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अलवर बताता है प्रान्तीय हुकूमतों का तंत्र ढीला हो चुका है

Dr SB Misra | Jul 26, 2018, 10:30 IST
खोजी पत्रकारों और सोए हुए शासन तंत्र का दायित्व है कि वे तथाकथित गोरक्षकों और गोभक्षकों की पूरी पहचान समाज के सामने लाएं।
#अलवर
राजस्थान के अलवर में एक आदमी गाय लिए जा रहा था तो भीड़ ने पीट-पीट कर उसे अधमरा कर दिया और पुलिस ने आधे मन से उसे अस्पताल पहुंचाया तब तक वह मर चुका था। उद्दंड लोगों ने उसे मुसलमान मान लिया और समाज ने भीड़ को गोरक्षक। पत्रकारों तक ने सच्चाई का पता लगाकर समाज के सामने नहीं पेश किया।

यह पहली घटना नहीं है ऐसी घटनाएं आए दिन होती रहती हैं। यदि कोई हिन्दू अलीगढ़ी पायजामा पहन कर गोल टोपी लगाकर गाय ले जा रहा होता अथवा कोई मुसलमान भगवा गमछा कंधे पर डालकर गाय ले जा रहा होता तो भीड़ हमला करती या नहीं। खोजी पत्रकारों और सोए हुए शासन तंत्र का दायित्व है कि वे तथाकथित गोरक्षकों और गोभक्षकों की पूरी पहचान समाज के सामने लाएं।

भीड़ में से पकड़े गए लोगों से पूछना चाहिए कि तुमने इस आदमी को क्यों मारा, गाय ले जा रहा था इसलिए या वह मुसलमान था इसलिए। राजनेताओं से भी पूछना चाहिए क्या प्रदेश की कानून व्यवस्था संभालने केन्द्र सरकार को आना चाहिए या उस प्रान्त के मुख्यमंत्री को संभालना चाहिए। यदि आप मान लोगे कि मोदी ही सरकार हैं और सरकार ही भारत है तो अधिनायकवाद का जन्म होगा और आपातकाल लगेगा। चाहें तो शाहजहां का उदाहरण अपनाना होगा।

यदि भारत का प्रजातंत्र फेल होता है तो क्या मुस्लिम देशों का राजतंत्र और उससे जुड़ी कठोर शासन व्यवस्था लानी चाहिए अथवा चीन जैसी साम्यवादी सामूहिक तानाशाही। वास्तव में खामी प्रजातंत्र में नहीं, उसे लागू करने वालों में है। हमारे देश की कठिनाई यह रही है कि हम विदेशी व्यवस्थाओं के आगे सोच ही नहीं पाए।
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कहते हैं शाहजहां के दरबार में एक घंटा टंगा था, कोई भी मुसीबत का मारा उस घंटे को बजा सकता था, सरकारी अधिकारी जान जाते थे कोई फ़रियादी आया है। उसकी फ़रियाद सुनी जाती थी और उसे तुरंत इंसाफ़ मिलता था। निर्णय में देरी का कारण है कि तमाम न्यायाधीशों की कुर्सियां खाली पड़ी हैं और अंग्रेजों द्वारा बनाए गए प्रशासनिक तंत्र को स्वाधीन भारत के नेताओं ने मजबूती नहीं दी हैं, बिगाड़ा ही है।

यदि भारत का प्रजातंत्र फेल होता है तो क्या मुस्लिम देशों का राजतंत्र और उससे जुड़ी कठोर शासन व्यवस्था लानी चाहिए अथवा चीन जैसी साम्यवादी सामूहिक तानाशाही। वास्तव में खामी प्रजातंत्र में नहीं, उसे लागू करने वालों में है। हमारे देश की कठिनाई यह रही है कि हम विदेशी व्यवस्थाओं के आगे सोच ही नहीं पाए।

पहली बार किसी सरकार ने समान नागरिक संहिता की और एक छोटा कदम बढ़ाया है, अभी तक अदालतें सरकार को लताड़ती रहीं हैं। भावात्मक मुद्दे उछालकर कभी कहना कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है, कभी कहना हम जनेउधारी हिन्दू हैं तो कभी देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है, इससे कोई समस्या हल नहीं होगी।

पिछले 70 साल में हमारे देश ने प्रजातंत्र के बहुत से उतार चढ़ाव देखे हैं। आपातकाल भी देखा है जब बसों से उतार-उतार कर लोगों की नसबन्दी की जाती थी और राजीव गांधी का बयान भी याद है, "जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिल जाती है।" अविश्वास और असहिष्णुता का वातावरण एक दिन में नहीं पैदा हुआ है।

कानून को लागू करने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति चाहिए, जिसके अभाव ने शाहबानो को निर्णय नहीं मिलने दिया। उसी इच्छाशक्ति के कारण कांग्रेस ने आरएसएस पर तीन बार प्रतिबंध लगाया और जिस मुस्लिम लीग ने देश को बांटा उसे छुआ तक नहीं। प्रधानमंत्री मोदी के सामने चुनौती है, क्या देशहितमें समान नागरिक संहिता लागू कर पाएंगे और क्या उद्दंड और अराजक तत्वों पर अंकुश लगा सकेंगे।

प्रधानमंत्री मोदी के सामने प्रजातंत्र के अलावा एक विकल्प़ है मध्यपूर्व का हृदयहीन शासन, जिसमें मानवीय पक्ष के लिए कोई जगह नहीं और चोरों के हाथ काट दिए जाते हैं और व्यभिचारियों की गर्दन। दूसरा है पश्चिमी देशों की लिबरल व्यवस्था जो सुधारवादी है और जिसमें दंड का स्थान गौण है। हमारा रास्ता अपने हजारों साल के अनुभव पर आधारित इन्हीं के बीच से निकलना चाहिए, जहां सत्ता का पूर्ण विकेन्द्रीकरण हो। प्रधानमंत्री मोदी को परिदृश्य से हटाकर सोचिए यदि महागठबंधन की सरकार बनती है तो क्या उदृदंडता और असहिष्णुता पर अंकुश लगा पाएगी। इसलिए हर छोटी-बड़ी गलती के लिए नरेन्द्र मोदी पर शब्द बाण छोड़ना ठीक नहीं।

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