योगाभ्यास उतना ही सेकुलर है जितना हमारा संविधान

योग विद्या के खोजकर्ता महर्षि पतंजलि हिन्दू थे या नहीं मैं नहीं जानता, लेकिन कोई भी योगासन या मुद्रा किसी देवी देवता के नाम पर नहीं है, बल्कि पशु-पक्षियों के नाम से जरूर है।

Dr SB MisraDr SB Misra   20 Jun 2018 1:47 PM GMT

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योगाभ्यास उतना ही सेकुलर है जितना हमारा संविधान

सारी दुनिया 21 जून को योग दिवस मना रही है, लेकिन कुछ लोग यह भ्रम पाल रहे हैं कि योग का सम्बन्ध हिन्दू धर्म से है। योग विद्या के खोजकर्ता महर्षि पतंजलि हिन्दू थे या नहीं मैं नहीं जानता, लेकिन कोई भी योगासन या मुद्रा किसी देवी देवता के नाम पर नहीं है, बल्कि पशु-पक्षियों के नाम से जरूर है। भारतीय वैज्ञानिकों ने कभी अपने ज्ञान का ढिंढोरा नहीं पीटा। दुनिया में ऐसी कोई विधा नहीं जो बिना खर्चा किए शरीर को निरोग और मस्तिष्क को मजबूत कर सके। यह आप की इच्छा पर है, इसे अपनाएं या त्याग दें।

योग को सनातन परम्परा और हिन्दू धर्म से जोड़ने का कारण हो सकता है कि देश-विदेश में इसका प्रचार-प्रसार स्वामी विवेकानन्द, अभेदानन्द, योगानन्द जैसे भगवा वस्त्र धारी सन्यासियों ने किया। कहते हैं इन्दिरा जी को धीरेन्दग्र ब्रह्मचारी ने योग सिखाया था और उनका नाम मीडिया में आया था, लेकिन आम आदमी तक उनका कोई प्रभाव नहीं पहुंचा था।

वर्तमान में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि योग को भारत में आम आदमी तक पहुंचाने में बाबा रामदेव का और अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर ले जाने में देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बड़ा योगदान है। उन्हीं के प्रयासों का फल है योग दिवस।

विज्ञान के अन्य सिद्धान्तों की तरह योग की खोज भी प्राकृतिक घटनाओं से विकसित हुई हैं। जब न्यूटन ने ध्यान से देखा कि पेड़ से गिरा सेब सीधे धरती पर आ गया तो सोचा कि यह सेब जमीन पर ही क्यों गिरा, इधर या उधर क्यों नहीं गया। उन्होंने नतीजा निकाला कि पृथ्वी अपने गुरुत्वाकर्षण बल के कारण सभी चीजों को अपनी ओर खींचती है। योग भी इसी तरह पशु-पक्षियों और मनुष्यों पर ध्यानपूर्वक किए गए निरीक्षण का परिणाम है।

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मनुष्य और जानवर विविध शारीरिक क्रियाएं करते हैं जैसे सेब हमेशा से गिरते रहे हैं। महर्षि पतंजलि ने उन क्रियाओं को देखा और अष्टांग योग दर्शन के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। आप ने भी सांप को जमीन पर लेटे हुए फन उठाए देखा होगा, यही तो है सर्पासन। मोर, मुर्गा, कुत्ते, बिल्ली और मनुष्य को अंगड़ाई लेते देखा होगा। ताड़ासन, हलासन, धनुरासन, मयूरासन और कुक्कुटासन और अर्धमत्स्येन्द्रासन ही तो करते हैं ये सब। इसीलिए अनेक आसन जानवरों के नाम से या फिर शरीर की पोजीशन से जाने जाते हैं। इन मुद्राओं के साथ जब मन-मस्तिष्क का सामंजस्य रहता है तो योग बन जाता है।

यदि कोई मुस्लिम कहता है हम नमाज पढ़ते हुए इबादत के साथ ही अनेक योग मुद्राएं करते हैं तो वह ठीक कहता है। यही तो हिन्दू करता है जब वह योग मुद्राओं में रहते हुए कहता है सब सुखी हों, सब चिन्तारहित हों। इसी को वह संस्कृत में कह देता हैं, "सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः" तो विरोध किस बात का है, क्रियाओं का या शब्दों का? यदि कोई चाहे तो इन्हीं बातों को उर्दू अरबी या फारसी में कह सकता है। और यदि ना चाहे तो योगाभ्यास ही ना करे क्योंकि योगाभ्यास देशभक्ति का नहीं, जनकल्याण का विषय है।

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जब कोई व्यक्ति आंखें बन्द करके ध्यान लगाता है तो मन में उत्तेजना नहीं रहती, मारो काटो के भाव नहीं आते और वह संस्कृत में कहता है, "वसुधैव कुटुम्बकम्।" इस प्रकार मन को शान्त करके मनोविकारों को दूर करने का योगाभ्यास से बेहतर कोई उपाय नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं कि योग के बदले कसरत कर सकते हैं, जिम जा सकते हैं, खेल कूद में भाग लेकर शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं। यह सच भी हो सकता है परन्तु मन-मस्तिष्क का व्यायाम वहां नहीं होगा जिसे "साइको सोमैटिक अभ्यास" कहेंगे।

मांस पेशियों की कसरत और रक्त संचार के लिए विविध व्यायाम तो काम करेंगे, परन्तु शरीर के अन्दर के अंगों का व्यायाम सहज रूप से तो योग से ही होगा। प्राणायाम से फेफड़े, लीवर, किडनी, हृदय और दिमाग सभी का व्यायाम हो जाता है। योग में अंग प्रत्यंग का व्यायाम सहज रूप से होता है। ओंकार की ध्वनि तरंगें यदि मन मस्तिष्क को स्वस्थ करती हैं तो इसे स्वीकार कीजिए या न कीजिए, मर्जी आप की।

बहुत से लोग मानते हैं कि 90 प्रतिशत रोग साइकोसोमैटिक यानी मनोविकारों से सम्बन्धित होते हैं, जिनका इलाज आसान नहीं। कितने ही असाध्य हड्डी रोगों का इलाज केवल योग में ही सम्भव है और दुनिया के सैकड़ों अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में योग विज्ञान के विभाग खोले गये हैं। कई बार नासमझी में ओंकार और भ्रामरी से आपत्ति जताई जाती है अथवा सूर्य नमस्कार को सिज़्दा समझने की भूल होती है, लेकिन यदि मानो तो सूर्य में भी खुदा है, वह तो जर्रे ज़र्रे में मौजूद है। तमाम मुस्लिम देश योगाभ्यास में कठिनाई का अनुभव नहीं करते। यह ज्ञान निःशुल्क उपलब्ध है।

देश के प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका की संसद में ठीक ही कहा था कि हम योग बौद्धिक सम्पदा मूल्य नहीं मांगेंगे या इसका पेटेन्ट नहीं कराएंगे। भारत ने ज्ञान को बेचने का काम कभी किया ही नहीं। योग को इसलिए त्यागना ठीक नहीं कि यह भारत का सनातन ज्ञान है। इसे विज्ञान के रूप में स्वीकार करना चाहिए न कि धर्म के रूप में। यह विधा जो बिना दवाई और बिना खर्चा के शरीर और मन को निरोग करती है, किसी के भगवान के विरुद्ध नहीं हो सकती और न कोई भगवान इसे अनुचित मानेगा।

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