अपने हक की‍ आय भी नहीं मिलती किसानों को, पार्ट-2

Devinder Sharma | Aug 09, 2017, 20:36 IST

पार्ट - 1 आजादी के 70 साल से भारत के किसानों का कभी न खत्म होने वाला इंतजार से आगे

जहां किसानों को उनके हक़ की आय से वंचित रखा गया। वहीं समाज के अन्य वर्गों को वेतन में भारी वृद्धि हासिल हुई। उदाहरणतः 1970 में 90 रुपए प्रति माह का वेतन लेने वाले शिक्षकों का वेतन 45 वर्ष में 2015 तक 280 से 320 गुना बढ़ गया और कॉलेज के प्रोफेसर के वेतन में 150 से 170 गुना वृद्धि हुई। इसी अवधि में किसानों को गेहूं के दामों में महज 19 गुना की वृद्धि हासिल हुई। खेती का कार्य अलाभकारी हो गया और बराबरी के अवसर प्रदान करने की सभी अपीलें अनसुनी कर दी गई।

1996 में विश्व बैंक ने भारत से 2015 यानी आगामी 15 वर्षों की अवधि में 400 मिलियन लोगों को कृषि के क्षेत्र से बाहर करने का निर्देश दिया। चूंकि प्रत्येक विश्वबैंक ऋण के साथ अमूमन 140 से 150 शर्तें लगी आती हैं तो प्रत्येक ऋण के साथ किसानों को खेती से बाहर निकालने की शर्त ज़ोर पकड़ती जाती थी।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बारम्बार 70 प्रतिशत किसानों को खेती बाड़ी से बाहर निकालने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया था। भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि भारत में तभी सुधार किए जा सकेंगे जब किसानों की खेती छुड़वाकर उन्हें अवस्थापना विकास के लिए सस्ते श्रमिकों के रूप में इस्तेमाल किया जाए।

तीन दशक से भी अधिक समय से, आर्थिक सुधार लाए जाने के बाद और भी, खेती को जानबूझ कर अवहेलना और उदासीनता का ज़हर पिलाया गया है। अनुवर्ती सरकारों ने जानबूझकर ऐसी परिस्थितियां निर्मित की कि खेती अलाभकारी होती गई जिससे कि बढ़ती संख्या में किसान खेती छोड़ शहरों की ओर पलायन करने पर मजबूर होते जा रहे हैं और इसके साथ ही खाद्य आयात बढ़ते जा रहे हैं। डाउन टु अर्थ पत्रिका के अनुसार 2015-2016 में खाद्य सामग्री के आयात का बिल 1,402,680,000,000 ( करीब14 खरब) रुपए था। ये खेती के लिए वार्षिक बजट राशि से बड़ी राशि थी।

आयात की ओर ये झुकाव तब आया है जब किसानों से खेती छुड़वाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। जैसा मैंने पहले कहा, खाद्य पदार्थो में महंगाई को नियंत्रण में रखने के लिए किसानों को किया जा रहा भुगतान उनकी उत्पादन लागत पूरी करने के लिए भी पर्याप्त नहीं है और उन्हें अत्यधिक दबाव में लाया जा रहा है।

अफ्रीकन और ब्रिक्स देशों के साथ भविष्य में दलहन, तिलहन और गेहूं के आयात के लिए जो समझौता ज्ञापन हस्ताक्षरित किए जा रहे हैं उनका मक़सद खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भरता स्थान पर घरेलू खाद्य आवश्यकताओं को आयात द्वारा पूरा करने का ध्येय प्राप्त करना है। जो बात सरकारें समझ नहीं रही है वो ये है कि खाद्य पदार्थ आयात करना वैसा ही है जैसे बेरोज़गारी को आयात करना। खाद्य पदार्थों के आयात का प्रथम नकारात्मक प्रभाव किसानों पर पड़ता है जो खेतीछोड़ शहरों की ओर पलायन कर बैठते हैं।

मुझे शक है कि अग्रणी अर्थशास्त्रियों और नीति निर्धारकों के लिए इन बातों का कोई अर्थ है। उनका ध्यान इस पर केंद्रित है कि इस प्रकार की आर्थिक परिस्थितियां निर्मित की जाएं जिनसे किसान खेती छोड़ने के लिए मजबूर हो जाए।

मुख्यधारा की आर्थिक सोच यही कहती है और भारतीय नीति निर्धारक आंखें बंदकर के वह रणनीति अपना रहे हैं जो विश्वभर में असफल सिद्ध हो चुकी है। एक के बाद एक कितने ही देश रोज़गार विहीन विकास की चपेट में आ रहे हैं और भारत कोई अपवाद नहीं है। फिर भी कोई ये नहीं समझ रहा है कि केवल खेती ही देश को इस संकट से उबार सकती है।

हर कटाई के बाद बाजार गिरने और घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य भी किसानों को दिलाने के मामले में सरकार की उदासीनता के कारण किसान कभी ख़त्म न होने वाले ऋण के चक्रव्यूह में गहरे धंसते जा रहे हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य जो दिया जाता है वह भी कई बार उत्पादन लागत से कम होता है। उदाहरणतः महाराष्ट्र में तुअरदाल की कीमत 6240 प्रति क्विंटल आंकी गई है जबकि इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य 5050 प्रति क्विंटल घोषित किया गया था और वस्तुतः एक सप्ताह से अधिक समय तक मंडी में इंतज़ार करने के बाद किसान मात्र 3500 से 4200 प्रति क्विंटल की दर पर तुअर दाल बेच पाए।

एक और उदहारण देखिए। हरियाणा में एक किसान तीन महीने की जी-तोड़ मेहनत करके आलू की अच्छी पैदावार हासिल करता है पर आलू की कीमतों में भारी गिरावट आती है और उससे 40 क्विंटल आलू मात्रा नौ पैसे किलो की दर पर बेचने पड़ते हैं। ऐसे इक्का-दुक्का मामले नहीं है।

विपत्ति की स्थिति में औने-पौने दामों पर उत्पाद की बिक्री अपवाद नहीं नियम ही बन गया है और यही महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में हाल में आंदोलन की वजह है ।कीमतें गिरने का धक्का किसानों की जान लेकर जाता है लेकिन सच्चाई ये भी है कि सरकार शायद ही कभी किसान को बचाने के लिए पहुंची हो। मेरी समझ में हाल के विरोध प्रदर्शन अभी बस ट्रेलर हैं, पिक्चर तो अभी बाकी है।

बेचारे किसान को ऋण के ऐसे दलदल में छोड़ दिया गया है जो हर साल गहराता जा रहा है। किसान जिस आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं वो संकट उनके उत्पाद की उचित कीमत उन्हें न दिएजाने के कारण बढ़ता ही चला जा रहा है। खाद्यान्न की कीमतों में वृद्धि पर नियंत्रण रखने की कीमत भी किसान ने ही चुकाई है । वास्तव में तो ये किसान है जिन्होंने राष्ट्र को इतने वर्षों से सब्सिडी दी हुई है ।हर सरकार ने जानबूझकर खेती को बेहाल रखा है। अनुमानतः 58 प्रतिशत किसान रात को भूखे पेट ही सो जाते हैं।

हर आने वाले साल के साथ किसा‍नों की आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो रही है। 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि भारत के 17 राज्यों यानी आधे देश में एक किसान परिवार की औसत आय 20 ,000 रुपए प्रतिवर्ष अथवा 1700 प्रतिमाह है । मात्र जीवनयापन करने लायक इतनी कम आय इतने वर्षों से चली आ रही आर्थिक नीति का ही परिणाम है । मुझे सोचकर ही घबराहट होती है कि ये किसान परिवार इतने साल कैसे गुज़ारा करतेआये हैं । 1700 रुपए से कम में तो गाय पालना भी संभव नहीं है । क्या ये किसान कभी भी किसी नई सुबह के दर्शन करेंगे जब खेती फिर से अपने पुराने गौरवशाली स्वरूप को प्राप्त करेगी । वह सुबह कभी तो आएगी?

मुझे शक है कि कभी ऐसा होगा। किसानों के विरोध प्रदर्शन के बावजूद नीतिगत बल इस बात पर है कि खेतों में कार्यरत लोगों की संख्या को कम किया जाये और खेती को कॉर्पोरेट्स के सुपुर्द कर दिया जाये । राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद इस बात को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है । इस परिषद अगले पांच साल में 2022 तक खेती में लगी आबादी को मौजूदा 57 प्रतिशत से घटाकर 38 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा है। रोज़गार के अवसर कम होते जा रहे हैं और पिछले 13 वर्षो में अपेक्षित 16.25 करोड़ रोज़गार के अवसरों के स्थान पर केवल 1.6 करोड़ रोज़गार सृजित किए गए। छोटे और सीमान्त किसानों को खेती से बाहर धकेल देने से रोज़गार के अवसर कम ही होंगे । अगर सरकार जब रोज़गार सृजन की बात करती है तब यदि उसका ध्यान दिहाड़ी मज़दूरी देकर रोज़गार सृजन पर है तो इस प्रकार की आर्थिक नीतियों को पुनर्विलोकन करने का समय निश्चित ही आ गया है ।

आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए जान बूझकर धीरे-धीरे खेती का गला घोंटा जा रहा है । मुख्यधारा के अर्थशास्त्री कहते हैं कि आर्थिक विकास के लिए आबादी के बड़े हिस्से से खेती छुड़वाकर उन्हें शहरों में ले जाना आवश्यक है। खाद्यान्न तो कॉर्पोरेट खेती अथवा आयात से भी प्राप्त किया जा सकता है । विश्वबैंक और अन्य आर्थिक संस्थाओं द्वारा यही रास्ता सुझाया गया। क्रेडिट एजेंसियां इस लक्ष्य को प्राप्त करने पर अधिक ऊंची वरीयता प्रदान करती है। इस सम्बन्ध में आर्थिक डिज़ाइन सुस्पष्ट है।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma ) उनके सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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