बहादुरी देखकर इनका गाँव गोद ले लिया
जिस समय जमुना की शादी होकर आयी थी इस गाँव में कोई भी सुविधा नहीं थी। ये नदी के किनारे गड्ढा खोकर रोज पानी छानकर पीती थीं। जब 2003 में जंगल बचाने की इनकी बहादुरी की कहानी उस समय के रेंजर अमरेन्द्र कुमार सिंह तक पहुंची तो उन्होंने न केवल वन सुरक्षा समिति का गठन कराया बल्कि इनके गाँव को गोद भी ले लिया।
जमुना रेंजर अमरेन्द्र कुमार सिंह की तारीफ़ करते हुए कहती हैं, "अगर वो साहब हमें मदद न करते तो शायद आज हम यहाँ तक नहीं पहुंच पाते। उनकी वजह से वन विभाग के अधिकारियों का हमें पूरा सहयोग मिला। हमारे गाँव में स्कूल, पानी, बिजली जैसी कई सुविधाएँ नहीं थीं पर जब रेंजर साहब ने हमारे गाँव को गोद लिया तो उन्होंने ये सभी सुविधाएँ कर दीं।" उन्होंने कहा, "गाँव की ऐसी रास्ता थी कि अगर कोई बीमार हो जाये तो डेढ़ किलोमीटर तक खटिया पर रखकर उन्हें रोड पर ले जान पड़ता था। जब रेंजर साहब ने हमारे गाँव की सड़क और बाकी सुविधाएँ पूरी कर दीं तो हम महिलाओं का आत्मविश्वास और बढ़ गया।"
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हमारे बच्चे नहीं इसलिए इन पेड़ों को ही हम अपना बच्चा मानते हैं
जमुना ने अपनी जिन्दगी का मकसद जंगलों की रक्षा करना और नये पौधों को लगाना बना लिया है। जमुना के कोई बच्चा नहीं इस बात का जमुना को कोई पछतावा नहीं वो कहती हैं, "हमें भगवान ने शायद इसलिए बच्चे नहीं दिए क्योंकि हमें इन पेड़-पौधों की रक्षा करनी थी। ये पेड़-पौधे ही हमारे बच्चे हैं। हम इनकी देखरेख वैसे ही करते हैं जैसे एक बच्चे की होती है।"
उन्होंने जंगल में बधें पेड़ों पर राखी दिखाते हुए कहा, "अगर आपको मौका लगे तो रक्षाबंधन को जरुर आइये। हम सब मिलकर जंगल में लगे हर पेड़ में राखी बांधते हैं और ये संकल्प लेते हैं कि हर हाल में हम तुम्हारी रक्षा करेंगे।" वहां के हरे-भरे जंगल इस बात की गवाही दे रहे थे कि ये महिलाएं कितनी तत्परता से जंगल की देखरेख करती हैं।
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