संवाद: 'समाज और अपनों का भेदभाव, लिंग पर किए जाने वाले कमेंट ट्रांसजेंडर को मानसिक रूप से बीमार कर रहे'

ट्रांसजेंडर शब्द के तहत चार अलग-अलग तरह के समुदाय आते हैं- पहला, हिजड़ा या किन्नर जिसे तीसरा या थर्ड जेंडर भी कहा जाता है दूसरा, ट्रांस मेन यानी वे लोग जो जैविक रूप से औरत होते हैं तीसरा, ट्रांस वीमेन यानी वे लोग जो जैविक रूप से मर्द होते हैं और चौथा और आखिरी, इंटरसेक्स। इन चारों ही समुदाय को ट्रांसजेडर शब्द में समेटकर देखा जाता है जिसे यह समुदाय नैतिक तौर पर सही नहीं मानता।

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संवाद: समाज और अपनों का भेदभाव, लिंग पर किए जाने वाले कमेंट ट्रांसजेंडर को मानसिक रूप से बीमार कर रहेसामाजिक अपेक्षा के कारण ट्रांसजेंडर को बीमार बना रहे। (फाटो- पूर्णिमा शाह गांव कनेक्शन)

नरजिस हुसैन

जून 2020 में उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में 16 साल के एक लड़के ने आत्महत्या कर ली। अपने सुसाइड नोट में पिता से माफी मांगते हुए उसने लिखा कि उसकी लड़कियों की तरह शक्ल थी और लोग इस बात पर उसका मजाक उड़ाते थे। यहां तक कि उसने खुद को किन्नर समझना भी शुरू कर दिया था। ये बच्चा निम्न मध्यम वर्ग का था लेकिन, इस बच्चे की जान किसी आर्थिक संकट ने नहीं बल्कि समाज के बेरहम रवैये ने ली।

उसके पिता ने भी यह बताया कि रिश्तेदार, स्कूल के साथी और पड़ोसी उसकी लैंगिक पहचान यानी जेंडर आइडेंटिटी पर सवाल करते थे और उसका मजाक उड़ाते थे। अपने घर का दुलारा लड़का जेंडर आइडेंटिटी का शिकार हुआ और उसी मानसिक तनाव में दुनिया से चला गया लेकिन, लिंग तय करने का हक क्या इंसान समाज को देता है?

आत्महत्या एक बड़ी पेंचीदा स्थिति है जिसमें शारीरिक और मानसिक समेत कई और कारण जिम्मेदार होते हैं। सौम्या गुप्ता को भी कभी इसी तरह आत्महत्या का ख्याल कई बार आता था क्योंकि समाज आज भी ट्रांसजेंडर यानी पारलैंगिक लोगों को स्वीकार नही करता। सौम्या गुप्ता पारलैंगिकों पर काम करने वाली दिल्ली की एक संस्था हमसफर ट्रस्ट में डिप्टी प्रोग्राम मैनेजर हैं।

सौम्या खुद एक ट्रांस वुमेन हैं जो बताती हैं, "पारलैंगिकों को समाज में भेदभाव का सामना हमेशा से करना पड़ा है। करीब 12-13 साल की उम्र से ही यह भेदभाव शुरू हो जाता है जब बच्चे किशोरावस्था में पहुंचने शुरू होते हैं। घर में भेदभाव और दमन की वजह से अक्सर इसी उम्र में ये बच्चे घर से भी भाग जाते हैं। बाहरी दुनिया का बुरा बर्ताव, हिंसा और घरवालों की अनदेखी इनके मानसिक स्वास्थ्य पर बेहद बुरा असर डालते हैं।"

सौम्या के मुताबिक यह भेदभाव इस कदर है कि आज भी इस समुदाय के लिए स्कूल, कॉलेजों से लेकर, स्वास्थ्य सुविधाओं, सार्वजनिक स्थलों, घर खरीदना या किराए पर लेना, सार्वजनिक शौचालयों का इस्तेमाल, नौकरियों और नागरिक के तौर पर जरूरी दस्तावेज लेने का इन्हें हकदार नही माना जाता।

सौम्या गुप्ता

वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक देश की कुल आबादी में पारलैंगिकों की तादाद करीब 4,87,803 है, जिसमें छह साल से कम उम्र के बच्चों की आबादी 54,854 है। दरअसल, ट्रांसजेंडर या पारलैंगिक शब्द के तहत चार अलग-अलग तरह के समुदाय आते हैं- पहला, हिजड़ा या किन्नर जिसे तीसरा या थर्ड जेंडर भी कहा जाता है दूसरा, ट्रांस मेन यानी वे लोग जो जैविक रूप से औरत होते हैं तीसरा, ट्रांस वीमेन यानी वे लोग जो जैविक रूप से मर्द होते हैं और चौथा और आखिरी, इंटरसेक्स। इन चारों ही समुदाय को ट्रांसजेडर शब्द में समेटकर देखा जाता है जिसे यह समुदाय नैतिक तौर पर सही नहीं मानता।

देश की चार लाख से पार की ट्रांसजेंडर आबादी में आम आबादी की तुलना में आत्महत्या की दर और आत्महत्या की कोशिश की दर सबसे ज्यादा है। 2012 में दि सॉफ्ट कॉपी पब्लिकेशन में छपे 'Transgender Suicide Rates Continue to Rise' नाम के लेख में बताया गया कि भारत में ट्रांसजेंडर की आत्महत्या की दर कुल आत्महत्याओं की दर की करीब 31 फीसद है जिसमें अपने 20वें जन्मदिन से पहले तकरीबन 50 प्रतिशत ट्रांसजेंडर आत्महत्या की कोशिश कर चुके होते हैं।

हालांकि, ट्रांसजेंडर आबादी को लेकर किसी भी आंकड़े को पैमाना बनाना सही नहीं होगा क्योंकि इस दिशा में सही तथ्यों और आंकड़ों की खासी कमी है।

स्वेतांबरा जो हमसफर ट्रस्ट, मुबंई की प्रोजेक्ट मैनेजर-ट्रांससेंड हैं, बताती हैं, "दरअसल, हमारा समाज ट्रांसजेंडर समुदाय के साथ भेदभाव करता है, बुरा बर्ताव करता है उन्हें अपने से अलग समझता है और खुद में शामिल नहीं करता, उनके लिंग को लेकर उनपर फब्तियां कसना, हंसी उड़ाना, कभी उन्हें गाली के तौर पर छक्का या कुछ और कहकर चिढ़ाना और कुल मिलाकर उन्हें कभी भी नार्मल महसूस न होने देना उन्हें धीरे-धीरे मानसिक बीमारियों और विकारों की तरफ धकेलता है।"

स्वेतांबरा

स्वेतांबरा अपनी बातों में बताती हैं कि कैसे समाज और अपनों के भेदभाव ने इस समुदाय को ढेरों मानसिक विकारों के मुहाने पर खड़ा रखा है। इन्हें लगातार इस बात का एहसास दिलाया जाता है कि लिंग या तो मर्द होता है या फिर औरत।

ट्रांसजेंडर समुदाय को किस तरह की मानसिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है? उन्हें इससे कैसे उबारा जा सकता है और इस ओर और क्या जा सकता है? इस मुद्दे पर मैंने डॉक्टर अक्सा शेख सहायक प्रोफेसर, सामुदायिक चिकित्सा विभाग, हमदर्द इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज ऐंड रिसर्च, से कई सवाल पूछे। डॉ अक्सा लंबे समय से ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए काम कर रही हैं-

प्र. ट्रांसजेंडर समुदाय को किस तरह की मानसिक स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है?

उ. यह बात सही है कि ट्रांसजेंडर हाशिए पर खड़ा एक ऐसा समुदाय है, जिसके पास स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच बहुत कम है। ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग अक्सर अपनी लैंगिक बेमेलता में खुद ही इतने उलझे होते हैं और उस पर समाज में उनकी अस्वीकार्यता इस समुदाय को खासी मानसिक बीमारियों की तरफ ले जाती है।

अगर आप आंकड़ों को देखें तो पाएंगे कि खासतौर से डिप्रेशन और एंजाइटी आम आदमी की तुलना में ट्रांसजेंडर लोगों में काफी होती है। यही नहीं इस समुदाय के लोग सेल्फ हार्म और आत्महत्या की कोशिशें ही नहीं बल्कि खुदकुशी भी करते हैं।

जिसकी दर यहां भी आम लोगों की बनिस्बत (मुकाबले) ज्यादा है। मादक पदार्थों, तंबाकू और एल्कोहल की लत की दर भी ट्रांसजेंडर समुदाय में ऊंची है। इसके अलावा एसटीडी से होने वाले एचआईवी और ट्यूबरक्लोसिस से भी इनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।

प्र. मानसिक स्वास्थ्य की बात की जाए तो किस तरह के आंकड़ों और तथ्यों पर काम करने की जरूरत है?

उ. सबसे पहले इंटरसेक्शनैलिटी फ्रेम को जानना जरूरी है। इस समुदाय में भी कई समुदाय हैं और सबके मानसिक सेहत के मसले अलग-अलग हैं। ट्रांसजेंडर एक शब्द है जिसमें कई समुदाय आते है- ट्रांस मैन, ट्रांस वुमैन, ट्रांसजेंडर नॉन बायनरी वगैरह।

डॉक्टर अक्सा शेख

इसके अलावा वे लोग भी हैं, जिनकी अलग सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान है जैसे हिजड़ा घराना, किन्नर समाज, कोती, बन्ती, जोगता जोगती। इन सबकी मानसिक स्वास्थ्य की परेशानियां अलग हैं। फिलहाल इनके मुद्दों को साझे तौर पर ही देखा जाता है। मेरा मानना है कि इसमें से हरेक समुदाय के मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर अलग से शोध या अध्ययन होना चाहिए जोकि अब तक मौजूद नही है।

दूसरा, इस समुदाय के बॉयोलॉजी वेरिएंसेस पर कहीं कोई अध्ययन नहीं हुआ। मोटे तौर पर कहा जाए तो इनके लिए पैथोलॉजी और फार्माकोलॉजी का फर्क और असर जानना बेहद जरूरी है। तीसरा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों या मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रमों या नीतियों को बनाते वक्त इस समुदाय की कुछ खास जरूरतों को ध्यान में नहीं रखा जाता जो बेहद जरूरी है।

प्र. ट्रांसजेंडर समुदाय में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकार एक बार ठीक होने के बाद दोबारा न लौटे आपकी नजर में इसका बेहतर हल क्या हो सकता है?

उ. यह बात ठीक है कि एक ट्रांसजेंडर अपने बचपन से लेकर उम्र के हर पड़ाव में मानसिक विकारों या बीमारियों को झेलता है। मेरी नजर में इस समुदाय के लोगों को हर स्तर पर सम्मानजनक तरीके से मानसिक स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं लगातार मिलती रहनी चाहिए।

प्र. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर समुदाय की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के लिए एक वेल्फेयर एजेंसी बनाने के निर्देश राज्यों और केन्द्र शासित राज्यों को दिए थे जिनकी लगातार अनदेखी होती रही। आपकी राय में इसकी क्या वजहें हो सकती है?

उ. 2013 में ही दरअसल ट्रांसजेंडर समुदाय को पहली बार अपनी अलग पहचान मिली और इनके हक और अधिकार की भी बात की गई। 2019 में ट्रांसजेंडर पर्सन (अधिकार संरक्षण) कानून बना, 2020 में ट्रांसजेंडर काउंसिल का गठन किया गया।

इन सभी कानून और नीतियों ने ट्रांसजेंडर समुदाय को उनका हक, अधिकार और सेवाएं मिले इसका माहौल पैदा किया लेकिन, जमीनी स्तर पर ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि मेरी समझ से समुदाय की तादाद कम है और ये समाज सशक्त नहीं है। कानून के अमल में अनदेखी की वजह यह भी हो सकती है कि इस समाज में वोटर कम हैं और इनके हक की आवाज उठाने वाला भी कोई नहीं।

प्र. क्योंकि इस समुदाय पर खासकर इनके मानसिक स्वास्थ्य को लेकर ज्यादा रिसर्च या अध्ययन नहीं हुए हैं। क्या आपको लगता है कि इन लोगों के खुद आगे आकर अपने अनुभवों को समाज से साझा करने से तस्वीर कुछ बदल सकेगी?

उ. जब भी हम कोई स्वास्थ्य़ संबंधी नीति या कार्यक्रम बनाने की बात करते हैं उसके लिए कुछ प्रमाणों की कुछ शोध की जरूरत पड़ती है बात जब ट्रांसजेंडर समुदाय के मानसिक स्वास्थ्य की हो तो इसमें भी हमें इन चीजों की जरूरत होती है ताकि इस बात का पूरा ख्याल रखा जा सके कि ये नीतियां असल जिंदगी में भी कारगर हो। अनुभव साझा करना नीतियां और प्रोग्राम बनाने में बहुत मददगार साबित होते हैं।

समाज के स्टीरियोटाइप बर्ताव से परेशान होकर ही इस समुदाय के कितने ही लोग डिप्रेशन, अवसाद, तनाव, इनसोमनिया, आत्महत्या की कोशिश, अकेलापन, सेल्फ हार्म और नशीले पर्दाथों (तंबाकू, एल्कोहल) की लत का शिकार बनते है।

साल 2016 में लैंसेट साइकियाट्री में 'Removing transgender identity from the classification of mental disorders: a Mexican field study for ICD-11' से छपे एक अध्ययन का जिक्र करना यहां सही होगा जिसमें बताया गया कि ट्रांसजेंडर दरअसल लिंग पहचान की वजह से नहीं बल्कि, समाज की दी गई यातनाओं और हाशिए पर धकेलने वाले रवैये से मानसिक रोगों के शिकार होते हैं। यह अध्ययन मेक्सिको सिटी में हुआ था।

मुंबई की उमंग संस्था के को-फाउंडर राज कनोजिया बताते हैं, "हमारे समुदाय की तकलीफ और दर्द को हम बता तो देते हैं लेकिन, इसे समझ वही सकता है जिसपर गुजरती है। हमें समाज से अलग मत करो न हम अलग है। हम समाज का ही हिस्सा है और बस इतना चाहते हैं कि समाज भी हमें अपना हिस्सा माने।"

राज कनोजिया

राज खुद एक ट्रांस मैन हैं वो आगे बताते हैं, "बहुत ही कम ट्रांसजेंडर किशोरों को अपने परिवार की मदद मिलती है। काफी बड़ी तादाद तो परिवार के सौतेले रवैये की वजह से ही घर से भाग जाते हैं। जरा सोचिए इस उम्र में न तो वे शैक्षिक और न ही वित्तीय तौर पर आत्मनिर्भर होते हैं तो उन्हें समाज में कितनी ज्यादतियां सहनी पड़ती होंगी, इनके साथ हिंसा भी खूब होती है और इनका शारीरिक शोषण और बलात्कार भी होता है।

इन सबके बीच इनके मानसिक स्वास्थ्य का क्या हाल होता है यह किसी से छुपा नहीं है।'' उमंग संस्था LBT (Lesbian, Bisexual, Transgender) मुद्दों पर काम करती है।

अमूमन एचआईवी की जब बात होती है तो ही इस समुदाय का नाम लिया जाता है क्योंकि समुदाय में एचआईवी के मरीज सबसे ज्यादा हैं। साल 2017 में अमेरिकन जरनल ऑफ साइकियाट्री में 'Understanding the Mental Health of the Hijra Women in India' नाम से छपे लेख में डॉक्टर विकास जयदेव ने देश में हिजड़ों की दशा के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा है कि समुदाय की शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक सेहत भी लगातार खराब रहती है और इसलिए दोनों ही स्तर पर इनके लिए काम होना जरूरी है। क्योंकि भेदभाव और गड़बड़ाता शारीरिक स्वास्थ्य उन्हें मानसिक बीमारियों के कगार पर ले आता है।

लंबे वक्त से अपने समुदाय के लिए काम कर रहे राज कनोजिया ने बातचीत बताते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं की तो ये सेवाएं तो आज भी एक मामूली इंसान की पहुंच से दूर है इनका समुदाय तो सोचता ही नहीं। हालांकि उन्होंने ये भी माना कि ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए माहौल पहले से काफी बेहतर हुआ है।

ट्रांसजेंडर पर्सन (अधिकार संरक्षण) कानून, 2019 आने के बाद सरकार ने भी इस समुदाय और इनके मुद्दों की तरफ ध्यान देना शुरू किया है। 02 मार्च, 2021 में गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को कानून को अमल में लाने के निर्देश दिए हैं जिसके बाद दिल्ली पुलिस कमीश्नर ने दिल्ली में ट्रांसजेंडर लोगों के साथ होने वाली बदसलूकी और अपराध को फौरन रजिस्टर, जांच और अभियोग के लिए एक निगरानी सेल स्थापित करने का आदेश दिया है।

यह बात सच है कि इन समुदायों के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर न तो बहुत शोध है और न कोई अध्ययन। मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की इनकी जरूरतों को जानना और उनके हल तलाशना आज बेहद जरूरी है क्योंकि समाज भले ही इन्हें अपने में न गिने लेकिन, ये समाज का हिस्सा हैं और इन्हें इसी समाज में रहना है।

इनके बेहतर मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है अपनापन...परिवार में, समाज में, नौकरी में और स्वास्थ्य सुविधाओं का फायदा उठाने में। इन सभी को इस समुदाय के लिए संवेदनशील होना ही होगा तभी खुशनुमा समाज की तस्वीर मुक्कमल हो पाएगी।

(नरजिस हुसैन स्वतंत्र लेखन करती हैं और लेख में उनके निजी विचार हैं)

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