क्लाइमेट चेंज है सिक्किम की जैविक खेती का सबसे बड़ा दुश्मन

Nidhi Jamwal | Aug 29, 2018, 09:21 IST
#क्लाइमेट चेंज
गंगटोक (सिक्किम)। पूर्वी हिमालय की पहाड़ियों में समुद्र स्तर से 1,650 मीटर की ऊंचाई पर है सिक्किम की राजधानी गंगटोक। गंगटोक में होटल बुकमैन्स बीएनबी पर्यटकों के बीच में बहुत मशहूर है, खासकर किताबें पढ़ने के शौकीन टूरिस्ट के बीच। यहां एक बुकस्टोर है जिसे बुकमैन के मालिक रमन श्रेष्ठा चलाते हैं। रमन कहते हैं, "यहां आने वाले टूरिस्ट खूब एन्जॉय करते हैं। लेकिन पिछले कुछ बरसों में वे यहां गर्मी की शिकायत करने लगे हैं।"

चूंकि गंगटोक ऊंचाई पर बसा है इसलिए यहां सीलिंग फैन लगाने की कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई, क्योंकि गर्मी के महीनों में भी यहां मौसम में सुकून भरी ठंडक रहती है। "पिछले काफी समय से टूरिस्ट सीलिंगफैन लगवाने की मांग करने लगे हैं। इसलिए मैं हर कमरे में पंखे लगवा रहा हूं।" रमन बताते हैं।

बढ़ती हुई गर्मी से लोग सिर्फ राजधानी गंगटोक में ही परेशान नहीं हैं। यहां से 75 किलोमीटर दूर समुद्र तल से करीब 1,100 मीटर ऊपर दक्षिण सिक्किम का प्रमुख शहर नामची है। नामची के खोलागरी गांव में रहते हैं कमल राय जो कि किसान हैं और अदरक की खेती करते हैं। कमल भी जलवायु में कुछ इसी तरह का बदलाव महसूस कर रहे हैं और उसके असर को स्थानीय खेती पर भी देख रहे हैं। कमल का कहना है, "मेरे दादा और मेरे पिता के समय में हम यहां सिक्किम की स्थानीय किस्म मंदारिन संतरे उगाते थे। इसके अलावा हमारे इलाके में बड़ी इलायची के बागान होते थे। लेकिन अब दोनों ही यहां से गायब हो गए हैं। अब इनकी खेती और ऊंचाई पर की जाती है।"

सिक्किम के जैविक उत्पादों की लगातार बढ़ी है मांग। फोटो- अरविंद शुक्ला

नामची से 60 किलोमीटर दूर पूर्वी सिक्किम में समुद्र तल से 2000 मीटर की ऊंचाई पर ही पाटल गांव है। यहां के 92 साल के तिल बहादुर छेत्री कहते हैं, "इतनी ऊंचाई पर भी अब गर्मी पड़ने लगी है। मंदारिन संतरे जैसी फसलें जो 1200 मीटर की ऊंचाई पर उगती थीं वे अब यहां उगने लगी हैं। अब हमारे गांव में अदरक और पैशनफ्रूट की भी खेती होने लगी है। आज से दस-बीस साल पहले ऐसा किसी ने सोचा भी नहीं था।" राज्य में फसलों के बदलते पैटर्न और पैदावार में गिरावट के लिए तिल बहादुर बढ़ते तापमान और सर्दी में बारिश की गैरमौजूदगी को जिम्मेदार मानते हैं।

सिक्किम के किसानों को डर है कि कहीं बदलती जलवायु की वजह से उन्हें खेती न छोड़नी पड़ जाए। कमल राय चेतावनी देते हुए कहते हैं, "सिक्किम को पूरी तरह से जैविक खेती वाला राज्य बनाने की मुख्यमंत्री की महत्वाकांक्षी योजना को भी इससे खतरा है।" चूंकि अकेले खेती से गुजारा होता नहीं इसलिए कमल अतिरिक्त कमाई के लिए गर्मियों में पर्यटकों को गंगटोक की सैर कराते हैं।

ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार को सिक्किम की खेती पर जलवायु परिवर्तन या क्लाइमेट चेंज के दुष्प्रभावों की जानकारी नहीं है। 27 जून को गंगटोक में एक राज्य स्तरीय वर्कशॉप हुई थी जिसका विषय था, 'जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने में पहाड़ के लोगों के दृष्टिकोण और प्रथाओं को समझना'। इसमें सिक्कम के सांसद और इंटीग्रेटेड माउंनटेन इनीशिएटिव के संयोजक पीडी राय ने बताया कि राज्य में 16 हजार हेक्टेयर जमीन परती है। इसमें से 60 फीसदी इसलिए परती है क्योंकि किसानों ने खेती करना छोड़ दिया है। उन्होंने कहा, "हमें पारंपरिक खेती के साथ जैविक खेती को एकीकृत करने और जलवायु परिवर्तन के हिसाब से खुद को ढ़ालने के तरीकों को खोजने की जरूरत है।"

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सिक्किम का जैविक खेती मिशन

2003 में, राज्य के मुख्यमंत्री पवन चामलिंग ने राज्य विधान सभा में सिक्किम को 'पूर्ण जैविक राज्य' घोषित करने की अपनी नीतिगत पहल का ऐलान किया। उस समय जब खेतों में रासायनिक खाद इस्तेमाल करने का राष्ट्रीय औसत 90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था, सिक्किम में यह औसत सिर्फ 12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था। इस हिसाब से चामलिंग को लगा कि इस लक्ष्य को आसानी से पाया जा सकता है।

मई 2003 में राज्य सरकार ने रासायनिक खाद से सब्सिडी हटा ली। कुछ महीनों बाद, सिक्किम राज्य जैविक परिषद की स्थापना की। इसका मकसद था जैविक फसल उत्पादन, जंगली फसलों की खेती, जैविक पशुधन प्रबंधन और जैविक कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण और उनकी देखभाल संबंधी जरूरतों को पूरा करना। 2006-07 के बाद से रासायनिक खाद की ट्रांसपोर्ट और हैंडलिंग सब्सिडी खत्म कर दी गई और खुदरा विक्रेताओं को दिया जाने वाला कमिशन भी बंद हो गया। इसी के साथ-साथ, राज्य सरकार ने रासायनिक खाद का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद करने और उसकी जगह जैविक खाद का प्रयोग शुरू करने के लिए सात-वर्षीय योजना शुरू कर दी।

अंतत:, जनवरी 2016 में सिक्किम को पूरी तरह से ऑर्गेनिक या जैविक राज्य घोषित कर दिया गया। सिक्किम पूर्ण जैविक राज्य का दर्जा पाने वाला देश में पहला राज्य था। राज्य सरकार का दावा है कि पिछले कुछ समय में प्रदेश की लगभग 76,000 हेक्टेयर कृषि भूमि पर जैविक खेती की जा रही है। लेकिन, सिक्किम की खाद्य सुरक्षा और आत्मनिर्भरता पर प्रश्न चिह्न बना हुआ है। उदाहरण के लिए, सिक्किम में खाद्य उत्पादों के एक बड़े हिस्से – (70 टन से अधिक फल और सब्जियां प्रतिदिन) की सप्लाई पश्चिम बंगाल में सिलीगुड़ी से की गई थी।

लेकिन 31 मार्च 2018 से सरकार ने राज्य में गैर-जैविक खाद्य उत्पादों की बिक्री प्रतिबंधित कर दी है। आलू, प्याज, लहसुन, टमाटर, मिर्च, गाजर जैसी फसलें जिनका बड़ी मात्रा में उत्पादन राज्य में नहीं होता, को छोड़कर दूसरे गैर-जैविक फल और सब्जियों की बिक्री सिक्किम में बैन है।

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सिक्किम में किसान बड़ी संख्या में खेती छोड़ रहे हैं

सरकार के इस आदेश का व्यापारियों ने यह कहते हुए काफी विरोध किया था कि इससे राज्य में खाद्य पदार्थों की कमी हो जाएगी। लेकिन इससे प्रभावित राज्य सरकार ने अप्रैल में बड़ी मात्रा में गैर जैविक फल और सब्जियां (लगभग 2.5 लाख रुपए की कीमत की) गंगटोक से जब्त कीं और उन्हें नष्ट कर दिया गया। ऐसी उम्मीद है कि अगले साल से बाहर से आने वाले मांस और पोल्ट्री की बिक्री पर भी बैन लगा दिया जाएगा।

पश्चिमी सिक्किम के गांव ही मार्तम के एक किसान गणेश छेत्री कहते हैं, "जैविक मिशन अच्छा कदम है और हम उसका समर्थन करते हैं। लेकिन 6 लाख से ज्यादा राज्य की जनता और यहां आने वाले पर्यटकों (एक साल में 14 लाख से ज्यादा) के बीच फल और सब्जियों की बहुत अधिक मांग है। बदलती जलवायु, अनियमित वर्षा, बढ़ते तापमान व मनुष्य और वन्य जीवों के बीच होने वाले संघर्ष की वजह से बहुत बड़ी तादाद में किसान खेती छोड़कर रोजीरोटी चलाने के लिए टूरिज्म जैसे साधन पर निर्भर हो गए हैं।"

यह ध्यान देने योग्य बात है कि सिक्किम की कुल भूमि का केवल 12 प्रतिशत ही कृषि योग्य है, जबकि राज्य की 65 प्रतिशत जनसंख्या रोजीरोटी के लिए खेती पर ही निर्भर है। सिक्किम की खेती मूलत: वर्षा आधारित है, केवल 15 प्रतिशत इलाके में ही सिंचाई सुविधाएं हैं। पश्चिमी सिक्किम और दक्षिणी सिक्किम जिले बारिश छाया क्षेत्र में पड़ते हैं और सूखा प्रवण इलाके हैं। सिक्किम राज्य की पर्यावरण रिपोर्ट 2016 के मुताबिक, "सिक्किम की अर्थव्यवस्था में कृषि और संबद्ध क्षेत्रों का योगदान कम होता जा रहा है। कुल किसानों की आबादी में भी गिरावट आई है।"

जैसे-जैसे पहाड़ियां गर्म हो रही हैं सदिर्यों में बारिश कम हो रही है

हिमालय के बारे में हुए कई अध्ययनों से पता चलता है कि 1975 से 2006 के बीच, हिमालय के अल्पाइन क्षेत्रों में औसत तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस से 1.3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है। राज्य सरकार की 2012 की रिपोर्ट, 'सिक्किम में जलवायु परिवर्तन: पैटर्न, प्रभाव और पहल', 1991-2000 और 2001-10 के बीच औसत तापमान में वृद्धि की दर के बारे में बताती है। ताडोंग मौसम विज्ञान स्टेशन में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक, यह बढ़ोतरी 0.81 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक और 0.08 डिग्री सेल्सिसय प्रति वर्ष रही है। इसी तरह ताडोंग मौसम विज्ञान स्टेशन से मिली जानकारी बताती है कि वार्षिक वर्षा 0.72 दिनों की दर से और 17.77 मिमी प्रति वर्ष की दर से घट गई है।

2006-2010 के बीच जलवायु में बदलाव का आंकलन करने वाली एक और रिपोर्ट के मुताबिक, गंगटोक में लगभग हर मौसम में होने वाली बारिश में कमी आई, रातें गर्म हुई और दिन कुछ ठंडे हुए, मतलब न्यूनतम तामान में बढ़त हुई और अधिकतम तापमान में कमी आई। इस रिपोर्ट के लेखक के. सीतारमन का कहना है, "अधिकतम तापमान में बहुत कम गिरावट (लगभग 1 डिग्री सेल्सियस से भी कम) आई वहीं न्यूनतम तापमान में अपेक्षाकृत काफी (2 डिग्री सेल्सियस) वृद्धि हुई। सर्दी में तामान में बढ़ोतरी ज्यादा स्पष्ट रूप में देखी गई। सर्दियों में होने वाली बारिश भी कम हुई।"

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2006-10 के बीच सिक्किम के मौसम में आए बदलाव के आंकड़े। स्रोत: सिक्किम सरकार

गंगटोक स्थित द माउंटेन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के कार्यक्रम प्रबंधक और प्रमुख घनश्याम शर्मा के अनुसार, सिक्किम में वर्षा के अपने अनोखे पैटर्न होते थे जो मौसम के अनुसार बदलते थे।

अफसोस के साथ घनश्याम शर्मा ने बताया, " झड़ी, पांच से सात दिनों तक लगातार होने वाली बारिश अब गायब हो गई है। अब एक दो दिन भारी बारिश होती है फिर उसके बाद लंबा सूखा। शर्मा ने अपने 2012 के शोध पत्र में, इन झड़ियों का जिक्र किया है जो राज्य में खेती के लिए अहम थीं और अब लुप्त हो गई हैं।

जलवायु में इन परिवर्तनों का सीधा असर राज्य की खेती और किसानों की आजीविका पर प्रभाव पड़ता है। गंगटोक में 27 जून 2018 को हुई कार्यशाला के दौरान, ताशोंग (गंगटोक) स्थित आईसीएआर-एनओएफआरआई (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद - राष्ट्रीय जैविक खेती अनुसंधान संस्थान) के वरिष्ठ वैज्ञानिक (बागवानी) आशीष यादव ने बताया, "सर्दियों की वर्षा में कमी का सीधा असर चावल और मक्का जैसे राज्य की रबी (सर्दी) फसलों पर पड़ा है । कीटों के हमले, जैसे कि फलमक्खी का प्रकोप भी बढ़ गया है। हमें ऐसी लचीली कृषि पद्धति अपनाने की जरूरत है जो जलवायु परिवर्तन का सामना कर सके।

दक्षिण सिक्किम के खंड विकास अधिकारी दिनेश प्रधान का कहना था, "इस समय किसानों की मुख्य फसल मक्का है लेकिन अनियमित बारिश की वजह से उस पर भी असर पड़ रहा है।" बदलती जलवायु का असर परागण करने वाले मधुमक्खी जैसे कीटों पर भी पड़ रहा है। गंगटोक स्थित जीबी पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एनवायरनमेंटल एंड सस्टेनेबल डेवेलपमेंट के साइंटिस्ट कैलाश एस गैरा का कहना है कि क्लाइमेट चेंज की वजह से मनुष्य और वन्य जीवों में टकराव बढ़ा है, इस वजह से भी किसान खेती छोड़ रहे हैं।

गंगटोक में ही स्थित एनजीओ ईकोटूरिज्म कंजर्वेशन सोसायटी ऑफ सिक्कम के सीईओ आरपी गुरुंग बताते हैं, "एक आत्मनिर्भर जैविक राज्य बनने के लिए जरूरी है कि हम अधिक से अधिक किस्मों वाली फसलें और अधिक अन्न का उत्पादन करें। इसके लिए हमें सिंचाई सुविधाओं का विकास करना होगा क्योंकि सर्दियों में होने वाली बारिश बहुत कम हो गई है। यह एक बड़ी चुनौती है।"

कीमत पर उलझे उपभोक्ता और किसान

इस बीच राज्य के जैविक मिशन को कीमतों की वजह से भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। एक तरफ राज्य के उपभोक्ता शिकायत कर रहे हैं कि जैविक सब्जियों की कीमतें गैर जैविक सब्जियों से बहुत ज्यादा हैं। दूसरी तरफ किसान मांग कर रहे हैं कि उनके जैविक उत्पादों को बेहतर कीमतें मिलें ताकि वे जैविक फल व सब्जियों की बढ़ती डिमांड को पूरा कर सकें।

अप्रैल में, जब गैर जैविक फल-सब्जियों पर रोक लगा दी गई उस समय उपभोक्ताओं ने शिकायत की थी कि स्थानीय स्तर पर उगने वाली सब्जियों की कीमतें कई गुना बढ़ गई हैं। लोगों को यह भी डर था कि विक्रेता जैविक और गैर जैविक सब्जियों को मिलाकर बेच सकते हैं और उपभोक्ता उनमें भेद भी नहीं कर पाएंगे।

जून में सिक्किम स्टेट को-ऑपरेटिव सप्लाई एंड मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड (सिमफेड) ने दखल देते हुए राज्य में बिकने वाली जैविक फल-सब्जियों की कीमतें नियंत्रित करने की कोशिश की। उदाहरण के लिए, प्रति किलो फूलगोभी की कीमत 40 रुपए तक कर दी गई थी। साथ ही इससे ज्यादा पर बेचने वाले के खिलाफ जरूरी कार्रवाई की चेतावनी भी दी गई थी। प्रदेश भर में इसका खूब प्रचार भी हुआ। लेकिन किसान इससे नाराज हैं। कमल राय पूछते हें, "शहरी उपभोक्ताओं को खुश करने के लिए सरकार ने सब्जियों की बहुत कम कीमत तय की है।फिर मैं तमाम जोखिम मोल लेकर जैविक खेती क्यों करूं?"

पर सिमफेड के यह दावे कागजी ही रह गए। इस कदम के महज दो महीने बाद अगस्त में गंगटोक के एक नागरिक ने शिकायत की कि उसे एक किलो फूलगोभी और करेले के प्रतिकिलो क्रमश: 100 और 120 रुपए देने पड़े, जबकि दोनों की कीमत सिमफेड ने 40 रुपए प्रति किलो तय की थी।

सवाल है कि क्या सिक्कम सरकार ऐसा कोई बीच का रास्ता खोज पाएगी कि उपभोक्ता और किसान दोनों खुश रहें और राज्य जैविक राज्य की अपनी डगर पर आगे बढ़ता रहे।

(निधि जमवाल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो पिछले लगभग दो दशक से विकास और पर्यावरण के मुद्दों पर लिख रही हैं। यह लेख IHCAP-CMS मीडिया फेलोशिप प्रोग्राम के तहत प्रकाशित हुआ है।)

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