भारत के किसानों को भी अमेरिका और यूरोप की तर्ज़ पर एक फिक्स आमदनी की गारंटी दी जाए

Devinder Sharma | Jul 26, 2017, 14:50 IST
NCRB
आज जबकि खेती से घटती आय के कारण किसानों में रोष बढ़ता जा रहा है और कृषि ऋण की बकाया राशि को माफ़ किए जाने की मांग ज़ोर पकड़ रही है यह जानना ज़रूरी हो गया है कि अमीर देश अपने कृषि क्षेत्र का ध्यान किस प्रकार रखते हैं।

आखिरकार, यदि फसलों की उच्च उत्पादकता ही एकमात्र मापदंड है तो फिर अमेरिका और यूरोपीय संघ में कृषि सब्सिडी की दर इतनी अधिक क्यों है।

आंकलन है कि दुनिया का सबसे अमीर व्यापार संगठन, ओईसीडी ( ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कॉर्पोरेशन एंड डिवलेपमेंट) जो विकसित देशों का संगठन है, वो कृषि सहायता के रूप में हर वर्ष 420 अमेरिकी डॉलर उपलब्ध करवाता है। 2014 के फार्म बिल, जिसके तहत आगामी पांच वर्षों के लिए कृषि सब्सिडी का बजट प्रावधान किया जाता है, उसके अनुसार आगामी पांच वर्षों के दौरान अकेला अमेरिका 489 बिलियन डॉलर यानी 98 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष की कृषि सब्सिडी उपलब्ध करवा रहा है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 1997 और 2008 की दस वर्षीय अवधि के दौरान बढ़ते कर्ज़ के बोझ तले दबे होने से देश में तकरीबन 2.40 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली थी।
इसकी तुलना करना रोचक होगा। विशेषकर ऐसे समय में जब सरकार उत्पादन के लागत मूल्य से 50 प्रतिशत अधिक लाभ देने की स्वामीनाथन आयोग की समिति की सिफारिश को मानने से इंकार कर रही है। यदि अधिक कीमतों से बाजार में विकृति आती हैं तो मैं सोचता हूं कि सरकार कृषि आय को बढ़ाने के वैकल्पिक तरीके क्यों नहीं खोजती है।

आखिरकार किसान को खाद्यान्न उगाने के लिए लिए सज़ा क्यों भुगतनी पड़े। क्यों नहीं अमेरिका की तर्ज़ पर किसानों के जन-धन खातों में बाजार में हुए नुकसान की भरपाई राशि जमा की जाए। चलिए पहले हम तुलना करते हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 1997 और 2008 की दस वर्षीय अवधि के दौरान बढ़ते कर्ज़ के बोझ तले दबे होने से देश में तकरीबन 2.40 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली थी। दूसरी तरफ 1995 से 2008 के बीच अमेरिका में प्रत्यक्ष आय सहायता समेत किसानों को 12.50 लाख करोड़ रुपए की कृषि सब्सिडी दी गई थी यानि जब हमारे किसान ऋण के बोझ तले त्राहिमाम कर रहे थे तब अमेरिकी किसानों को घर बैठे मोटी रकम मिल रही थी।

यूरोप में आर्थिक सहायता और भी लाभप्रद हैं। वहां के किसानों को 4000 रुपए प्रति हेक्टेयर की प्रत्यक्ष आय सहायता प्राप्त होती है। मात्र अनाज की ही बात करें तो अगर हम 4000 रुपए को यूरोपीय संघ के 27 देशों में 2.2 लाख हेक्टेयर के बुवाई क्षेत्र से गुणा करें तो 90.40 लाख की हैरान कर देने वाली राशि सामने आती है। डेयरी किसानों को अलग से सब्सिडी दी जाती है।

समय आ गया है कि भारत के किसानों को भी अमेरिका और यूरोप की तर्ज़ पर सुनिश्चित मासिक आय उपलब्ध की जाए। प्रत्येक राज्य को राज्य कृषि आय आयोग गठित करना चाहिए जो फसलों, उत्पादकता और भूगौलिक स्थिति के आधार पर ये तय करेगा कि प्रत्येक किसान परिवार के लिए प्रति माह उनके घर की आय कितनी होनी चाहिए।
ये तो केवल वो राशि है जो अमेरिका और यूरोप के किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता के रूप में प्राप्त होती है। साथ ही उन्हें काउंटर साइक्लिक भुगतान का लाभ भी मिलता है यानि औसत बाजार भाव और लक्षित भाव के बीच जो अंतर हो वो राशि; बाजार में हानि का भुगतान (मार्केट लॉस पेमेंट) यानी सरकार द्वारा व्यापार समझौतों की शर्तों को पूरा करवाने में तत्परता न दिखाने के परिणामस्वरूप किसानों को हुए आर्थिक नुक़सान की भरपाई करने के लिए आपातकाल आय सहायता ; और अब साथ में फसल बीमा और जैव ईंधन कार्यक्रम के तहत भी सब्सिडी दी जाती है। 1995 और 2005 के बीच फोर्ब्स की 400 सबसे अमीर अमेरिकियों की सूची के 50 सदस्यों को कम से कम 6.3 मिलियन डॉलर की सब्सिडी फसल बीमा के रूप में प्राप्त हुई थी।

कई यूरोपीय देशों में खेती से अर्जित औसत आय अर्थव्यवस्था के अन्य सभी अवयवों की औसत आय से काफी ऊपर है। नीदरलैंड में खेती से प्राप्त औसत आय राष्ट्रीय औसत आय से 270 प्रतिशत ऊपर है। ऐसे में क्या आश्चर्य है कि अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में गिरावट होने के बावजूद अमेरिका और यूरोप के किसान क्रूज पर घूमने जाते हैं पर भारतीय किसान को आत्महत्या के अलावा कोई और रास्ता नहीं सूझता। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कुछ नॉर्डिक देशों (उत्तरी यूरोप देशों का समूह) में सरकार किसान को परिवार सहित यूरोप में कहीं भी एक महीने की छुट्टी मनाने जाने के लिए सब्सिडी देती हैं। आपने कब भारत के किसी किसान परिवार को छुट्टी में घूमने के लिए सफर करते देखा? कभी सुना है किसानों के लिए यात्रा भत्ता?

यूएस एनवायरमेंटल ग्रुप द्वारा प्रकाशित एक रोचक अध्ययन रिपोर्ट ,'गवर्नमेंटस कन्टीन्यूड बेल आउट फॉर कॉर्पोरेट एग्रीकल्चर,' के कुछ मुख्य अंश मैं आपके साथ साझा करता हूं। इसके अनुसार, अमेरिका ने 1995 और 2009 के बीच ट्रिलियन डॉलर का एक चौथाई अंश का कृषि सब्सिडी के रूप में भुगतान किया।

  • 2005 से औसतन पांच बिलियन डॉलर का प्रत्यक्ष भुगतान किया जा रहा है। 2014 से सीधा भुगतान बंद कर दिया गया लेकिन फसल बीमा जैसे क्षेत्रों में अधिक सब्सिडी दी जा रही है।
  • फसल बीमा कार्यक्रम के तहत सब्सिडी में तीन गुणा वृद्धि हुई है - 2005 में 2.7 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2009 में 7.3 बिलियन डॉलर हो गई है।
  • 1995 के बाद से फसल बीमा सब्सिडी 35 बिलियन डॉलर से अधिक हो चुकी हैं।
  • 1995 और 2009 के बीच संपूर्ण सब्सिडी का 74 प्रतिशत हिस्सा सर्वाधिक समृद्ध 10 प्रतिशत कृषि परिवारों की जेब में गया।
  • पिछले 15 वर्षों के दौरान सबसे समृद्ध 10 वर्ग को औसतन 4,45,127 डॉलर का कुल भुगतान किया गया। इसी अवधि में छोटे किसानों को प्रति प्राप्तकर्ता 8,862 डॉलर की प्राप्ति हुई।
ट्रम्प के प्रशासन के तहत आगामी 10 वर्षों में 38 बिलियन डॉलर की सब्सिडी की कटौती करने का निर्णय लिया गया है। धीमा सही पर ये सही दिशा में कदम है।

भारत में सामान्यतः विश्वविद्यालय किसानों को ये सलाह देते हैं कि जितना वे कृषि उत्पादकता बढ़ने में निवेश करेंगे उतनी ही उनकी आय बढ़ेगी। अगर ये सच होता तो अमेरिका और यूरोप, जहां कई फसलों की उत्पादकता भारत से दोगुनी होती है, वहां के किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती। खेत कितना भी बड़ा हो आधुनिक खेती अलाभकारी ही है। अतः समय आ गया है कि भारत के किसानों को भी अमेरिका और यूरोप की तर्ज़ पर सुनिश्चित मासिक आय उपलब्ध की जाए। प्रत्येक राज्य को राज्य कृषि आय आयोग गठित करना चाहिए जो फसलों, उत्पादकता और भूगौलिक स्थिति के आधार पर ये तय करेगा कि प्रत्येक किसान परिवार के लिए प्रति माह उनके घर की आय कितनी होनी चाहिए।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma ) उनके सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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